मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019चीन को घेरने के लिए US की तरह भारत भी तिब्बत पर साफ करे पॉलिसी

चीन को घेरने के लिए US की तरह भारत भी तिब्बत पर साफ करे पॉलिसी

भारत ने चीन को संतुलित करने के लिए अमेरिका और दूसरे सहयोगी देशों के साथ अस्थायी कदम उठाए हैं, लेकिन हल नहीं निकला

अशोक के मेहता
नजरिया
Published:
(फोटो: Shruti Mathur / The Quint)
i
null
(फोटो: Shruti Mathur / The Quint)

advertisement

पूर्वी लद्दाख में गतिरोध के बाद भारत ने अब तक चीन को बराबरी का जवाब देने के लिए कोई ठोस रणनीति नहीं बनाई है. गलवान घाटी में झड़प के चलते दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंध पिछले चार दशकों में सबसे बुरे दौर से गुजर रहे हैं. चूंकि चीन लगातार वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर दबाव बना रहा है.

यूं भारत ने चीन को संतुलित करने के लिए अमेरिका और दूसरे सहयोगी देशों के साथ मिलकर कुछ अस्थायी कदम उठाए हैं लेकिन इससे इस समस्या का कोई हल नहीं निकला. भारत के विदेश मंत्री डॉ. एस जयशंकर ने कहा है कि चीन एकपक्षीय तरीके से एलएसी में बदलाव करने के लिए सभी संधियों और प्रोटोकॉल्स को तोड़ रहा है और सीमा पर सैन्यबलों की तैनाती की अलग-अलग वजहें बता रहा है.

क्या भारत के लिए अपनी तिब्बत नीति में बदलाव के लिए यह कारण पर्याप्त नहीं? अगर ऐसा है तो इसके लिए कई दूसरे कारण भी गिनाए जा सकते हैं. हालांकि 2010 में भारत इस नीति में परिवर्तन का संकेत दे चुका है. उसने सभी सरकारी दस्तावेजों और संयुक्त बयानों में ‘वन चाइना’ पॉलिसी का जिक्र करना छोड़ दिया था.

क्या तिब्बत का कार्ड चला जा सकता है?

भारत के बार-बार बदलते रवैये ने तिब्बती युवाओं और भारतीय को भी, नाराज किया है. अब समय आ गया है कि भारत चीन के साथ सख्ती से पेश आए, और तिब्बत के कार्ड का इस्तेमाल करे. चूंकि भारत को अपनी विनम्रता का शिष्ट जवाब नहीं मिला है. हालांकि इसके बाद वापसी की कोई गुंजाइश नहीं होगी.

तो क्या तिब्बत कार्ड का इस्तेमाल किया जा सकता है- और सीमा विवाद और चीन की जबरदस्त ताकत को देखते हुए भारत जवाबी हमला करने की स्थिति में है या वह ऐसा करना चाहेगा?

भारत का सीमा विवाद तिब्बत से आंतरिक रूप से जुड़ा हुआ है. भारत तिब्बत पर चीनी संप्रभुता को इस आधार पर मान्यता देता है कि चीन तिब्बत को स्वायत्तता देगा. दलाई लामा ने भी तिब्बत की स्वायत्तता के बदले चीन से आजादी के दावे को छोड़ दिया था. लेकिन बीजिंग ने न सिर्फ इस स्वायत्तता को पूरी तरह कुचला है बल्कि तिब्बत के साथ वादाखिलाफी भी की है.

चीन ने जब तिब्बत पर कब्जा जमाया तो भारत ने कुछ नहीं किया था.

भारत की असली गलती यह थी कि उसने 1950 में तिब्बत पर चीनी कब्जे को रोकने की कोशिश नहीं की. इसके बावजूद कि 1946 में ईस्टर्न आर्मी कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल फ्रांसिस टुकर ने तिब्बत को सैन्य लिहाज से ‘वाइटल एरिया’ कहा था. टुकर ने साफ कहा था कि भारत को रूस से नहीं, चीन से असली खतरा है और तिब्बती पठार पर कब्जे को रोकने की अपील की थी.

टुकर ने कहा था कि, भारत को इस पठार पर कब्जे की तैयारी करनी चाहिए और नेपाल के सीमा क्षेत्रों से लेकर नागा पहाड़ियों पर रहने वाले लोगों से दोस्ती और सहयोग करना चाहिए.

लेकिन भारत ने तिब्बत पर चीनी कब्जे पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. यहां तक कि 1954 में उसने चीन के स्वायत्त क्षेत्र के रूप में तिब्बत को मान्यता देने पर सहमति जता दी.

हिंदी-चीनी भाई-भाई के संक्षिप्त से दौर में पंचशील समझौता हुआ और नई दिल्ली ने एकतरफ और बिना किसी मोलभाव के, तिब्बत पर अपने राजनैतिक और वाणिज्यिक अधिकारों को छोड़ दिया. उसने ल्हासा से अपने काउंसिल जनरल को हटा दिया और ग्यान्जे, यातुंग और गरतोक में अपने ट्रेडिंग मार्ट्स बंद कर दिए. साथ ही अपनी सैन्य टुकड़ी को भी वापस बुला लिया. लेकिन चीन तिब्बत विवाद, दरअसल चीन भारत विवाद में तब्दील हो गया.

लेकिन इस कूटनीतिक चूक पर अब दुखी होने का कोई फायदा नहीं है.

क्या इस पड़ाव पर इस नुकसान को कम किया जा सकता है, जब चीन का कब्जा ही उसके स्वामित्व का असली आधार बन गया है? जैसा कि डच स्कॉलर और इतिहासकार माइकल वान वॉल्ट कहते हैं, आप एक प्रयोग करके देख सकते हैं. माइकल कई दशकों से अपने 100 रिसर्चर्स की टीम के साथ तिब्बत का अध्ययन कर रहे हैं.

वह धर्मशाला में सेंट्रल तिब्बत एडमिनिस्ट्रेशन के लीगल एडवाइजर हैं और ‘तिब्बत वॉज नेवर पार्ट ऑफ चाइना बट द मिडिल वे एप्रोच रिमेन्स अ वायबल सॉल्यूशन’ और ‘फ्रीडम ब्रीफ 2020’ जैसी किताबें लिख चुके हैं.

भारत को यह कहना बंद करना होगा कि तिब्बत चीन का हिस्सा है.

शुरुआत में नई दिल्ली को यह कहना चाहिए कि उसने तिब्बत के मुद्दे की समीक्षा की है. भले ही उसने शुरुआत में गलतियां की हैं लेकिन अब नई सच्चाइयां सामने आई हैं.

ये इस प्रकार हैं -

  • तिब्बत इंपीरियल चाइना या मंगोल साम्राज्य का हिस्सा कभी नहीं था .
  • हमले, तथ्यों को तोड़ने मरोड़ने और नरेटिव को बदले से गैर कानूनी कब्जा जायज या वैध नहीं हो जाता.
  • मैकमोहन लाइन के जरिए भारत तिब्बत सीमा 1914 में हल कर ली गई थी और तिब्बत ने इसे मंजूर भी किया था.
  • तिब्बत भारत और चीन के बीच बफर स्टेट था.
  • तिब्बती चीन के अल्पसंख्यक नहीं हैं.
  • चीन ने तिब्बत पर सॉवरिंटी (संप्रभुता) नहीं, सुजरिंटी (आधिपत्य) का आनंद उठाया है.
  • दलाई लामा ने स्वायत्तता के बदले सुजरिंटी का सौदा किया.
  • जब चीन तिब्बत पर अपना कब्जा छोड़ेगा तभी तिब्बती लोग अपना भविष्य खुद तय कर पाएंगे.

भारत का दूसरा कदम यह होना चाहिए कि वह तिब्बत को चीन का हिस्सा बताना बंद करे. पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज इसे ऐसे कहतीं कि सबसे पहले चीन को ‘वन इंडिया’ पॉलिसी अपनानी चाहिए और अरुणाचल प्रदेश को भारत का हिस्सा मानना चाहिए. दरअसल, ‘वन चाइना’ पॉलिसी ताइवान पर लागू होती है, तिब्बत पर नहीं.

2017 में अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू ने कहा था कि उनके राज्य की सीमा तिब्बत से लगती है, चीन से नहीं. तीसरी बात ये है कि भारत को दलाई लामा को भारत का बेटा बताना चाहिए और उन्हें भारत रत्न देना चाहिए. उन्हें सभी सरकारी विशेषाधिकार देने चाहिए और उन्हें अरुणाचल प्रदेश सहित पूरे देश में आजादी से यात्रा करने की अनुमति मिलनी चाहिए.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

बीजिंग को सलाह देनी चाहिए कि दलाई लामा से फिर बातचीत शुरू करे, पर दलाई लामा का उत्तराधिकारी चुनने का काम न करे. अपना उत्तराधिकारी चुनने का अधिकार दलाई लामा को ही है.

पूर्व प्रधानमंत्री शास्त्री ने कहा था कि, भारत निर्वाचित तिब्बत सरकार को मान्यता देगा.

भारत ने बीजिंग को सलाह दी है कि जब तक वह जीवित हैं, इस मुद्दे को सुलझा लिया जाना चाहिए. अमेरिका ने कहा है कि चीन के पास अगले दलाई लामा को चुनने का कोई सैद्धांतिक आधार नहीं है. भारत को सेंट्रल तिब्बत एडमिनिस्ट्रेशन को निर्वासित सरकार के रूप में मान्यता और समर्थन देना चाहिए ताकि शांतिपूर्ण तरीके से अपने राजनैतिक लक्ष्य को हासिल किया जा सके. उसे चीन को सलाह देनी चाहिए कि वह बातचीत फिर से शुरू करे. 2010 में नौ दौर की वार्ता के बाद बातचीत रद्द हो गई थी.

1965 में प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने कहा था कि भारत निर्वासित तिब्बत सरकार (अब सीटीए) को मान्यता देगा लेकिन उनकी असमय मृत्यु हो गई. उनका बयान एक ऐतिहासिक तथ्य है जिसे सार्वजनिक किया जाना चाहिए.

नई दिल्ली में चीन के दूतावास के सामने पंचशील मार्ग के नाम को बदलकर दलाई लामा मार्ग किया जाना चाहिए.

तिब्बत का विषय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाया जाए

तिब्बत के मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय मंच पर उठाया जा सकता है. 2021 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की दो वर्षीय अध्यक्षता शुरू होने वाली है. इस विषय को उस वक्त प्रस्तावित किया जा सकता है. तिब्बत के मुद्दे को आतंकवाद पर संयुक्त राष्ट्र के ड्राफ्ट कनवेंशन का हिस्सा बनाया जा सकता है जोकि भारत की मुख्य चिंता बन चुका है.

भारत संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में भी तिब्बत के मुद्दे को उठा सकता है. यह धार्मिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता और मानवाधिकार का विषय है. अब तक तिब्बत पर सारी बातचीत बंद दरवाजों में चुपचाप की गई हैं. अब इसे सार्वजनिक किया जाना चाहिए और मीडिया को इसकी जानकारी होनी चाहिए.

सीटीए, विदेश स्थित तिब्बती संस्थानों और दुनिया भर में फ्रेंड्स ऑफ तिब्बत के सहयोग से ट्रैक 1 और ट्रैक 1.5 संवाद किया जाना चाहिए. तिब्बत में बौद्ध धर्म और संस्कृति पर अध्ययन को विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम और थिंक टैक्स में शुरू किया जाना चाहिए. 1962 में सीमा युद्ध को भड़काकर चीन ने कैसे विश्वासघात किया था, इसका खुलास करने की जरूरत है.

सरकार और गैर सरकारी संगठन पहले और तीसरे कदम पर विचार कर सकते हैं. इन उपायों में यूरोप तथा अमेरिका स्थित फ्रेंड्स ऑफ तिब्बत का सहयोग लिया जाना चाहिए. ये संगठन चीन पर आरोप लगाते रहे हैं कि वह तिब्बत में गंभीर मानवाधिकार हनन कर रहा है. ट्रंप के दौर में अमेरिकी प्रशासन चीन पर निशाना साधने में सबसे ज्यादा सक्रिय रहा. उसने यूएस रिसिप्रोकल एक्सेस टू तिब्बत एक्ट 2018 जैसे कानून तक पारित किए. हाल ही में उसने तिब्बत के लिए अपने विशेष दूत रॉबर्ट डेस्ट्रो को नियुक्त किया है और विदेश मंत्रालय ने सीटीए के प्रमुख लाबसैंग संगाय को डेस्ट्रो से मिलने के लिए आमंत्रित किया है. यह छह दशकों में पहली बार है और इससे बीजिंग काफी नाराज है.

भारत को इस ‘नई दीवार’ को ‘लांघना’ ही होगा

अमेरिका ने कहा है कि वह सीटीए से जल्द बातचीत शुरू करेगा. इससे पहले अमेरिका के एंबेसेडर एट लार्ज फॉर इंटरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम सैमुअल डी ब्राउनबैक ने अक्टूबर में धर्मशाला में रिपोर्टर्स को बताया था कि तिब्बती लोग हजारों सालों से अपने आध्यात्मिक नेताओं को चुनते रहे हैं. अमेरिका चीन पर तिब्बत में धार्मिक उत्पीड़न और सांस्कृतिक नरसंहार के आरोप लगाता रहा है.

इस महीने कांग्रेस में तिब्बत पॉलिसी और सपोर्ट एक्ट पारित किया गया है जिसमें तिब्बत की वास्तविक स्वायत्तता और दलाई लामा के अपना उत्तराधिकारी चुनने का समर्थन किया गया है. उम्मीद है कि राष्ट्रपति बाइडेन तिब्बत की पूर्ण आजादी और स्वायत्तता के अभियान को तेज करेंगे और इस मुद्दे पर भारत अमेरिका के साथ मजबूत नाता बना सकता है. इस बीच यह खबर आई है कि अमेरिकी कांग्रेस और ईयू संसद, दोनों ने तिब्बत को एक अधिकृत देश के रूप में मान्यता दे दी है.

हैरानी नहीं है कि राष्ट्रीय शी जिनपिंग तिब्बत पर नियंत्रण और निगरानी में विशेष रुचि रखते हैं. उन्होंने कहा है कि चीन को तिब्बत में अजेय दुर्ग बनाना चाहिए और तिब्बत चीन का ही हिस्सा था, ऐसे ऐतिहासिक तथ्यों को खोज निकालना चाहिए. चीन का मानना है कि इसी तरह से भारत के साथ उसका सीमा विवाद हल होगा.

यह चीन की नई विशाल दीवार है, जिसे भारत को ‘लांघना’ चाहिए. तिब्बत के मामले में भारत को पहल करनी चाहिए और यह इसके लिए मुफीद समय है.

(मेजर जनरल (रिटायर्ड) अशोक के मेहता डिफेंस प्लानिंग स्टाफ के संस्थापक सदस्य है. वह श्रीलंका में इंडियन पीस कीपिंग फोर्सेज के कमांडर रह चुके हैं. यह एक ओपिनियन लेख है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: undefined

Read More
ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT