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India Canada Dispute: कनाडा पाकिस्तान नहीं है, भारत के लिए तीन अहम सबक

चीन और रूस के साथ जी20 देशों को एक साथ लाना और New Delhi Declaration को पारित करवाना नई दिल्ली के लिए अभूतपूर्व है.

दीपांशु मोहन
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>India Canada Dispute: कनाडा पाकिस्तान नहीं है, भारत के लिए तीन अहम सबक</p></div>
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India Canada Dispute: कनाडा पाकिस्तान नहीं है, भारत के लिए तीन अहम सबक

(फोटोः क्विंट हिंदी)

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कनाडा (Canada) के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने हाल ही में भारत सरकार पर सिख अलगाववादी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में शामिल होने का आरोप लगाया था. उनके इस आरोप के करीब एक हफ्ते बाद यह बात सामने आई कि 'फाइव आइज' गठबंधन की संयुक्त खुफिया रिपोर्ट में भारत (India Canada Dispute) की संलिप्तता की पुष्टि हुई है. और फिर 'फाइव आइज' द्वारा इस जानकारी की पुष्टि किए जाने के बाद ट्रूडो को अपनी संसद में इस मुद्दे पर बोलने के लिए मजबूर होना पड़ा था.

हालिया दौर अत्यधिक अनिश्चित होने के साथ-साथ बहुध्रुवीय भी है

इन देशों द्वारा यह संयुक्त खुफिया खुलासा और कनाडा में अमेरिकी राजदूत द्वारा इसकी पुष्टि, आगामी चुनावी वर्ष में पश्चिम और नई दिल्ली के संबंधों पर अधिक ध्यान केंद्रित करती है.

हालांकि, इस वक्त प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी के लिए घरेलू संदर्भ ज्यादा मायने रखता है. भारत में हालिया समय में अति-राष्ट्रवादी (hyper-nationalist) सामाजिक-राजनीतिक घरेलू परिदृश्य में पश्चिम-विरोधी, उपनिवेशवाद-विरोधी भावनाएं अपने चरम पर हैं.

गौरतलब है कि हाल ही में जी20 शिखर सम्मेलन संपन्न हुआ है. इस सम्मेलन में विकासशील ‘ग्लोबल साउथ’ के मुद्दों को संबोधित करने में अग्रणी भूमिका निभाने में भारत की भूमिका को एक सफलता के रूप में सराहा गया.

हालिया दौर जो कि अत्यधिक अनिश्चित होने के साथ साथ बहुध्रुवीय भी है. इस दौर में चीन और रूस के साथ जी20 देशों को एक साथ लाना और New Delhi Declaration को पारित करवाना नई दिल्ली के लिए अभूतपूर्व है. और ऐसा करके नई दिल्ली ने खुद को साबित कर दिया है कि वह पश्चिमी देशों के साथ-साथ पूर्वी देशों के साथ भी वैश्विक स्तर पर एक महत्वपूर्ण रणनीतिक भागीदार के रूप में काम कर सकता है.

भारत के लिए पश्चिम इतना महत्वपूर्ण क्यों?

सवाल यहां यह उठता है कि भारत के लिए पश्चिम इतना महत्वपूर्ण क्यों है? दरअसल एशिया में पश्चिम की अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए भारत एक महत्वपूर्ण प्लेयर है. चीन का मुकाबला करने और ऋण व मंदी से प्रभावित यूरोप को निवेश/व्यापार में मदद प्रदान करने के लिए भारत काफी महत्वपूर्ण है.

यही कारण है कि शिखर सम्मेलन में हासिल किए जाने वाले लक्ष्यों पर भारत को जीत दिलाने में अमेरिका और यूरोपीय संघ के देश काफी अधिक उदार दिखे थे.

दरअसल आने वाले वर्ष में भारत में आम चुनाव होने हैं. कनाडा-भारत संबंध में खटपट होने के बाद, कनाडा के खिलाफ मोदी का सख्त रुख होना और घरेलू स्तर पर खालिस्तान मुद्दे को असमान रूप से उठाना. यह सब इसी चुनाव में बेहतर प्रदर्शन हासिल करने के लिए मोदी की घरेलू चुनावी रणनीति का हिस्सा हो सकते हैं.

इस तरह का नेरेटिव विकसित करने से बीजेपी को 'विदेशी दुश्मन' ढूंढकर देश में एक सामंजस्यपूर्ण राष्ट्रीय (सुरक्षा) जैसे मुद्दों का नेरेटिव बनाने में मदद मिलेगी. याद करें कि 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले भी पुलवामा हमले (बिना सबूत के) के बाद पाकिस्तान को कैसे बदनाम किया गया था.

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नाडा पाकिस्तान नहीं है

लेकिन ध्यान रहे कि कनाडा पाकिस्तान नहीं है. हम यहां G7 सदस्य देश के बारे में बात कर रहे हैं. वह देश जो अमेरिका का बेहद करीबी सहयोगी है और औद्योगिक रूप से उन्नत दुनिया का हिस्सा है. वह देश जो भारत के कुशल (ई)प्रवास पैटर्न के लिए एक महत्वपूर्ण गंतव्य है. यह देश युवा छात्रों से लेकर मध्य-करियर पेशेवरों तक सभी का घर है जो भारत में काफी मात्र में धन (remittance) भेजते हैं. यहां गौर करने वाली बात यह है कि कनाडा के साथ भारत का अपना निर्यात/आयात व्यापार उसके कुल निर्यात हिस्से का 1 प्रतिशत से भी कम है.

हाल के दिनों में भारत या पंजाब में हो रही राजनीति पर नजर डालें, तो खालिस्तान का मुद्दा घरेलू राजनीति को परिभाषित करता कहीं नजर नहीं आ रहा. और इसके अलावा सिख समुदाय की राजनीति में भी ये मुद्दा ज्यादा चिंता का विषय नहीं है.

इस कारण से नई दिल्ली के लिए यह विचार करना अधिक महत्वपूर्ण है कि क्या कनाडा के खिलाफ अपनाया गया अनुचित कठोर व्यवहार और जैसे को तैसा जैसी नीति आवश्यक थी. इस आक्रामक रुख के बड़े निहितार्थ हो सकते हैं. भारत को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि इससे पश्चिम के साथ उसके अपने रिश्तों में खराबी नहीं आनी चाहिए.

3 महत्वपूर्ण सबक

मौजूदा समय में कनाडा और भारत के बीच जो द्विपक्षीय तनाव उत्पन्न हुआ है, उससे पश्चिमी नजरिये से कुछ बातें साफ तौर पर समझ में आ रही हैं. भले ही सच्चाई आरोपों-प्रत्यारोपों के कोहरे में दबकर रह जाए.

  • पहली बात तो यह समझ आ रही है कि अमेरिका, ब्रिटेन के अलावा कनाडा के अन्य प्रमुख सहयोगी भारत के साथ रिश्ते तोड़ने के अनिच्छुक हैं. दरअसल यह देश चीन के उदय को संतुलित करने में भारत को एक महत्वपूर्ण भागीदार के रूप में देख रहे हैं.

  • दूसरी बात, यह उम्मीद करना बेहद मूर्खतापूर्ण होगा कि अमेरिका और उसके मित्र कनाडा की जगह भारत को चुनेंगे. अमेरिकी नेतृत्व वाली गठबंधन प्रणाली की वास्तुकला और विश्वसनीयता राष्ट्रीय सुरक्षा के सवालों पर सदस्यों के एक-दूसरे के साथ खड़े होने पर निर्भर करती है, चाहे परिस्थिति कुछ भी हो.

कनाडा के फ़ाइव आईज़ साझेदार न केवल निष्क्रिय रूप से ओटावा के साथ टिके हुए हैं बल्कि वे सक्रिय रूप से खुफिया जानकारी साझा कर रहे हैं जो ट्रूडो को भारत के खिलाफ अपना मामला मजबूत करने में मदद कर रही है.
  • ध्यान देने योग्य तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण सबक यह है कि पश्चिमी नेता अपने भारतीय समकक्षों से मिलते समय या नई दिल्ली के साथ संबंधों के बारे में बात करते समय सार्वजनिक सौहार्द्र का प्रदर्शन करते हैं, लेकिन वास्तव में उन्हें केवल अपने दोस्तों के ऊपर जासूसी करने में ही मजा आता है.

भारत को 'अविश्वसनीय मित्र' के रूप में देखे जाने का जोखिम

इसके अलावा, यदि भारत शांति, बैक-चैनल कूटनीति के माध्यम से कनाडा और उसके सुरक्षा साझेदारों ('पांच आंखें') की हालिया समस्या को चतुराई से नहीं संभालता है, तो इसे पश्चिम में एक 'अविश्वसनीय मित्र' के रूप में देखे जाने का जोखिम नजर आ रहा है.

इन सबके अलावा अगर भारत पश्चिम के साथ अपने रिश्ते सुधारने में सफल नहीं हो पाता है, तो नई दिल्ली के लिए प्रमुख मुद्दों पर पश्चिम का समर्थन हासिल करना मुश्किल हो जाएगा. जैसे कि

  • रूस और यूक्रेन के साथ संतुलन बनाना

  • दक्षिण एशिया में अपने पड़ोस में चीन और उसके सुरक्षा जोखिम का सामना करना

  • पूंजी गतिशीलता और प्रौद्योगिकी-हस्तांतरण के लिए साझेदार बनाना जो भारत के आर्थिक विकास इंजन के लिए महत्वपूर्ण हैं (जहां अमेरिका एक प्रमुख भागीदार है) के लिए महत्वपूर्ण हैं.

  • और अंत में, विभिन्न बहुपक्षीय (जी20 सहित) द्वारा संचालित अपने स्वयं के वादों के कार्यान्वयन पर टिके रहने में सक्षम होना कठिन हो जाएगा.

एक वरिष्ठ पत्रकार की रिपोर्ट के अनुसार, “विश्व नेताओं को गले लगाना और उनकी संसदों में बोलना कैमरों के लिए सुखद क्षण पैदा कर सकता है. लेकिन भारत-कनाडा संबंधों में आई खटास इस बात की याद दिलाती है कि अंतत: अंतरराष्ट्रीय कूटनीति अभी भी 'गॉचा' --और भारत का ही खेल है.

(दीपांशु मोहन जिंदल स्कूल ऑफ लिबरल आर्ट्स एंड ह्यूमैनिटीज, ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं, साथ ही सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक्स स्टडीज (सीएनईएस) के निदेशक भी हैं। यह एक नज़रिया है और यह विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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