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JNU विवाद में अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है मोदी सरकार ने. भारतीय दंड संहिता (इंडियन पीनल कोड) की धारा 124 (A) 1860 में लिखी गई थी, अंग्रेजों की गुलामी से भारत के आजाद होने से 87 साल पहले: यह अंग्रेजों का बनाया देशद्रोह का कानून है.
9 फरवरी को बिहार के बेगूसराय का रहने वाले कन्हैया कुमार, जो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रसंघ के अध्यक्ष भी हैं, उन्हें इसी देशद्रोह के आरोप पर गिरफ्तार कर लिया गया.
यह लगभग तय है कि कोई भी कोर्ट उन्हें दोषी करार नहीं देगा, पर चूंकि देशद्रोह के आरोपी को बेल नहीं मिलती, तो यह जरूर होगा कि देश के टैक्स भरने वालों के पैसे पर उन्हें जेल में कुछ रातें बितानी पड़ जाएं.
बालगंगाधर तिलक और मोहनदास करमचंद गांधी को भी इसी कानून के तहत गिरफ्तार किया गया था. गांधी ने इस गिरफ्तारी का स्वागत किया था. उनका कहना था कि देशद्रोह का अर्थ है ‘राज्य के खिलाफ असंतोष’, तो वे सम्मानित महसूस करते हैं. उन्हें उस औपनिवेशक ‘राज्य’ से कोई प्यार न था.
कुमार भी कुछ ऐसे ही तर्क अपने पक्ष में दे सकते हैं. उनकी गिरफ्तारी की परिस्थितियां साफ नहीं हैं. पिछले कुछ दिनों में यह साफ हुआ है कि केंद्र की बीजेपी सरकार, खास तौर पर गृहमंत्री राजनाथ सिंह, जो दिल्ली की पुलिस को दिशा-निर्देश देते हैं, वे विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले युवाओं को हिंदुत्व के एजेंडा के तहत उनका शिकार करने की कोशिश कर रहे हैं कि अगर आप हमारे एजेंडा का समर्थन नहीं करते तो आप राष्ट्र विरोधी हैं.
9 फरवरी को कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (CPI) की स्टूडेंट विंग AISF से जुड़ाव रखने वाले कुमार ने अफज़ल गुरु की तीसरी बरसी पर आयोजित एक कार्यक्रम में हिस्सा लिया. कुमार को 2001 में भारतीय संसद पर हमला करने वाले आतंकवादियों का समर्थन करने के लिए गिरफ्तार किया गया.
शासन का कहना है कि इस कार्यक्रम के दौरान देश विरोधी और पाकिस्तान समर्थक नारे लगाए गए, जहां वाम समर्थक छात्र बीजेपी की स्टूडेंट विंग एबीवीपी के खिलाफ लामबंद थे.
अभी तक यह साफ नहीं हो सका है कि वे नारे किसने लगाए. ज़ी न्यूज पर प्रसारित वीडिेयो फुटेज के मुताबिक उनका दावा है कि इस कार्यक्रम में उपस्थित लोगों के बीच मौजूद एबीवीपी के छात्रों ने ही वे नारे लगाए, ताकि शासन को कार्रवाई का मौका मिल सके.
पुलिस का कहना है कि वह इस फुटेज व अन्य मौजूद फुटेज की जांच कर रही है.
नारेबाजी खत्म होने के बाद कन्हैया कुमार व उनके साथी इकट्ठा हुए. कन्हैया ने एक जोशीला भाषण दिया, जिसमें उन्होंने साफ तौर पर देश के संविधान में अपनी निष्ठा जताई.
उन्होंने बीजेपी और एबीवीपी पर आरोप लगाया कि वे देश में एक अलग ही तरह का संविधान लागू करने की कोशिश कर रहे हैं, जिसे ‘नागपुर और झंडेवालां में लिखा गया है’. नागपुर बीजेपी व करीब 3 दर्जन अन्य संस्थाओं की अभिभावक संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मुख्यालय है, जबकि झंडेवालान में आरएसएस का दिल्ली कार्यालय है.
कुमार ने देश के गरीबों और शोषितों की बात की और कहा कि दिल्ली की मौजूदा व्यवस्था के पास उनके लिए समय नहीं है. कन्हैया को देशविरोधी बताने से पहले इस भाषण को सुनना जरूरी है.
1950 के बाद देशद्रोह के कई मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने लगातार यह निर्णय दिया है कि देशद्रोह के आरोपी को तभी दोषी ठहराया जा सकता है, जब उसने शब्दों के साथ-साथ हिंसा भी की हो.
कुमार के भाषण में इनमें से कुछ भी नहीं हैं, न देशविरोधी शब्द और न ही हिंसा,जबकि उनके भाषण में देश के संविधान और लोकतंत्र और सभी के लिए न्याय अर्जित करने के लिए साथ खड़े होने की अपील है.
अगर बीजेपी को ये शब्द देशविरोधी लगते हैं, तो उन्हें राष्ट्रवाद की अपनी नई परिभाषा सामने रखनी होगी, जो सिर्फ ऊंची जाति वाले हिंदुओं के हितों के लिए ही लिखी गई हो.
एक लोकतंत्र में विरोध और तर्क करने का अधिकार दिया जाता है. लगातार सवाल उठाए जाने के अभाव में समाज के सामने यथास्थिति के बोझ के कारण विकासहीनता की स्थिति आ जाती है, जो किसी भी तरह की प्रगति को रोक देती है.
एक सच्चे लोकतंत्र को बहुमत के खिलाफ रखे जाने वाले तर्क का भी सम्मान करना सीखना होता है: और हां, उसमें अफज़ल गुरु को शहीद कहना भी शामिल है.
जेएनयू विवाद, बीजेपी सरकार के लिए कुछ ऐसे परिणाम लाया है और लाएगा, जिनकी उन्हें उम्मीद नहीं रही होगी. पहला, इस विपक्षी पार्टियों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों और सिविल सोसाइटी के इस दावे को बल मिला है कि यह सब समाज को बांटने और असहिष्णुता फैलाने की बीजेपी प्रशासन की साजिश है.
छात्रों को उनकी बात कहने से रोकने के लिए पुलिस का एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में घुस जाना इसका सीधा उदाहरण है.
दूसरे, यह बीजेपी की विपक्षी कांग्रेस, वाम पार्टियों और दिल्ली की आम आदमी पार्टी को एक साथ आने को प्रेरित कर सकता है. कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने जिस तरह वाम नेताओं के साथ मत साझा किया, उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता.
तीसरे, जेएनयू विवाद का खामियाजा 23 फरवरी से शुरू होने वाले बजट सत्र को भी भुगतना होगा. वित्त विधेयक के अलावा इस सत्र में किसी अन्य महत्वपूर्ण विधेयक के पास होने की उम्मीद नहीं नजर आती.
चौथा बिंदु है बीजेपी के इस दावे का खोखलापन साफ नजर आना कि वह राष्ट्रवाद के एकलौते ठेकेदार हैं. आज उन छात्रों को जेल भेजा जा रहा है, जिन्होंने अफज़ल गुरु के साथ सुहानुभूति दिखाई है.
24 महीने से भी कम पुरानी बात है जब बीजेपी ने जम्मू-कश्मीर में पीडीपी के साथ सरकार बनाने के लिए गठबंधन करने से भी गुरेज नहीं किया. पीडीपी के संस्थापक मुफ्ती मुहम्मद सईद, हाल ही में 7 जनवरी को जिनका इंतिकाल हो गया, अफज़ल गुरु के समर्थन में मुखर होकर बोलने वाले लोगों में से एक थे.
जेएनयू विवाद से पहले ही मुसीबत में पड़ा बीजेपी-पीडीपी गठबंधन जेएनयू विवाद के बाद अब और भी कमजोर हो चुका है.
अंत में देश के उदारवादी बुद्धिजीवी, जिनमें से कुछ मोदी सरकार के लिए झुकाव भी रखने लगे थे, वे सब जेएनयू छात्रों के साथ हो रहे बर्ताव के कारण एक बार फिर बीजेपी और मौजूदा सरकार से कटने लगे हैं.
दिल्ली के एक थिंक टैंक, ‘सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च’ के अध्यक्ष प्रताप भानु मेहता ने अपने कॉलम की शुरुआत कुछ इस तरह की: “कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी और जेएनयू राजनैतिक मतभेद रखने के लिए जेएनयू के छात्रों के खिलाफ की गई कार्रवाई यह दिखाती है कि हम एक ऐसी सरकार द्वारा शासित हैं, जो न सिर्फ उग्र रूप से नुकसानदेह है, बल्कि राजनीतिक रूप से अक्षम भी है.” इसका शीर्षक था, “एक निरंकुश कृत्य” (एन एक्ट ऑफ टेरैनी).
(लेखक दिल्ली के एक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)
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