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हैदराबाद में सामूहिक बलात्कार के बाद जला दी गई डॉक्टर के आरोपियों का एनकाउंटर कर दिया गया. एनकाउंटर करने वाली पुलिस के जिन्दाबाद और जश्न की तस्वीरें सामने आ रही हैं. मीडिया में पुलिस का यशगान हो रहा है. समाज का एक तबका मुखर होकर खुशी का इजहार कर रहा है. जो इस एनकाउन्टर को शक की नजर से देखते हैं, वे चुप रहने को विवश हैं.
अगर किसी ने इस एनकाउन्टर पर कोई सवाल उठाया, तो वह समाजद्रोही या देशद्रोही करार दिया जा सकता है. मगर इस डर से आवाज ही न निकले, यह कैसे हो सकता है? अगर ऐसा हुआ, तो समझिए समाज की चेतना सो गई है.
जो पुलिस उन्नाव गैंगरेप में निष्क्रिय, लापरवाह, गुनहगारों का साथ देने वाली होती है, वही पुलिस हैदराबाद में अपने लिए जनता के जयकारे बटोरती है. जो पुलिस कठुआ गैंगरेप में जांच तक में बेईमानी करती है, आरोपियों को बचाती है, उनका साथ देती है, वही पुलिस हैदराबाद में एनकाउन्टर करके न्याय की रक्षक बनी दिख रही है. यह विरोधाभासी स्थिति क्यों है?
हैदराबाद में हुआ एनकाउन्टर गैंगरेप और हत्या के चार आरोपियों का एनकाउन्टर नहीं है, यह उस (अ)न्याय व्यवस्था का एनकाउन्टर है, जिसमें ऐसे आरोपियों का कुछ बिगड़ नहीं पा रहा है. यह उस उम्मीद का एनकाउन्टर है, जो ऐसी घटनाओं के बाद देश में पैदा होती है. यह एनकाउन्टर संसद के भीतर उठी उस आवाज से जमीन पर पैदा हुआ आगाज है, जिसमें बलात्कारियों की मॉब लिंचिंग की वकालत की जा रही है.
उन्नाव में बलात्कार की आरोपी न्याय की चौखट के लिए निकली थी. आरोपियों ने उसे वहां पहुंचने से पहले ही जला डाला. कानून-व्यवस्था, पुलिस प्रशासन और राजनीतिक व्यवस्था की बेबसी से पैदा हो रहे आक्रोश पर मरहम लगा रहा है यह एनकाउन्टर. मगर, ये मरहम फौरी पेनकिलर हो सकता है, बीमारी का इलाज नहीं. इलाज तो दूर की बात है, इससे समाज में ऐसा रिएक्शन होने वाला है, जो आम तौर 'दवा का रिएक्शन' बोला जाता है. न्याय-व्यवस्था में ही इस स्थिति का एंटीडोज है.
देश की न्याय-व्यवस्था दवाओं का डोज या एंटीडोज देने में पीछे है, सुस्त है.
आंकड़े न्याय में देरी की बात तो बताते हैं, मगर बलात्कार के मामलों में पैदा हो रही नई प्रवृत्ति के बारे में नहीं बताते. निर्भया कांड के बाद कानून में बदलाव हुए. इसके बावजूद बलात्कार की रोंगटे खड़ी करने वाली घटनाएं कम नहीं हुईं. अब बलात्कारी सिर्फ बलात्कार नहीं करते, उसका वीडियो बनाते हैं. पीड़िता को न्यायालय की चौखट तक जाने देने से रोकते हैं.
अपनी पहुंच के बल पर हर मुमकिन कोशिश करते हैं, जिससे उनके खिलाफ केस खत्म हो जाए. ब्लैकमेल भी करते हैं. इस क्रम में पीड़िता को जिन्दा जला देने जैसी घटनाओं को भी अंजाम देने से नहीं चूकते.
हैदराबाद में डॉक्टर के साथ सामूहिक बलात्कार के बाद उन्हें जिन्दा जला कर सबूत नष्ट करने तक मामला पहुंच चुका था. ऐसी घटना का तत्काल इलाज क्या हो, इस बारे में सोचने को विवश करता है हैदराबाद का एनकाउन्टर.
हैदराबाद में हुआ एनकाउन्टर जश्न मनाने का अवसर नहीं, यह चिन्ता करने का अवसर है कि बलात्कार के खौफ से आधी आबादी को आजाद कराने के लिए आपात फैसले लिए जाएं.
हैदराबाद एनकाउन्टर समाज के एक तबके में फौरी राहत और संतोष की वजह तो हो सकती है मगर यही देश में न्याय व्यवस्था की इमारत ढहाने वाला भी साबित होगा. एक बार जब हम न्याय व्यवस्था को तोड़ देंगे या इसका रुख करना छोड़ देंगे, तो देश में स्वयंभू लोगों के अनगिनत न्यायालय खड़े हो जाएंगे. अराजकता इसी स्थिति का नाम होता है. अराजक समाज का निर्माण ही न्याय की लाश पर होता है.
हैदराबाद का एनकाउन्टर सही था या फर्जी था, इस बहस में पड़ने से कोई फायदा नहीं है. हम इसे चाहें तो अपना औचित्य और विश्वसनीयता खोती जा रही पुलिस का अवसरवाद कह लें, मगर पुलिस ने तालियां बटोर ली हैं. आने वाले दिनों में ऐसे एनकाउन्टर और भी होंगे, इसकी पूरी आशंका है. इसे रोकने पर ध्यान दिया जाना चाहिए, ताकि यह प्रवृत्ति नासूर न बन जाए. हां, ऐसा करते हुए एक गलती से बचना होगा. यह गलती है चंद बलात्कार के आरोपियों के मानवाधिकार का सवाल उठाना.
ऐसा करके हम बेवजह बलात्कार पीड़िता या उसके परिवार के लोगों की भावनाओं को छलनी कर रहे होंगे. इस घटना से द्रवित लोगों में गुस्सा भर रहे होंगे. हमारी चिन्ता यही है कि जो काम न्यायपूर्ण ढंग से होना चाहिए, उसका शॉटकर्ट खोजा गया है, जो नहीं होना चाहिए था क्योंकि यह न्याय व्यवस्था को तोड़ने वाला एक्शन है.
सवाल ये है कि हैदराबाद एनकाउन्टर के स्याह पक्ष को देखेगा कौन? यह काम देश का राजनीतिक नेतृत्व नहीं करेगा, क्योंकि उसे भी एनकाउन्टर के बाद की तालियां प्रभावित करती रहेंगी. सत्ता पक्ष हो या विपक्ष हो, दोनों ही तालियां पीटने वालों के साथ ही खड़ी होंगी. समाज का जागरूक वर्ग व्यक्तिगत स्तर पर प्रतिक्रियाएं देकर अपना उपहास उड़ाने के अलावा कुछ परिणाम नहीं दे पाएगा.
पहल उसी न्याय व्यवस्था को करनी होगी, जिसके प्रति तमाम शिकायतों के बावजूद उम्मीदें खत्म नहीं हुई हैं. हैदराबाद एनकाउंटर अपराधियों का नहीं, देश की न्याय व्यवस्था का एनकाउंटर है.
(प्रेम कुमार जर्नलिस्ट हैं. इस आर्टिकल में लेखक के अपने विचार हैं. इन विचारों से क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है.)
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