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आपदा एक अवसर है – यह किसी भी नेतृत्व के लिए शायद सबसे ज्यादा पुरानी और बुद्धिमानी वाली सर्वस्वीकृत बात है. कुछ दशक पहले चीन श्रीलंका की तरफ झुका. इसने इलाके में भारत के कभी मजबूत सहयोगी रहे श्रीलंका में संकट का बीज डाल दिया. उत्तर की दिशा में चीन एक शक्तिशाली विरोधी था. तो श्रीलंका दक्षिण में स्थित एक खतरनाक किस्म का पड़ोसी था जो हिंद महासागर में सामरिक संतुलन को प्रभावित कर सकता था. जैसा कि आगे हमलोग समझेंगे कि भारत कैसे इस संकट को अपने लिए भुनाने के मौके से चूक गया.
लेकिन आज वक्त पलट गया है. चीन आज खुद एक आर्थिक भंवर में फंसा हुआ है. जो काफी लंबे वक्त से सतह के नीचे था वो सामने आ गया है. पहले से ही कर्ज संकट, फिर कोविड और पैनिक में आकर संपूर्ण शटडाउन के फैसले से चीन की स्थिति काफी बिगड़ गई है. इसी तरह श्रीलंका पूरी तरह से खत्म होने के कगार पर पहुंच गया है. देश में पहले से ही विदेशी फॉरेन रिजर्व, तेल, फूड और दवा की किल्लत थी लेकिन कोरोना वायरस ने पर्यटन को निगल लिया. जो कुछ कसर रह गई थी वो राजपक्षे परिवार की लालच और मूर्खतापूर्ण नीतियों ने पूरी कर दी. अब सवाल है कि भारत कैसे इन दोनों संकट को अपने लिए दोहरे फायदे में बदल सकता है ?
अक्सर ऐतिहासिक समस्याओं के समाधान की शुरुआत सबसे पहले अपनी भूलों को समझकर की जाती है. इसके बारे में पड़ताल धाकड़ महिंदा राजपक्षे के शासन के वक्त से होनी चाहिए जो 2000 के दशक में पहली बार राष्ट्रपति बने. उनकी सख्त सेना ने तमिल गुरिल्ला लड़ाकों को खत्म करना शुरू कर दिया था और राजपक्षे को काफी लोकप्रिय बना दिया. राजनीतिक तौर पर जो लोग ज्यादा ताकतवर हो जाते हैं उनमें अपनी छाप छोड़ने की एक किस्म की भूख भी होती है.
वो चाहते हैं कि वो कुछ ऐसा कर जाएं ताकि भावी पीढ़ी उन्हें याद रखे. राजपक्षे ने अपनी पूरी ताकत अपने संसदीय क्षेत्र की एक छोटी सी बस्ती हम्बनोटा पर टिका दिया. उन्होंने इसको लेकर जारी सभी चेतावनियों को दरकिनार कर इसे एक विशाल समुद्री पोर्ट बनाना चाहा. जबकि श्रीलंका सिर्फ 2.2 करोड़ आबादी वाला देश है. पहले से ही कोलंबो में शानदार पोर्ट थे और जिनका विस्तार भी आसानी से किया जा सकता था.इसलिए हम्बोनोटा और कुछ नहीं बस राजपक्षे का एक फितूर था.
जब राजपक्षे ने भारत सरकार और दिग्गज भारतीय कॉरपोरेट्स को इससे जोड़ना चाहा तो उन्हें जोर का झटका लगा. समझदार भारतीय निवेशक पहले ही आने वाली तबाही को भांप सकते थे. भारत के नीति निर्माताओं ने सोचा कि उनके इनकार से राजपक्षे के भीतर कुछ अक्ल आएगी. लेकिन उन्होंने चीन की चालानी के बारे में नहीं सोचा था. चीन के लिए भी ये निवेश रिटर्न के हिसाब से फायदेमंद नहीं था. लेकिन यह सिर्फ पैसे का मामला नहीं था. दरअसल हिंद महासागर में भारत का गर्दन पकड़ने के लिए चीन की ये चाल थी. इसलिए इसमें कोई हैरत नहीं कि उन्होंने आननफानन में 307 मिलियन डॉलर का कर्ज कोलंबो को दे दिया. वो भी बहुत आसान ब्याज दर पर.
इसमें हैरत की बात नहीं कि प्रोजेक्ट में देरी हुई और लागत भी बढ़ गई. इस बीच राजपक्षे 2009 में तमिल गृह युद्ध यानि LTTE से जंग जीत चुके थे और वो हम्बोनोटा को लॉन्च करके इस जीत का पूरी दुनिया में ढोल पीटना चाहते थे. इस प्रोजेक्ट के लिए दूसरे दौर की फंडिंग पाने की जल्दी में राजपक्षे चीन के सामने गलती कर गए. साल 2012 में कोलंबो में 3667 शिप उतरने के मुकाबले हम्बोनोटा में सिर्फ 34 शिप आए.
लेकिन राजपक्षे बेसब्री से अपनी इस महत्वकांक्षी परियोजना को पूरा करने के लिए नकदी किसी भी कीमत पर लाने में जुटे हुए थे. आखिर उन्हें फिर से चीन 757 मिलियन डॉलर देने के लिए राजी हुआ पर वो इस बार ब्याज दरें पहले के 100 बेसिस प्वाइंट की तुलना में 600 बेसिस प्वाइंट थी. श्रीलंका अब कर्ज के महादलदल में धंस चुका था .
चीन ने जिस तरह से श्रीलंका को जगड़ा, उससे भारत को एक कड़वी नसीहत मिली. चीन के निवेश पर रिटर्न को सिर्फ पैसे के संदर्भ में नहीं देखा जाना चाहिए. एक बार जब आपको इसका सियासी फायदा मिलता है तो पता चलता है कि चीन ने कितनी चालाकी से शानदार डील की .
अब ये भारत की बारी है कि वो आज के मौके का फायदा उठाए. भारत अपना पूरा जोर लगाकर उस रणनीतिक जगह पर अपना दबदबा बनाना चाहता है. इसलिए हमने अभी 4 बिलियन डॉलर की मदद श्रीलंका को दी है. 1.5 बिलियन डॉलर की दो सहायता राशि फूड, पेट्रोल, फर्टिलाइजर, मेडिसिन पर खर्च करने के लिए दिया है. इसके अलावा 1 बिलियन डॉलर का कर्ज भी अपने सिर पर ले लिया है. इसके अलावा 11 हजार मीट्रिक टन चावल और दूसरी चीजों की सहायता कोलंबो को इस वक्त भारत पहुंचा रहा है. श्रीलंका से जो गुडविल हम खो चुके थे उसको जीतने की यह एक शानदार कोशिश है .
लेकिन क्या यह काफी है ? क्या आर्थिक पैकेज में थोड़ा बहुत बदलाव करके हम एक बड़ा जियोपॉलिटकल नुकसान की भरपाई कर सकते हैं?
इस बिंदू पर आकर मुझे जरा मुख्य चर्चा से हटकर कुछ और बात करने दें, जो पाठकों को तुच्छ और मूर्खतापूर्ण लग सकती है लेकिन जरा मुझे अपनी बात कह लेने दें. 2000 का दशक की समाप्ति होते होते जब लेमेन सुनामी ने दुनिया भर की वित्तीय संस्थाओं को तहस नहस करना शुरू किया था तब भारत के एक शानदार बैंक की नैया डूबने लगी थी. भारतीय बैंक को डर लग रहा था कि जमाकर्ता उसकी भट्ठी बैठा देंगे.
मुझे याद है कि रविवार का दिन था और बैंक की ज्यादातर शाखाएं बंद थीं. लेकिन बैंक के ATM के सामने सैकड़ों जगहों पर कतारें लगनी शुरू हो गई थीं. सबको कैश निकालना थे. अगर हर कोई अपना कैश निकालने लगे तो बैंक को अपना काउंटर बंद करना पड़ेगा और इसका कॉरपोरेट धाक हमेशा के लिए खत्म हो जाता है.
मेरा फोन बजा. लाइन पर बैंक के चेयरमैन थे. वो हमारे बिजनेस चैनल पर ये सबको बताना चाहते थे कि वो देश भर में बैंक की शाखाएं खोलने जा रहे हैं और जिनको भी कैश की जरूरत है वो बैंक से पैसे निकाल सकते हैं. “राघव, मैं इसे इसलिए करना चाहता हूं क्योंकि यही एकमात्र तरीका है पैनिक रोकने का. सबको ये लगना चाहिए कि बैंक में पर्याप्त कैश है और वो कभी भी निकाल सकते हैं. पब्लिक को ये भरोसा दिया जाए कि उनके पैसे सुरक्षित हैं और वो जब चाहें पैसे निकाल सकते हैं..” यह एक रिस्की कदम था पर यह काम कर गया. डर धीरे धीरे कम हुआ और भरोसा लौटा... जो कतारें लग रही थी वो छंटने लगी और बैंक मुश्किलों से बच गई और बाद में बैंक और मजूबत होती गई.!
आज, IMF से बड़ा कर्ज लेने के लिए श्रीलंका बातचीत कर रहा है ताकि उसके ऊपर जो देनदारियां हैं वो कम हो सकें और इकनॉमी को बचाने के लिए कम से सांस लेने तक की मोहलत मिल पाए. लेकिन कैश जारी करने से पहले IMF सख्त शर्तों की पाबंदी श्रीलंका पर रखना चाहता है और इसका पूरा एक पैकेज है. इस पूरी प्रक्रिया में संभावित रूप से छह महीने का समय लग सकता है.
यही वो समय है जब भारत को श्रीलंका के लिए खजाना खोल देना चाहिए, सबको दिखाकर. यह उचित शर्तों पर कर्ज हो सकता है या गारंटी हो सकती है. कुछ छूट देनी हो तो वो भी दें, भले ही उसके लिए कुछ श्रीलंकाई ऐसेट को बतौर गारंटी लिखवा लें. हम अभी जो मदद दे रहे हैं उसमें कुछ जोड़ सकते हैं या फिर पूरी तरह से नया पैकेज दे सकते हैं. बस ये बड़ा हो पहले से छोटा नहीं. एक बार अगर IMF से श्रीलंका को मदद मिलने लगती है और श्रीलंका की अर्थव्यवस्था पटरी पर लौटने लगती फिर भारत अपने पैसे वसूल सकता है.
निश्चित तौर पर यह भारत के लिए एक जोखिम भरा साहसी कदम होगा,लेकिन विश्व राजनीति के लिहाज से जो रिटर्न मिलेंगे वो जोखिम से कहीं ज्यादा बड़ें होंगे.
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