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कारोबार में डरना मना है, क्योंकि डर के आगे जीत है

ढाई दशक पहले जिस खुलेपन से भारतीय कंपनियों को डर लग रहा था, वही अब उनके लिए कामयाबी का आसमान बन गया है.

दीपक के मंडल
नजरिया
Published:
25 साल पहले डर था कि देशी कंपनियां और असंगठित क्षेत्र के कारोबारी मल्टीनेशनल कंपनियों का मुकाबला नहीं कर सकेंगे. यह डर अब बेबुनियाद साबित हो चुका है. 
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25 साल पहले डर था कि देशी कंपनियां और असंगठित क्षेत्र के कारोबारी मल्टीनेशनल कंपनियों का मुकाबला नहीं कर सकेंगे. यह डर अब बेबुनियाद साबित हो चुका है. 
(फोटो: द क्विंट)

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बीस साल में पूरी तस्वीर बदल गई. गुरुवार के इकनॉमिक टाइम्स में जैसे ही मेरी नजर इस खबर पर पड़ी कि हल्दीराम पेप्सीको को पछाड़ कर देश की सबसे बड़ी स्नैक्स कंपनी बन गई है, आंखों के सामने 1996 का वह दौर फिल्म की रील तरह घूम गया.

यह वह दौर था, जब पेप्सीको नमकीन के अपने ब्रांड ‘लहर’ के साथ देश के भुजिया बाजार में घुसने की कोशिश कर रही थी और पूरे उत्तर भारत में स्वदेशी के झंडाबरदारों ने आसमान सिर पर उठा लिया था. माहौल ऐसा था, जैसे भुजिया का धंधा अब खत्म हो जाएगा. पेप्सीको की ‘लहर’ भुजिया बीकानेरी भुजिया का सैकड़ों करोड़ रुपये का कारोबार खा जाएगी. इस बीकानेरी सौगात के कारोबारियों और कारीगरों के पेट पर लात पड़ जाएगी.

यह वह दौर था, जब देश में ग्लोबलाइजेशन शुरू हुए 5 ही साल हुए थे और इसे लेकर तमाम तरह की अफवाहों और आशंकाओं का बाजार गर्म था. कोई कहता था कि भारत एक बार फिर ईस्ट इंडिया कंपनी का गुलाम हो जाएगा, तो कोई कहता था कि इसे गैट और डंकल इसे फिर डसेंगे.

अब तक भुजिया जैसे भारतीय पारंपरिक स्नैक्स बाजार में किसी विदेशी कंपनी ने नजर नहीं डाली थी, लेकिन जैसे ही पेप्सीको ने ‘लहर’ भुजिया को बाजार में उतारने का मन बनाया, खलबली मच गई. वैसे भी पेप्सी के आने से यह हल्ला तो हो ही रहा था कि अब नींबू पानी और दूसरे ड्रिंक भी हमारे हाथ से गए.

अखबारों और पत्रिकाओं में भुजिया कारोबार को बचाने की अपील करते हुए बड़े-बड़े लेख लिखे गए. पेप्सीको स्नैक्स बाजार से बाहर रखने की अपील की गई. डर यह दिखाया गया कि देशी कंपनियां और असंगठित क्षेत्र के भुजिया कारोबारी मल्टीनेशनल कंपनियों का मुकाबला नहीं कर सकेंगे.

लेकिन पिछले दो दशक में हालात बिल्कुल बदल गए. बीकानेरी भुजिया का स्वाद अब देश के कोने-कोने में पहुंच चुका है. राजस्थानी और गुजराती नमकीन बनाने वाली दसियों घरेलू कंपनियां हैं, जिनके प्रोडक्ट्स ब्रांड बन गए हैं. हिंदुस्तान के किसी भी कोने में चले जाइए, आपको गांव की परचून की दुकानों से लेकर सुपर स्टोर तक में हल्दीराम भुजिया की पैकेटबंद नमकीन मिल जाएगी.

तो आखिर इन 20 सालों में ऐसा क्या हुआ कि पेप्सीको जैसी कंपनी को देसी स्नैक्स के बाजार अपनी पोजीशन बनाए रखने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ रही है और हल्दीराम सिरमौर बनी बैठी है.

यह कमाल है, खुले बाजार का. बाजार खुला, तो विदेशी कंपनियां आईं. ये अपने साथ टेक्नोलॉजी, पूंजी, पूंजी जुटाने के तरीके और मार्केटिंग की नई स्ट्रेटजी लेकर आईं.
पिछले ढाई दशक के दौरान भारतीय कारोबारी जगत मजबूत हुआ है. (फोटो: द क्विंट)
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पैकेजिंग बनी अलादीन का चिराग

नई आर्थिक नीतियों ने टेक्नोलॉजी का आयात आसान कर दिया था. विदेशी मशीनरी अब सस्ते में लग सकती थी. इसका सबसे बड़ा फायदा पैकेजिंग इंडस्ट्री को मिला. एक बार जब भारत में अंदर एल्यूमीनियम फ्वायल और बाहर रंगीन-आकर्षक प्रिंटेड प्लास्टिक वाले पाउच बनने लगे, तो भारतीय स्नैक्स कंपनियों के लिए मैदान आसान हो गया. अब सादे प्लास्टिक या कागज के पैकेट में नमकीन रखकर देश के अंदरूनी बाजारों में भेजने में आने वाली दिक्कतें खत्म हो गईं. पाउच की एयरटाइट पैकेजिंग से इन्हें दूर-दूर तक ताजा डिलीवर करना आसान हो गया. कंज्यूमर के लिए यह हाइजेनिक भी था और खाने के लिहाज से सुविधाजनक भी.

भारतीय कंपनियां जिस कंपिटीशन से डर रही थीं, टेक्नोलॉजी ने उसे निकाल बाहर किया. हल्दीराम के साथ-साथ असंगठित क्षेत्रों की पचासों स्नैक्स कंपनियां भुजिया और दूसरी तरह की नमकीनों के बाजार में छा गईं.

इस बीच, पेप्सीको ने कई बार देसी नमकीन और भुजिया बाजार में ‘लहर’ ब्रांड की भुजिया और दूसरे देसी नमकीन प्रोडक्ट्स को जमाने की कोशिश की, लेकिन तब तक भारतीय कंपनियां इतनी सयानी हो चुकी थीं कि उसे इस बाजार में ज्यादा कामयाबी नहीं मिल पाई.

कंपिटीशन में ही है कामयाबी का नुस्खा

बीकानेर की खास मोठ दाल से बनी भुजिया की बदौलत आज हल्दीराम घर-घर में जाना-पहचाना ब्रांड बन गया है. इसकी कामयाबी खुले बाजार की बदौलत आई टेक्नोलॉजी और स्किल को अपनाने की भारतीय कंपिनयों की इच्छाशक्ति का नतीजा है.

जिन भारतीय कंपनियों में यह जज्बा नहीं था, वे मिट गईं. इसी जज्बे का नतीजा है कि महज कुछ सालों के भीतर पतंजलि जैसी कंपनियां तमाम मल्टीनेशनल कंपनियों को कई प्रोडक्ट सेगमेंट में टक्कर दे रही हैं. मल्टीनेशनल कंपनियों को पतंजलि की काट नहीं मिल रही है.

ढाई दशक पहले जिस खुलेपन से भारतीय कंपनियों को डर लग रहा था, वही अब उनके लिए कामयाबी का आसमान बन गया है.(फोटो: Pixabay)

कहानी की असली सीख क्या है?

हल्दीराम की कामयाबी बताती है कि बाजार है, तो कंपि‍टीशन है. खुलापन जिंदगी की सच्चाई है. व्यक्ति हो या व्यापार, बंद माहौल में नहीं पनप सकता. भारत में ग्लोबलाइजेशन के ढाई दशक पूरे हो चुके हैं. कामयाब कंपनियों की कहानियों का यही सबक है कि बाजार की प्रतिस्पर्धा और चुनौतियां ही उनके लिए इतिहास बनाने का अवसर लेकर आती हैं.

ढाई दशक पहले ग्लोबलाइजेशन का डर था, आज आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का है. लेकिन आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस भी नई स्किल का एक पूरा बाजार तैयार कर रहा है.

नए विचारों और टेक्नोलॉजी को डर से नहीं उम्मीद से देखना चाहिए. इतिहास ने बार-बार यह साबित किया है डर के आगे जीत है.

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