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इकोनॉमी के फंडे बड़े अजब गजब हैं. ऊपर से देखने में जो बात खुश होने वाली लगती है दरअसल वो उतनी खुशी वाली होती नहीं है. जैसे जून में रिटेल महंगाई दर रिकॉर्ड निचले स्तर पर आना और इंडस्ट्री की रफ्तार का धीमा होकर सिर्फ पौने दो परसेंट पर सिमट जाना दोनों ही सरकार और आपका सिरदर्द बढ़ाने वाले आंकड़े हैं.
जून में रिटेल महंगाई दर रिकॉर्ड निचले स्तर 1.5 पर पहुंच गई है. इकोनॉमी के लिहाज से इतनी कम महंगाई दर अच्छी बात नहीं है, क्योंकि इसका मतलब डिमांड कम हो रही है. यानी लोगों के जेब में ज्यादा रकम नहीं बच रही इसलिए वो खरीदारी कम कर रहे हैं.
अब इन आंकड़ों से सरकार की फिक्र और बढ़ जाएगी. फिक्र बढ़ेगी तो सरकार इसके लिए किसी ना किसी को जिम्मेदार जरूर ठहराएगी, और हुआ भी यही है सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने संकेतों में कहने के बजाए रिजर्व बैंक की तरफ सीधा इशारा किया कि मॉनेटरी पॉलिसी यानी रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति के अनुमानों के तरीकों को दुरुस्त करने की जरुरत है. वो कह रहे हैं कि पॉलिसी बनाने वाले रिटेल महंगाई दर में इतनी गिरावट का अनुमान लगाने में विफल रहे. अब वो कह रहे हैं कि आगे नीति बनाने वक्त इन लोगों को इसका पूरा ध्यान रखना होगा. सीधे शब्दों में वो चाहते हैं कि रिजर्व बैंक को ब्याज दरों में कटौती करे. इसके पहले इतनी कम महंगाई दर 1999 और उसके पहले 1978 में ही थी.
ये लगातार तीसरा महीना है जब महंगाई दर में गिरावट आई है. इसकी मुख्य वजह है खाने-पीने की चीजों के दाम में करीब सवा परसेंट की कमी. कपड़े, जूते, ईंधन की महंगाई दर भी गिरी है. मतलब साफ है कि लोगों के पास कपड़े और जूते जैसे खर्चों के लिए अतिरिक्त रकम नहीं बच रही है. अर्थव्यवस्था के लिए इस तरह के संकेत अच्छे नहीं माने जाते. अरविंद सुब्रमण्यम इस बात में खुश हैं कि महंगाई दर में गिरावट का उनका अनुमान सही निकला है. इसलिए वो चाहते हैं कि दूसरे पॉलिसी मेकर भी यह समझें.
सबके मन में सवाल होगा कि शेयर बाजार और इंडस्ट्री इस तरह के आंकड़ों से खुश क्यों होता है? आपने अक्सर देखा होगा कि महंगाई दर में बड़ी गिरावट और इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन की रफ्तार कम होने से शेयर बाजार में तेजी आती है. इसकी वजह ये है कि बाजार को उम्मीद बंध जाती है कि रिजर्व बैंक इन आंकड़ों को देखकर ब्याज दरों में कटौती करेगा ताकि बैंक कम ब्याज पर लोन दें. मकसद यही होता है कि लोन सस्ता होगा तो कॉरपोरेट विस्तार योजनाओं के लिए ज्यादा कर्ज लेंगे और इंडस्ट्री की रफ्तार को बढ़ाएंगे.
अगर रिजर्व बैंक रेट घटाता है, तो उसका फायदा आपको भी मिलेगा. सभी तरह के लोन और सस्ते हो जाएंगे. घर, कार, टीवी, फ्रिज और यहां तक कि पर्सनल लोन भी सस्ता हो जाएगा. इसलिए अगर आप इनमें से कोई खरीदारी करने की योजना बना रहे हैं तो थोड़ा रुक जाइए.
लेकिन रेट कटौती से क्या वाकई में इंडस्ट्री रफ्तार पकड़ लेगी, डिमांड बढ़ जाएगी और लोगों की जेब में पैसा आने लगेगा? सब कुछ इतना रेडमेड नहीं होता. महंगाई दर घटने और आईआईपी में गिरावट सीधे तौर पर सीधे सीधे महंगे लोन से जुड़ी नहीं होता.
इकोनॉमी के जानकार इसे खतरे की आहट मानते हैं. उनके मुताबिक इस तरह के आंकड़ों का मतलब है, चीजों की मांग नहीं है और सप्लाई में भरपूर है. तो अगर सप्लाई भरपूर है तो इंडस्ट्री सस्ता लोन भी क्यों लेगी? जब उसकी मौजूदा सप्लाई के ही खरीदार नहीं हैं तो वो नया इन्वेस्टमेंट करके और ज्यादा सप्लाई की व्यवस्था क्यों करेगी?
जरा इन आंकड़ों को देखिए, घरों की महंगाई दर भी गिरी है, पान, तंबाकू जैसे लत वाले शौक में लोगों ने खर्च कम किया है.
माइनिंग डिमांड का अच्छा पैमाना मानी जाती है लेकिन मई में वो बढ़ने के बजाए करीब एक परसेंट घट गई है. इसी तरह मैन्युफैक्चरिंग ग्रोथ अप्रैल के सवा दो परसेंट से घटकर सिर्फ सवा परसेंट ही रह गई है. मतलब इंडस्ट्री की रफ्तार घटने के बावजूद सप्लाई में कमी नजर नहीं आ रही है.
हालांकि इकोनॉमिस्ट जीएसटी फैक्टर की वजह से इंडस्ट्री की रफ्तार में कमी को संदेह का लाभ दे रहे हैं. केयर रेटिंग्स के मदन सबनवीस कहते हैं कि जीएसटी की वजह से दाम बढ़ने की वजह से इंडस्ट्री की रफ्तार घटी है. जानकारों के मुताबिक जून में भी इंडस्ट्री की रफ्तार में कमी दिखेगी, लेकिन आगे आने वाले महीनों में जीएसटी का फायदा मिलना शुरू हो जाएगा.
रिजर्व बैंक की अगली क्रेडिट पॉलिसी दो अगस्त को आनी है. ऐसे में अनुमान है कि चौथाई परसेंट से आधा परसेंट रेट कटौती हो सकती है. लेकिन रेट कटौती का दबाव अभी से बढ़ गया है. सरकार कहती है ब्याज दरें कम करो, इंडस्ट्री कहती है ब्याज दरें कम करो. लेकिन रिजर्व बैंक की मॉनिटरी कमेटी ने बार बार कहा है कि रेट पर फैसला लेते वक्त उनका ध्यान सिर्फ महंगाई और इंडस्ट्री की रफ्तार के आंकड़ों पर नहीं रहता. उन्हें बैंकिंग सिस्टम, किसानों की कर्ज माफी, अमेरिका में ब्याज दरों में बढ़ोतरी और यूरोप में बैंकों की तरफ से आसान नकदी डालने जैसे फैक्टरों पर भी नजर रखनी पड़ती है. यानी रिजर्व बैंक के लिए रेट कटौती राष्ट्रीय नहीं अंतरराष्ट्रीय फैसले के तरह होता है.
इतने फैक्टर के बाद अगर रेट कटौती हो भी गई तो वो इंडस्ट्री के सुस्त पड़े पहिओं को रफ्तार देने में कामयाब होगी इसकी गारंटी नहीं है. चलिए इंतजार करते हैं दो अगस्त को आने वाली रिजर्व बैंक की क्रेडिट पॉलिसी का.
(अरुण पांडेय वरिष्ठ पत्रकार हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 16 Jul 2017,07:18 AM IST