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पूर्वी लद्दाख में गतिरोध के बाद भारत ने अब तक चीन को बराबरी का जवाब देने के लिए कोई ठोस रणनीति नहीं बनाई है. गलवान घाटी में झड़प के चलते दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंध पिछले चार दशकों में सबसे बुरे दौर से गुजर रहे हैं. चूंकि चीन लगातार वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर दबाव बना रहा है.
यूं भारत ने चीन को संतुलित करने के लिए अमेरिका और दूसरे सहयोगी देशों के साथ मिलकर कुछ अस्थायी कदम उठाए हैं लेकिन इससे इस समस्या का कोई हल नहीं निकला. भारत के विदेश मंत्री डॉ. एस जयशंकर ने कहा है कि चीन एकपक्षीय तरीके से एलएसी में बदलाव करने के लिए सभी संधियों और प्रोटोकॉल्स को तोड़ रहा है और सीमा पर सैन्यबलों की तैनाती की अलग-अलग वजहें बता रहा है.
क्या भारत के लिए अपनी तिब्बत नीति में बदलाव के लिए यह कारण पर्याप्त नहीं? अगर ऐसा है तो इसके लिए कई दूसरे कारण भी गिनाए जा सकते हैं. हालांकि 2010 में भारत इस नीति में परिवर्तन का संकेत दे चुका है. उसने सभी सरकारी दस्तावेजों और संयुक्त बयानों में ‘वन चाइना’ पॉलिसी का जिक्र करना छोड़ दिया था.
भारत के बार-बार बदलते रवैये ने तिब्बती युवाओं और भारतीय को भी, नाराज किया है. अब समय आ गया है कि भारत चीन के साथ सख्ती से पेश आए, और तिब्बत के कार्ड का इस्तेमाल करे. चूंकि भारत को अपनी विनम्रता का शिष्ट जवाब नहीं मिला है. हालांकि इसके बाद वापसी की कोई गुंजाइश नहीं होगी.
तो क्या तिब्बत कार्ड का इस्तेमाल किया जा सकता है- और सीमा विवाद और चीन की जबरदस्त ताकत को देखते हुए भारत जवाबी हमला करने की स्थिति में है या वह ऐसा करना चाहेगा?
भारत का सीमा विवाद तिब्बत से आंतरिक रूप से जुड़ा हुआ है. भारत तिब्बत पर चीनी संप्रभुता को इस आधार पर मान्यता देता है कि चीन तिब्बत को स्वायत्तता देगा. दलाई लामा ने भी तिब्बत की स्वायत्तता के बदले चीन से आजादी के दावे को छोड़ दिया था. लेकिन बीजिंग ने न सिर्फ इस स्वायत्तता को पूरी तरह कुचला है बल्कि तिब्बत के साथ वादाखिलाफी भी की है.
चीन ने जब तिब्बत पर कब्जा जमाया तो भारत ने कुछ नहीं किया था.
भारत की असली गलती यह थी कि उसने 1950 में तिब्बत पर चीनी कब्जे को रोकने की कोशिश नहीं की. इसके बावजूद कि 1946 में ईस्टर्न आर्मी कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल फ्रांसिस टुकर ने तिब्बत को सैन्य लिहाज से ‘वाइटल एरिया’ कहा था. टुकर ने साफ कहा था कि भारत को रूस से नहीं, चीन से असली खतरा है और तिब्बती पठार पर कब्जे को रोकने की अपील की थी.
टुकर ने कहा था कि, भारत को इस पठार पर कब्जे की तैयारी करनी चाहिए और नेपाल के सीमा क्षेत्रों से लेकर नागा पहाड़ियों पर रहने वाले लोगों से दोस्ती और सहयोग करना चाहिए.
हिंदी-चीनी भाई-भाई के संक्षिप्त से दौर में पंचशील समझौता हुआ और नई दिल्ली ने एकतरफ और बिना किसी मोलभाव के, तिब्बत पर अपने राजनैतिक और वाणिज्यिक अधिकारों को छोड़ दिया. उसने ल्हासा से अपने काउंसिल जनरल को हटा दिया और ग्यान्जे, यातुंग और गरतोक में अपने ट्रेडिंग मार्ट्स बंद कर दिए. साथ ही अपनी सैन्य टुकड़ी को भी वापस बुला लिया. लेकिन चीन तिब्बत विवाद, दरअसल चीन भारत विवाद में तब्दील हो गया.
लेकिन इस कूटनीतिक चूक पर अब दुखी होने का कोई फायदा नहीं है.
वह धर्मशाला में सेंट्रल तिब्बत एडमिनिस्ट्रेशन के लीगल एडवाइजर हैं और ‘तिब्बत वॉज नेवर पार्ट ऑफ चाइना बट द मिडिल वे एप्रोच रिमेन्स अ वायबल सॉल्यूशन’ और ‘फ्रीडम ब्रीफ 2020’ जैसी किताबें लिख चुके हैं.
शुरुआत में नई दिल्ली को यह कहना चाहिए कि उसने तिब्बत के मुद्दे की समीक्षा की है. भले ही उसने शुरुआत में गलतियां की हैं लेकिन अब नई सच्चाइयां सामने आई हैं.
ये इस प्रकार हैं -
भारत का दूसरा कदम यह होना चाहिए कि वह तिब्बत को चीन का हिस्सा बताना बंद करे. पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज इसे ऐसे कहतीं कि सबसे पहले चीन को ‘वन इंडिया’ पॉलिसी अपनानी चाहिए और अरुणाचल प्रदेश को भारत का हिस्सा मानना चाहिए. दरअसल, ‘वन चाइना’ पॉलिसी ताइवान पर लागू होती है, तिब्बत पर नहीं.
2017 में अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू ने कहा था कि उनके राज्य की सीमा तिब्बत से लगती है, चीन से नहीं. तीसरी बात ये है कि भारत को दलाई लामा को भारत का बेटा बताना चाहिए और उन्हें भारत रत्न देना चाहिए. उन्हें सभी सरकारी विशेषाधिकार देने चाहिए और उन्हें अरुणाचल प्रदेश सहित पूरे देश में आजादी से यात्रा करने की अनुमति मिलनी चाहिए.
बीजिंग को सलाह देनी चाहिए कि दलाई लामा से फिर बातचीत शुरू करे, पर दलाई लामा का उत्तराधिकारी चुनने का काम न करे. अपना उत्तराधिकारी चुनने का अधिकार दलाई लामा को ही है.
पूर्व प्रधानमंत्री शास्त्री ने कहा था कि, भारत निर्वाचित तिब्बत सरकार को मान्यता देगा.
भारत ने बीजिंग को सलाह दी है कि जब तक वह जीवित हैं, इस मुद्दे को सुलझा लिया जाना चाहिए. अमेरिका ने कहा है कि चीन के पास अगले दलाई लामा को चुनने का कोई सैद्धांतिक आधार नहीं है. भारत को सेंट्रल तिब्बत एडमिनिस्ट्रेशन को निर्वासित सरकार के रूप में मान्यता और समर्थन देना चाहिए ताकि शांतिपूर्ण तरीके से अपने राजनैतिक लक्ष्य को हासिल किया जा सके. उसे चीन को सलाह देनी चाहिए कि वह बातचीत फिर से शुरू करे. 2010 में नौ दौर की वार्ता के बाद बातचीत रद्द हो गई थी.
नई दिल्ली में चीन के दूतावास के सामने पंचशील मार्ग के नाम को बदलकर दलाई लामा मार्ग किया जाना चाहिए.
तिब्बत के मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय मंच पर उठाया जा सकता है. 2021 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की दो वर्षीय अध्यक्षता शुरू होने वाली है. इस विषय को उस वक्त प्रस्तावित किया जा सकता है. तिब्बत के मुद्दे को आतंकवाद पर संयुक्त राष्ट्र के ड्राफ्ट कनवेंशन का हिस्सा बनाया जा सकता है जोकि भारत की मुख्य चिंता बन चुका है.
सीटीए, विदेश स्थित तिब्बती संस्थानों और दुनिया भर में फ्रेंड्स ऑफ तिब्बत के सहयोग से ट्रैक 1 और ट्रैक 1.5 संवाद किया जाना चाहिए. तिब्बत में बौद्ध धर्म और संस्कृति पर अध्ययन को विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम और थिंक टैक्स में शुरू किया जाना चाहिए. 1962 में सीमा युद्ध को भड़काकर चीन ने कैसे विश्वासघात किया था, इसका खुलास करने की जरूरत है.
सरकार और गैर सरकारी संगठन पहले और तीसरे कदम पर विचार कर सकते हैं. इन उपायों में यूरोप तथा अमेरिका स्थित फ्रेंड्स ऑफ तिब्बत का सहयोग लिया जाना चाहिए. ये संगठन चीन पर आरोप लगाते रहे हैं कि वह तिब्बत में गंभीर मानवाधिकार हनन कर रहा है. ट्रंप के दौर में अमेरिकी प्रशासन चीन पर निशाना साधने में सबसे ज्यादा सक्रिय रहा. उसने यूएस रिसिप्रोकल एक्सेस टू तिब्बत एक्ट 2018 जैसे कानून तक पारित किए. हाल ही में उसने तिब्बत के लिए अपने विशेष दूत रॉबर्ट डेस्ट्रो को नियुक्त किया है और विदेश मंत्रालय ने सीटीए के प्रमुख लाबसैंग संगाय को डेस्ट्रो से मिलने के लिए आमंत्रित किया है. यह छह दशकों में पहली बार है और इससे बीजिंग काफी नाराज है.
अमेरिका ने कहा है कि वह सीटीए से जल्द बातचीत शुरू करेगा. इससे पहले अमेरिका के एंबेसेडर एट लार्ज फॉर इंटरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम सैमुअल डी ब्राउनबैक ने अक्टूबर में धर्मशाला में रिपोर्टर्स को बताया था कि तिब्बती लोग हजारों सालों से अपने आध्यात्मिक नेताओं को चुनते रहे हैं. अमेरिका चीन पर तिब्बत में धार्मिक उत्पीड़न और सांस्कृतिक नरसंहार के आरोप लगाता रहा है.
इस महीने कांग्रेस में तिब्बत पॉलिसी और सपोर्ट एक्ट पारित किया गया है जिसमें तिब्बत की वास्तविक स्वायत्तता और दलाई लामा के अपना उत्तराधिकारी चुनने का समर्थन किया गया है. उम्मीद है कि राष्ट्रपति बाइडेन तिब्बत की पूर्ण आजादी और स्वायत्तता के अभियान को तेज करेंगे और इस मुद्दे पर भारत अमेरिका के साथ मजबूत नाता बना सकता है. इस बीच यह खबर आई है कि अमेरिकी कांग्रेस और ईयू संसद, दोनों ने तिब्बत को एक अधिकृत देश के रूप में मान्यता दे दी है.
हैरानी नहीं है कि राष्ट्रीय शी जिनपिंग तिब्बत पर नियंत्रण और निगरानी में विशेष रुचि रखते हैं. उन्होंने कहा है कि चीन को तिब्बत में अजेय दुर्ग बनाना चाहिए और तिब्बत चीन का ही हिस्सा था, ऐसे ऐतिहासिक तथ्यों को खोज निकालना चाहिए. चीन का मानना है कि इसी तरह से भारत के साथ उसका सीमा विवाद हल होगा.
यह चीन की नई विशाल दीवार है, जिसे भारत को ‘लांघना’ चाहिए. तिब्बत के मामले में भारत को पहल करनी चाहिए और यह इसके लिए मुफीद समय है.
(मेजर जनरल (रिटायर्ड) अशोक के मेहता डिफेंस प्लानिंग स्टाफ के संस्थापक सदस्य है. वह श्रीलंका में इंडियन पीस कीपिंग फोर्सेज के कमांडर रह चुके हैं. यह एक ओपिनियन लेख है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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