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मंडल कमीशन के घोर विरोध से समर्थन तक का सफर

बसों पर स्टूडेंट सवार होकर नारे लगा रहे थे- वीपी सिंह हाय हाय, मंडल कमीशन डाउन डाउन

संजय अहिरवाल
नजरिया
Published:


बात 1990 यानी आज से 27 साल पहले की है, तब हम युवा और आदर्शवादी थे
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बात 1990 यानी आज से 27 साल पहले की है, तब हम युवा और आदर्शवादी थे
(फोटो: Chalu Purza)

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बात 1990 यानी आज से 27 साल पहले की है, तब हम युवा और आदर्शवादी थे. मैं उन दिनों दिल्ली यूनिवर्सिटी के एक कॉलेज में पोस्टग्रेजुएशन कर रहा था. कहने को यह कॉलेज था लेकिन यहां के माहौल की वजह से यूनिवर्सिटी में यह स्कूल के तौर पर मशहूर था. दरअसल, यहां के टीचर्स और स्टूडेंट दोनों को यूनिवर्सिटी की पॉलिटिक्स से कोई सरोकार नहीं था.

मंडल कमीशन रिपोर्ट ने हलचल मचा दी

पढ़ाई और कॉलेज सब अपने ढर्रे पर चल रहा था, तभी अचानक उस वक्त के प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने का ऐलान कर दिया. मंडल कमीशन की रिपोर्ट में नौकरी और यूनिवर्सिटी में 27% सीटें पिछड़े वर्ग यानी अदर बैकवर्ड क्लास (ओबीसी) के लिए रिजर्व कर दी गई.

इस ऐलान से दिल्ली यूनिवर्सिटी के शांत जीवन में भयंकर हलचल मच गई. पूरी यूनिवर्सिटी के छात्रों ने विरोध का झंडा उठा लिया. असंतोष की चिंगारी सेंट स्टीफेंस कॉलेज तक पहुंच गई. हमने क्लास का बॉयकॉट शुरू कर दिया और दूसरे छात्रों को भी इसके लिए मजबूर किया. हालात ऐसे थे कि यूनिवर्सिटी के आसपास के इलाकों की हवा में तक में असंतोष का तनाव दिख रहा था.

हमने किंग्सवे कैंप में विरोध प्रदर्शन किया, रामजस कॉलेस के बाहर क्रांति चौक पर धरने में बैठे. लेकिन इसी दौरान लीडरशिप की कमी बहुत खटकी. हमने आंदोलन तो किया पर नेतृत्व ना होने की वजह से पूरा प्रदर्शन भावनात्मक ज्यादा था पर ऑर्गेनाइज्ड नहीं होने की वजह से असरदार साबित नहीं हो रहा था.

दिल्ली यूनिवर्सिटी में आंदोलन की आग

मतलब विरोध के नाम पर सब कुछ हुआ सड़कों पर ट्रैफिक रोका गया, डीटीसी की बसों को हाईजैक करके ड्राइवरों को रिंग रोड का चक्कर लगाने को मजबूर किया गया. इन बसों पर स्टूडेंट सवार होकर नारे लगा रहे थे- वीपी सिंह हाय हाय, मंडल कमीशन डाउन डाउन

उन दिनों मौसम भी मानो खफा था, सुबह से गर्म और चिपचिपा मौसम था और हम हर क्लास में जाकर स्टूडेंट से अपने प्रदर्शन मार्च में चलने की अपील करते घूम रहे थे. यह प्रदर्शन आईटीओ में दिल्ली पुलिस के मुख्यालय के सामने हो रहा था. दोपहर होते होते 200 से ज्यादा स्टूडेंट आंदोलन स्थल तक पहुंच चुके थे. पुलिस ने पूरी तैयारी कर रखी थी, मुख्यालय की तरफ जाने वाली व्यस्त सड़क को दोनों तरफ से बंद कर दिया गया.

स्टूडेंट पुलिस बैरीकेड तोड़कर मुख्यालय में घुसने के लिए पूरा जोर लगा रहे थे. अब पुलिस को भी ताकत लगानी पड़ रही थी, कुछ ही देर में पुलिस ने हल्का लाठीचार्ज कर दिया, अब मामला और तनावपूर्ण हो गया मानो चूहा बिल्ली का खेल शुरू हो गया. हम स्टूडेंट पीछे तो हटे लेकिन दौड़कर दूनी ताकत से फिर आ गए. अब पुलिस आंसूगैस छोड़ने लगी, लेकिन स्टूडेंट डटे रहे. अचानक किसी ने पीछे से पुलिस मुख्यालय के अंदर एक पत्थर फेंका, बस क्या था, जवाब में मुख्यालय के अंदर से स्टूडेंट पर पत्थरों की बरसात शुरू हो गई. 

पुलिस के पास तो हेलमेट समेत बचने के तमाम साधन थे, लेकिन हमारे पास बचाव का कोई साधन नहीं था. कॉलेज में मेरे दो जूनियर साथी इस झगड़े में बीचोंबीच फंस गए. मैंने इन दोनों साथियों बरखा दत्त और राधिका बोरदिया से कहा कि हालात बेकाबू होने से पहले सुरक्षित जगह पर चली जाओ.

बाद में ये दोनों साथी पत्रकारिता में भी मेरे सहयोगी बने. खैर यह सब चल रहा था तभी हमें खबर मिली कि देशबंधु कॉलेज के राजीव गोस्वामी ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट के विरोध में एम्स के पास आत्मदाह की कोशिश की है. यह खबर स्टूडेंट तितर बितर करने के लिए काफी थी.

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आत्मदाह से आंदोलन में तेजी

राजीव गोस्वामी काफी जल गए लेकिन उनकी जान बचा ली गई. लेकिन इससे देशभर में आत्मदाह की खबरों का सिलसिला शुरू हो गया. यूनिवर्सिटी में हमारा विरोध प्रदर्शन जारी था, लेकिन अब प्रशासन के तेवर सख्त होने लगे थे, इसी तरह पुलिस का रुख भी कड़ा हो गया था.

हमारे प्रिसिंपल डॉक्टर जॉन हाला की तरफ से हमें हर रोज चिट मिलने लगी कि सुबह 10 बजे उनके ऑफिस में मिलें. हम वहां जाते तो उनकी बहुत डांट खाते. उनकी चेतावनी थी कि स्टूडेंट को हॉस्टल से बाहर निकाल दिया जाएगा.

प्रिंसिपल साहब ने चेतावनी दी कि माता-पिता को बुलाकर सभी स्टूडेंट को उनके साथ घर भेज दिया जाएगा. हम सिर झुकाकर उनकी बात सुनते, लेकिन फिर वही करने लगते, एक एक क्लास में जाकर स्टूडेंट को बॉयकॉट करने के लिए उकसाते और विरोध प्रदर्शन में शामिल करने को कहते. कई टीचर हमारे समर्थन में थे और हमें संघर्ष के लिए उत्साहित करते.

हकीकत तो यह थी कि प्रिंसिपल डॉक्टर हाला भी हमारे आंदोलन के समर्थक ही थे, वो सुबह प्रिंसिपल की तरह व्यवहार करते और शाम को हमें मेंटर की तरह मिला करते. वो सरकार से कदम पर सवाल उठाते कि इस तरह के कदम से समाज बुरी तरह विभाजित हो जाएगा. शाम को किंग्सवे कैंप, मौरिस नगर में रहने वाले लोग भी क्रांति चौक तक आते और हमारा उत्साह बढ़ाते. तमाम घटनाक्रम बड़ी तेजी से हो रहा था.

सभी का यही मानना था कि रिजर्वेशन के इस तरीके से देश को बहुत नुकसान होगा. तमाम लोग यही अनुमान लगा रहे थे कि प्रधानमंत्री वी पी सिंह ने उपप्रधानमंत्री देवीलाल को घेरने के लिए यह चाल चली है, क्योंकि देवीलाल प्रधानमंत्री की हैसियत और अधिकार को चुनौती दे रहे थे. एक के बाद एक कई आत्मदाह की कोशिशों की वजह से वीपी सिंह ने दिल्ली पुलिस को आदेश दिया कि यूनिवर्सिटी में मंडल कमीशन के विरोध प्रदर्शनों पर रोक लगाए.

‘पुलिस कभी हमारे कॉलेज या हॉस्टल में नहीं आई’

अब तक आंदोलन को उकासाने वालों के तौर पर मेरी और निशीथ सहाय की निशानदेही हो चुकी थी. हमें बार बार बताया जा रहा था कि यह कॉलेज स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भी बंद नहीं हुआ था, और हम इसे हमेशा के लिए बंद करने पर उतारू हैं. गिरफ्तारी के डर से हम अपने कमरों में नहीं सोते थे. हमारी खुशकिस्मती रही कि पुलिस कभी भी हमारे कॉलेज या हॉस्टल की बिल्डिंग के अंदर नहीं आई.

स्टूडेंट के बीच आईबी की घुसपैठ

जब सरकार स्टूडेंट का विरोध प्रदर्शन रोकने में नाकाम रही तो, आईबी(इंटेलिजेंस ब्यूरो) के लोग प्रदर्शनकारी स्टूडेंट के साथ शामिल हो गए और उसके जरिए विरोध प्रदर्शन खत्म करने की कोशिशें शुरू हो गईं. लेकिन सरकार की ये कोशिश सफल नहीं हुई.

लेकिन तभी स्टूडेंट आंदोलन के समर्थन में हरियाणा के किसानों की रैली हुई जिसने अचानक ही स्टूडेंट आंदोलन खत्म कर दिया. इसकी वजह थी कि किसानों की रैली हिंसक हो गई, पुलिस को गोली चलानी पड़ी और तीन लोगों की मौत हो गई.

इसी के साथ दिल्ली यूनिवर्सिटी में छात्रों का मंडल विरोधी आंदोलन खत्म हो गया. हालांकि आंदोलन वी पी सिंह की विश्वसनीयता खत्म करने में सफल रहा, बाद में उनकी कुर्सी भी चली गई.

नेताओं की फौज तैयार हो गई

मंडल कमीशन की रिपोर्ट बाद में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से लागू हो गईं और इस बार कोई विरोध या प्रदर्शन नहीं हुआ. लेकिन 1990 में मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने की वी पी सिंह की असफल कोशिश भारतीय राजनीति की ऐसी ऐतिहासिक घटना है कि उसके बाद देश की राजनीति हमेशा के लिए बदल गई. अन्य पिछड़ी जातियों के आक्रामक नेताओं की फौज तैयार हो गई, बिहार में लालू यादव, नीतीश कुमार और उत्तर प्रदेश में मुलायम यादव का दबदबा हो गया.

व्यक्तिगत तौर पर मैंने मंडल विरोधी आंदोलन में शामिल होने का मेरा मकसद यह नहीं था कि मुझे अपनी नौकरी के लिए खतरा दिख रहा था. बल्कि मेरा तो यह मानना था कि एक जाति को दूसरी जाति से मुकाबला कराना नैतिकता के लिहाज से गलत है.

मध्यप्रदेश और बिहार में रहने की वजह से मैंने महसूस किया कि अन्य पिछड़ी जातियां आर्थिक तौर पर काफी बेहतर स्थिति में हैं और अपने हितों और अधिकारों के प्रति सजग हैं. जबकि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के मामले में ऐसे हालात नहीं हैं, उन्हें अभी भी आगे बढ़ने के लिए सरकार के संरक्षण की जरूरत है.

वीपी सिंह ने इस मुद्दे का राजनीतिकरण करके सामाजिक विभाजन की ऐसी दीवार खड़ी कर दी जो अब तक अपेक्षाकृत प्रगतिशील दिल्ली यूनिवर्सिटी में नहीं देखी गई थी. विभाजन की लाइन इतनी अधिक थी कि कई ऐसी भी घटनाएं सामने आईं जिनमें एससी, एसटी और ओबीसी से स्टूडेंट को मेस में सवर्ण स्टूडेंट की टेबल से अलग खाने को कहा गया.

कैसे मंडल का समर्थक बना

समय बीता और फिर में पत्रकार बन गया. इस दौरान मेरा देश के हर कोने में जाना हुआ. इस दौरान मुझे देश और लोगों को जानने का मौका मिला. मैंने वास्तविक भारत देखा. गरीब, कमजोर और दबे कुचले लोगों की हकीकत जानी. जब पता लगा कि अमीर और गरीब के बीच खाई कितनी गहरी है. इसके बाद मैं अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्गों को रिजर्वेशन का घनघोर समर्थक बन गया.

मुझे अपने इस बदलाव पर गर्व है. लेकिन मैं यह भी मानता हूं कि कॉलेज के दौरान मंडल विरोधी आंदोलन में शामिल होने पर मुझे कोई शर्मिंदगी नहीं है. यह भी सच है कि जब हम बड़े होते हैं तो उस दौरान हम सभी गल्तियां करते हैं, यही तो जीवन का अभिन्न हिस्सा है.

(इस आर्टिकल के लेखक जाने-माने पत्रकार और NDTV वर्ल्‍डवाइड के मैनेजिंग एडिटर हैं. यह उनके निजी विचार हैं. आलेख के विचारों में क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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