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ऐसा मैंने पिछले हफ्ते के लेख के अंत में लिखा था. पहले से का मतलब ये है कि या तो मसूरी में ट्रेनिंग खत्म होने के बाद या 5 साल की डिस्ट्रिक्ट मैनेजमेंट के बाद एक एग्जाम हो, जिसे सब को देना पड़े.
फिर टॉप 10 या 15 पर्सेंट को केंद्रीय सरकार की पॉलिसी मैनेजमेंट सर्विस में भेज दिया जाए. जिसे दिल्ली में काम करना पसंद नहीं, वो अपने आप ही छंट जाएंगे.
बात अंत में एप्टिट्यूड और काबलियत की है. अब ऐसा होता है कि जिस ऑफिसर को अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में भेजना होता है या पत्नी को अच्छी नौकरी दिलानी होती है, वो एड़ी-चोटी का बल लगा के दिल्ली आ जाता है और फिर 5 साल के बाद या तो रोते-धोते वापस स्टेट को जाता है या मिनिस्टर की चापलूसी करके किसी पब्लिक सेक्टर में चला जाता है.
यही नहीं, बाकी विकसित देशों में ज्यादातर ऐसा ही होता है. वहां इंडिया की तरह ऑफिसर्स आज एविएशन, तो कल कॉमर्स, फिर कृषि और फिर टेक्सटाइल्स आदि में फुदकते नहीं फिरते. इसका सवाल ही नहीं उठता.
मेरे एक क्लासमेट हैं, जो इकनॉमिक्स में बहुत ही ज्ञानी हैं. पर 33 साल की सर्विस के बाद वो 3 साल ऑल इंडिया रेडियो के डायरेक्टर जनरल रहे. उसके बाद NHAI के! रोड और रेडियो? क्या तालमेल है?
इसमें उनकी गलती नहीं थी. सिस्टम ही ऐसा बन चुका है.
अगर ऐसा करें, तो ऑल इंडिया सर्विस के आइडिया का क्या होगा? इस सवाल का जवाब एक और सवाल में हैं: क्या ऐसे सर्विस की अब भी जरूरत है?
मोटी बात तो ये है कि आईएएस ऑफिसर्स का जो इन्सेंटिव स्ट्रक्चर है, अब वो देश से हटकर निजी स्वार्थ पर आ गया है. सबका नहीं, पर करीब 90 परसेंट का. ऑल इंडिया सर्विस तो आईएएस महज नाममात्र के लिए रह गयी है. ऑफिसर्स को स्टेटस जरूर मिलता है, पर देश को क्या मिलता है?
एक सवाल पूछा जाता है कि आप नाम कुछ भी दें, ऑल इंडिया सर्विस की जरूरत तो रहेगी. ये बात गलत है. जब अंग्रेज हुकूमत कर रहे थे, उन्हें ऐसी सर्विस की जरूरत थी. आईएएस ऑफिसर सीधे वायसराय या गवर्नर के नीचे आते थे, पर अब ऐसा नहीं है. आईएएस ऑफिसर स्टेट में मुख्यमंत्री को रिपोर्ट करते हैं. सेंटर की कुछ नहीं चलती. आईपीएस का भी यही हाल है.
इस सर्विस के दो पहलू होंगे: स्पेशलाइजेशन और नो-ट्रांस्फरेबिलिटी. ऑफिसर ने अगर वित्त मंत्रालय चुना, तो आजीवन वहीं रहेंगे. इसी प्रकार बाकी मंत्रालयों में भी होगा.
इसके दो फायदे होंगे. एक, कि इन्स्टिट्यूशनल मेमोरी बढ़ेगी और दो, इस वजह से लोअर लेवल के ऑफिसर्स पर जो अब अत्यधिक निर्भरता है, वो खत्म हो जाएगी. आज की तारीख में उल्टा होता है. जैसे मैंने ऊपर लिखा है, आईएएस ऑफिसर्स को जहां-तहां फिट कर दिया जाता है. और यही हाल स्टेट में भी है, जहां स्पेशलाइजेशन की और भी ज्यादा जरूरत है. पॉलिसी तो पॉलिसी, डिस्ट्रिक्ट में भी, क्योंकि अब बहुत सारे जिले ऐसे हैं, जो जनसंख्या में कई देशों से भी बड़े हैं.
इसलिए असली एक्शन तो जिले में है, राजधानियों में नहीं. यही बात सैकड़ों एनजीओ ने दिखा दी है. अगर मौजूदा हालात को बदलना है, तो बहुत कठोर निर्णय लेने पड़ेंगे. उम्मीद थी कि मोदी सरकार इस दिशा में कुछ करेगी, पर वो तो आईएएस की गुलाम बन कर रह गयी है.
खैर, कोई बात नही. इक्कीसवीं सदी में अभी 82 साल और बचते हैं. शायद कुछ बदलाव आ जाए इस दौरान. हिन्दुस्तान में सब कुछ दुरुस्त आता है, पर देर से ही आता है.
(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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Published: 13 Nov 2017,08:40 PM IST