मेंबर्स के लिए
lock close icon

गाय का असल मुद्दा आस्था बनाम अर्थशास्त्र का है

अगर बीजेपी गाय को काटे जाने से बचा भी लेती है, तो वह बूढ़ी गायों को किसानों पर आर्थिक बोझ बनने से कैसे रोकेगी?

टीसीए श्रीनिवास राघवन
नजरिया
Published:
(फोटो: द क्विंट)
i
(फोटो: द क्विंट)
null

advertisement

1950 और 1960 के दशक में देश के जाने-माने अर्थशास्त्रियों में से एक प्रोफेसर केएन राज ने कहा था कि गाय के कई फायदे हैं और उस जैसा दूसरा पशु नहीं है. उन्होंने कहा था कि इस मामले में गाय, घोड़े से भी अच्छी है. गाय से दूध मिलता है, जो खाने के काम में आता है. गोबर भी काम आता है. बैल से खेत की जुताई होती है. उन्होंने यह भी कहा था, ‘गाय ऐसी मशीन है, जो दूसरी मशीनें तैयार करती है.’

कहने का मतलब यह है कि गाय बछड़ों को जन्म देती है, जो आर्थिक संपत्ति बनते हैं. गाय की इन खूबियों को हिंदू सदियों से जानते हैं. इसीलिए हिंदू धर्म में उसे पवित्र माना गया है. गाय को हिंदू धर्म में ‘माता’ का दर्जा दिया गया है.

हालांकि, आज करीब 70 पर्सेंट भारतीय भैंस का दूध या पाउडर से बने दूध को पसंद करते हैं. केरोसिन और कुकिंग गैस की सप्लाई बढ़ने से ईंधन के तौर पर गोबर की अहमियत घटी है, लेकिन धार्मिक और गाय से जुड़ी आस्था में कोई कमी नहीं आई है. अगर बीजेपी गाय को काटे जाने से बचा भी लेती है, तो वह बूढ़ी गायों को किसानों पर आर्थिक बोझ बनने से कैसे रोकेगी?

एक अनुमान के मुताबिक, एक गाय के चारे पर रोजाना 60 रुपये खर्च होते हैं. अगर किसी के पास दो बूढ़ी गाय हैं तो वह इसका बोझ कैसे उठाएगा? तीन या उससे अधिक गाय वाले किसानों की हालत का तो अंदाजा लगाना भी मुश्किल है. जब गायें बूढ़ी हो जाएंगी तो किसान उनका क्या करेंगे?

यहां असल मुद्दा आस्था बनाम अर्थशास्त्र का है. ऐसे मामलों में आखिर में आस्था की ही जीत होती है और लोग बदले हुए हालात के हिसाब से जीने की आदत डाल लेते हैं. वे आस्था के लिए अपनी पसंद बदल देते हैं.

प्यार और घृणा

कई लोग मारे जाने के लिए मवेशियों की खरीद-बिक्री पर रोक के फैसले को गलत बता रहे हैं. हालांकि, मवेशियों की हत्या और उनके मांस खाने पर रोक लगाने वाला हिंदू अकेला समाज नहीं है. दूसरे समुदाय भी ऐसा करते हैं और करीब दो हजार साल से यह होता आ रहा है. समाजशास्त्रियों ने कई साल तक इसकी स्टडी की है और इसकी वजहें भी बताई हैं. इसके आर्थिक पहलुओं पर भी रोशनी डाली गई है.

इस मामले में सबसे जोरदार दलील अमेरिकी और प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के समाजशास्त्री मार्विन हैरिस ने दी है. 1973 में उन्होंने एक किताब लिखी, जिसका नाम ‘काउ, पिग्स, वॉर्स एंड विचेज’था. इसमें खाने-पीने की अजीब आदतों पर भी फोकस किया गया था. उन्होंने कहा कि ज्यादातर जानवरों का मांस स्वास्थ्य कारणों से नहीं खाया जाता, लेकिन गाय इसका अपवाद है.

गाय को नहीं मारने की आर्थिक वजहें हैं. हैरिस ने यह भी दिखाया था कि भारत ने किस तरह से इस्तेमाल की जा चुकी गाय का दूसरे देशों से बेहतर इस्तेमाल किया. कहने का मतलब यह कि भारत में गाय को जो सम्मान हासिल है, वह बेमतलब नहीं है.

उन्होंने इसकी भी चर्चा की है कि जहां कुछ समाज में सूअर जैसे जानवरों को सम्मान की नजर से देखा जाता है तो कई समाज उनसे नफरत करते हैं. दरअसल, जिन देशों में सूअर सेहतमंद होते थे, वहां उनका सम्मान होता था. वहीं दूसरी जगह उनके बीमारियां फैलाने की वजह से उनसे नफरत की जाती थी.

यहूदियों और मुसलमानों के सूअर ना खाने पर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि सूअर गर्म इलाकों के मुताबिक खुद को ढाल नहीं पाते. वहां वे खुद को ठंडा रखने के लिए मल-मूत्र में लोटते हैं. इसलिए उन्हें गंदा माना गया और वहां उनका मांस नहीं खाया जाता है.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT
(फोटो: द क्विंट)

भगवान को बीच में लाने की क्या जरूरत थी?

आर्थिक और सेहत के पैमानों पर खान-पान की आदतों को समझा जा सकता है. लेकिन इसमें भगवान को लाने की जरूरत क्यों पड़ी? लेकिन यह भी कई समाजों और देशों में होता रहा है.

दिलचस्प बात तो यह है कि जिन देशों में जानवरों को लेकर इस तरह की वर्जनाएं हैं, वहां भगवान का सहारा लिया जाता रहा है. इससे कोई भी देश या समाज नहीं बचा है. इस लिस्ट में विकसित से लेकर आदिम समाज तक शामिल हैं.

कुछ जानवरों की हत्या रोकने के लिए उन समाज के नेता हमेशा से ‘ईश्वर की मदद’ लेते आए हैं.

हैरिस के मुताबिक, इसका जवाब इंसानों के लालच की भावना और कुछ हद तक अकाल पड़ने पर खाने की जरूरत से. लालच की वजह से इंसान लापरवाह हो जाता है और अकाल उसे व्यग्र कर देता है. अगर धर्म का सहारा लेकर जानवरों के खाने पर बंदिश ना लगाई जाए, तो लोग मूर्खतापूर्ण व्यवहार करेंगे. वे या तो गाय जैसी संपत्ति की हत्या कर देंगे या गलत मांस खाने से बीमार पड़ जाएंगे.

एक तरह से इस मामले में ईश्वर का सहारा उसी तरह से लिया गया, जैसा देश में आजकल हर कोई सुप्रीम कोर्ट से अपील के जरिये कर रहा है. जब कॉमन सेंस फेल हो जाता है तो ईश्वर या अदालत का ही आसरा बचता है.

(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: undefined

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT