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जानी- मानी अंग्रेजी पत्रिका द इकनॉमिस्ट के एक लेख के मुताबिक, साल 2000 में चीन की आधी आबादी ही वहां की आधिकारिक भाषा मैंडरिन बोलती-समझती थी. अब वहां 70 परसेंट से ज्यादा लोग मैंडरिन बोलते-समझते हैं.
2000 के बाद अगर मिरेकल इकनॉमी की बात होगी, तो उसमें चीन का ही नाम आएगा. इसी दौरान आइकॉनिक कंपनियों की बात होगी, तो चीनी कंपनियों- अलीबाबा, टेनसेंट और हुवावे का नाम जरूर लिया जाएगा.
और आज के दिन में कल की टेक्नोलॉजी- चाहे वो आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस हो या रोबोटिक्स, इस पर किसी देश की बादशाहत है, तो उसमें चीन का नाम जरूर लिया जाएगा. इसके अलावा चीन में सबसे ज्यादा रिसर्च पेपर लिखे जा रहे हैं.
जरा सोचिए. चीन की बादशाहत में शायद उसकी अपनी भाषा पर जोर देने की नीति का भी हाथ हो सकता है. ऐसा नहीं है कि चीन में अंग्रेजी सीखने की ललक नहीं.
थोड़ा पीछे चलते हैं. 1970 और 1980 के दशक के मिरेकल इकनॉमी पर नजर डालेंगे, तो दो नाम मन में जरूर आएंगे- जापान और दक्षिण कोरिया. दोनों की अपनी भाषा है, जिन पर वहां के लोगों को गर्व है.
इन तीन उदाहरणों को देखकर तो यही लगता है कि आर्थिक विकास और अपनी भाषा पर जोर का कुछ तो कनेक्शन है ही. जापान और दक्षिण कोगिया की तरह चीन में स्कूली पढ़ाई पर खासा ध्यान दिया गया. लोकल भाषा में साइंस और मैथ्स के शानदार टेक्स्टबुक तैयार किए गए. नतीजा इतने सकारात्मक रहे हैं कि द न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक ब्रिटेन चीन की स्कूल टेक्स्टबुक का अनुवाद कराकर अपने स्कूलों में उसी मेथड को अपनाने पर विचार कर रहा.
बता दूं कि मैं देश की आबादी को वो 10 परसेंट वाला हिस्सा हूं, जो अंग्रेजी पढ़ता है, लिखता है और थोड़ा-बहुत बोल भी लेता है.
यहां बता दूं कि अंग्रेजी अखबार मिंट की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में अंग्रेजी बोलने-समझने वाले संभ्रांत जाति के हैं, धनी हैं, शहरी हैं और ज्यादा पढ़े-लिखे हैं. अंग्रेजी अपने देश में तरक्की का पासपोर्ट रही है, ज्यादा कमाई का सबसे आसान जरिया है और ग्लोबल सिटिजन बनने का एकमात्र रास्ता भी.
इतनी खासियत के बावजूद एक सवाल तो फिर भी बनता है- 200 साल में अंग्रेजी अपने देश की आबादी के महज 10 परसेंट हिस्से को ही क्यों छू पाई है?
दूसरी तरफ भारतीय भाषाएं, जिसमें हिंदी बहुत अहम है, तेजी से बढ़ तो रही है, लेकिन अंग्रेजी बोलने वालों के सामने हीन भावना से ग्रसित होकर. हिंदी या दूसरी भाषाएं सीखना-जानना प्रीमियम नहीं है, सफलता की कुंजी नहीं है. यह भावना गैर-अंग्रेजी वालों के मन में घर बना लेती है कि वो अंग्रेजी न सीखकर रेस में पिछड़ गए. क्या 90 परसेंट अंडर कॉन्फिडेंट इंडिया के सहारे आर्थिक तरक्की की नई कहानी लिख सकते हैं?
इस संदर्भ में गृहमंत्री के ताजा बयान को देखेंगे, जिसमें वो हिंदी को राज्यभाषा बनाने की वकालत करते हैं, तो आपको अलग मायने नजर आएंगे. उनके बयान के बाद जो बहस छिड़ी है, वो फिर से भटकती नजर आ रही है. उसका मतलब यह निकाला जा रहा है कि हिंदी को दूसरी भाषाओं पर थोपने की कोशिश हो रही. अगर इस बहस को हम नई दिशा देकर इस बात पर चर्चा करें कि भाषा की वजह से 90 परसेंट आबादी को कॉन्फिडेंट कैसे बनाएं, तो वो सही नहीं होगा?
बहस को भटकाकर हमने हिंदी को बांग्ला या तमिल के खिलाफ खड़ा कर दिया है. इसी भटकाव का नतीजा है कि हम न तो हिंदी को आगे बढ़ने देते हैं, न ही तमिल, तेलुगू या बांग्ला को. इस भटकाव का दर्द उनसे समझिए, जो किसी वजह से अंग्रेजी नहीं सीख पाते हैं.
मेरा बस एक ही आग्रह है कि अंग्रेजी और देसी भाषाओं में एक लेवल प्लेइंग फील्ड हो, ताकि हम भी चीन, दक्षिण कोरिया और जापान जैसा मिरेकल इकनॉमी बन सकें.
फिलहाल मैं शुक्रगुजार हूं गृहमंत्री का, जिनके ताजा बयान ने एक नई बहस छेड़ी है. इस बहस से देसी भाषाओं को बल मिलता है, तो यह एक सकारात्मक पहल होगी.
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Published: 17 Sep 2019,09:22 PM IST