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(जैसा कि द क्विंट, ओपेड की असिस्टेंट एडिटर इंदिरा बसु को बताया)
भारत में कोविड-19 महामारी की बारीकियों (जैसे वैक्सीन की कमी, या दूसरी किस्म की कमियों) को देखने की बजाय हमें कुछ मूलभूत बातों की तरफ ध्यान देना चाहिए. क्योंकि संदर्भ को समझे बिना, नतीजे निकलाना सही नहीं होगा. सबसे पहले हमें इस सच्चाई को स्वीकार करना होगा कि इस समय जो कुछ भी हो रहा है, इसकी किसी को उम्मीद नहीं थी.
भारत सहित ऐसा किसी देश में कभी नहीं हुआ. मुझे लगता है कि राज्यों को साथ लेकर न चलने, उन्हें शामिल न करने की हमारी आदत ने महामारी के दौरान ज्यादातर समस्याएं खड़ी की हैं. मैं आपको एक उदाहरण देता हूं. ऐसे हालात पहले भी हुए हैं जब हमने राज्यों को अपने भरोसे में लिया, उनसे साथ झगड़े नहीं किए- और संघीय ढांचा इसी को कहते हैं.
मैं आपको इस सरकार की आम सहमति कायम करने की काबिलियत के उदाहरण देता हूं. इसने ऐसा दो मौकों पर किया. एक में मैं व्यक्तिगत रूप से शामिल था. दूसरे में नहीं. पहला उदाहरण कोयला ब्लॉक की नीलामी का है.
इस समय, कोयला उन्हीं राज्यों में पाया जाता है, जहां विपक्षी दलों की सरकारें हैं. लेकिन 2014 में स्थितियां कुछ अलग थीं. पश्चिम बंगाल और ओड़िशा जैसे विपक्षी दलों की सरकारों वाले राज्यों में कोयला हुआ करता था. एक विकल्प तो यह था कि राज्यों का कान उमेंठकर उन्हें किसी तरह राजी कराया जाए. दूसरा विकल्प था कि एक रणनीति के तहत काम किया जाए. अरुण जेटली के नेतृत्व में हमने यही करने का फैसला किया. हमने तय किया कि राज्यों के साथ बातचीत की जाए और उन्हें वैल्यू प्रेपोजिशन की पेशकश की जाए. मतलब, इसमें उनका क्या फायदा होगा.
मैं इसे इसलिए स्पष्ट कर रहा हूं क्योंकि मुझे लगता है, हम उसे भूल गए हैं.
अपनी किताब ‘एथिकल डिलेमा ऑफ अ सिविल सर्वेंट’ में मैंने एक चैप्टर में बताया है कि हमने कैसे ओड़िशा के मुख्यमंत्री से बातचीत की और उन्हें इस बात का भरोसा दिया कि जो किया जा रहा है, वह उनके फायदे के लिए है. उन्होंने संसद में इस विधेयक का समर्थन दिया. मैं लोकसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खडगे से मिला. मैं उनके साथ श्रम मंत्रालय में काम कर चुका था. मैं उनसे उनके घर पर मिलने गया. मैं किसी मंत्री, या किसी नेता से व्यक्तिगत अनुरोध के लिए मिलने नहीं जाता था. लेकिन इस बार मैं उनके घर गया. मैंने उनसे मिलने का समय मांगा और उन्हें वह समय दिया भी, क्योंकि वह मुझे व्यक्तिगत रूप से जानते थे.
उन्होंने ऐसा करने का आश्वासन तो नहीं दिया लेकिन किस्मत ने साथ दिया. जब विधेयक पर बहस शुरू हुई तो कांग्रेसी सांसद वेल में नहीं आए. विधेयक पर विचार हुआ, बहस हुई और वह पारित हो गया.ऐसा ही तरीका अपनाया जाना चाहिए. हमने ऐसा अरुण जेटली के नेतृत्व में किया था जिन्होंने ममता बैनर्जी और दूसरे विपक्षी नेताओं के साथ बातचीत करने की पहल की.
दूसरा उदाहरण जीएसटी है. वह एक टेढ़ी खीर था. यह अरुण जेटली की चतुराई थी कि वह सभी राज्यों को एक मंच पर ले आए. लेकिन 2016 के बाद हम राज्य सरकारों के साथ दो दो हाथ करने पर उतारू हो गए. यही आज की स्थिति है. जब राज्य सरकारें आपको संदेह की नजरों से देख रही हैं, जो हमेशा सही नहीं भी होता, तो आप खुद को कृषि विधेयकों, वैक्सीनेशन जैसी संकट की स्थितियों में पाएंगे (अलग अलग कीमतें, रोल आउट, आबंटन वगैरह).
फिर अपनी हदों को स्वीकार करने का भी मुद्दा है. जैसे, अगर देश में वैक्सीन की सप्लाई की एक सीमा है, तो लोगों को इसकी जानकारी होने दीजिए. इस सच्चाई को स्वीकार कीजिए. अगर आप ऐसा करें तो कोई आपको फांसी पर नहीं चढ़ाएगा. लेकिन हम यह कहना चाहते हैं कि हमारे पास सब कुछ है, लेकिन देते हम मुट्ठी भर ही हैं. ऐसे में हमें इस समस्या से निपटने का संकट भी झेलना होगा.
लेकिन अगर आप ऐलान करने के बाद हल ढूंढेंगे- या ढूंढने की कोशिश करेंगे- कि आपके पास वैक्सीन की कमी है तो आपके लिए यह एक समस्या होगी.
देखिए, सरकारी ढांचा कमियों के बीच ही काम करता है. यह कोई पहली बार नहीं है. मेरा मतलब है, इस समय एक अलग किस्म का, अलग स्तर का संकट है. लेकिन गवर्नेंस क्या है? गवर्नेंस के मायने हैं, कमियों को दुरुस्त करना, उस दौरान बंदोबस्त करना. यह बंदोबस्त कब होगा, जब आप एक दूसरे पर भरोसा करेंगे. अगर भरोसे की कमी होगी, जैसा कि दिल्ली और केंद्र सरकार में आज है. दिल्ली ने पहले ही कह दिया था कि जितनी ऑक्सीजन की जरूरत है, उसका एक तिहाई ही उसे मिल रहा है. फिर, यह लड़ाई मीडिया के जरिए क्यों लड़ी जा रही है.
कोयले के मामले में, जिसमें मैं व्यक्तिगत रूप से शामिल था, हमने सार्वजनिक स्तर पर कोई बयान नहीं दिया. आज समस्या संवाद की कमी है.
आप यह बंदोबस्त कैसे कर सकते हैं, अगर आप बार-बार यह दावा न करें कि आपके पास सब कुछ है. दूसरा मुद्दा है, पारदर्शिता का. अगर आप पारदर्शी नहीं होंगे तो लोग आप पर संदेह करेंगे, इसके बावजूद कि आप सच बोल रहे हों. सच बोलिए. अगर आप पारदर्शी हों, अगर आप पर भरोसा किया जाए तो मेरे खयाल से इस विषय को संभाला जा सकता है. बदकिस्मती से, हम इन पहलुओं का महत्व नहीं समझ रहे.
हम 2014 की भावना को जगा सकते हैं. मैं सरकार से कुछ भी नया करने को नहीं कह रहा- आप वही कीजिए तो आपने पहले भी किया है. 8 नवंबर, 2016 यानी नोटबंदी के दिन सब कुछ बदल गया था.लेकिन उस गलती को कभी नहीं माना गया. इसने एक असुरक्षा पैदा की जिसने भविष्य के व्यवहार को भी प्रभावित किया.
राजनीति को किनारे रखिए, यह एक संकट है. प्रधानमंत्री को बातचीत की अपील करनी चाहिए और केंद्र तथा राज्यों के मतभेदों पर विचार करना चाहिए. यह अपील प्रधानमंत्री की तरफ से होनी चाहिए- न कि किसी मुख्यमंत्री को घुड़कने के लिए ऐसा किया जाना चाहिए. दूसरी समस्या यह है कि सब कुछ पीएमओ की तरफ से हो रहा है. हम भूल गए हैं कि एक कैबिनेट सेक्रेटरी भी होता है, और हमारे पास कैबिनेट सेक्रेटरी के रूप में एक शानदार अधिकारी है. यह केंद्रीकरण भी एक बड़ी समस्या है.
मेरी सबसे बड़ी चिंता इस सच्चाई से उभरती है कि हम एक बड़ा मौका गंवा रहे हैं. हमारे प्रधानमंत्री एक निपुण नेता हैं. मेरा व्यक्तिगत अनुभव यह है कि वह दूसरों की सुनते हैं. मुझे याद है कि मुझे हेल्थ इंश्योरेंस के मुद्दे पर चर्चा के लिए बुलाया गया था. मैं सेक्रेटरी- स्कूल एजुकेशन था, और यह मसला मुझसे सीधे तौर से जुड़ा हुआ नहीं था.
प्रधानमंत्री ने मुझसे करीब बीस मिनट तक बात की और फिर वह उसके लिए राजी हुए, जो शुरुआती मीटिंग्स में उन्हें उलझन में डाल रहा था.
(अनिल स्वरूप भारत सरकार के पूर्व सेक्रेटरी रहे हैं और उन्होंने ‘नॉट जस्ट अ सिविल सर्वेंट’ और ‘एथिकल डिलेमाज़ ऑफ अ सिविल सर्वेंट’ जैसी किताबें लिखी हैं. वह नेक्सस ऑफ गुड फाउंडेशन के संस्थापक-अध्यक्ष हैं. उनका ट्विटर हैंडिल @swarup58 है. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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