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भारत-चीन टकराव: रूस मध्यस्थता न करे, लेकिन तनाव कम कर सकता है

रूस के भारत और चीन दोनों से करीबी रिश्ते हैं, लेकिन किसके ज्यादा करीब

विष्णु प्रकाश
नजरिया
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सदियों से अगर किसी समाज ने लगातार मुश्किलों और अन्याय का सामना किया है, फिर भी धीरज बनाए रखा है और हास्य बोध भी, तो वे रूसी लोग हैं. वे सबसे स्वाभिमानी लोग हैं, कम से कम इस लेखक ने इस विशाल देश में अपने सेवा काल के दौरान यही एहसास किया है. यह देश दो महाद्वीपों में और ग्यारह टाइम जोन्स में फैला हुआ है. वहां प्राकृतिक संसाधन बड़ी मात्रा में मौजूद हैं. वह न्यूक्लियर, स्पेस और सैन्य ताकत वाला देश है, साथ ही संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य भी है.

फिर भी रूस कुछ हद तक भटक रहा है. 1991 में USSR के विघटन के बाद रूस अपनी पहचान के संकट से जूझ रहा है.

विघटन के बाद पश्चिम ने उससे किनारा कर लिया. उसे बराबर निशाना बनाता रहा. इसके चलते रूस का असर धीरे-धीरे कम हुआ है और घेरेबंदी की भावना भी. उसे 1998 में जी7 समूह का हिस्सा बनने का न्योता दिया गया पर 2014 में बाहर निकाल दिया गया. आखिरी दांव था, यूरोपीय संघ (ईयू) और नाटो का यूक्रेन के करीब आना. इसके बाद कीव ईयू का ‘प्रायॉरिटी पार्टनर’ और नाटो का ‘एनहांस्ड ऑपरचुनिटी पार्टनर’ बन गया. नतीजा यह हुआ कि परेशान और अलग थलग पड़े रूस ने चीन के गलबहियां डाल दीं और उसके समर्थन में खड़ा हो गया.

चीन और रूस – उतार चढ़ाव भरा अतीत

चीन और रूस का इतिहास उतार-चढ़ाव भरा रहा है. 1950 में चीन सोवियत संघ की तरफ हसरत भरी नजरों से देखता था. उस समय सोवियत संघ ताकत और प्रतिष्ठा के चरम पर था. हालांकि साठ के दशक में सैद्धांतिक मतभेदों के चलते दोनों के रास्ते अलग हो गए. भारत से रूस की घनिष्ठता को देखकर चीन जल भुन गया. 1962 के दौरान भारत के साथ चीन के रिश्तों में कड़वाहट आई तो USSR ने चीन का पक्ष नहीं किया. 1969 में सात महीनों तक दोनों देश सीमा विवाद में उलझे रहे (चीन अब भी मानता है कि उसके सुदूर पूर्वी क्षेत्र को रूस ने गलत तरीके से अपने कब्जे में किया हुआ है). इसके बाद चीन और अमेरिका लगभग चालीस साल तक एक दूसरे से उखड़े-उखड़े रहे.

चीन-रूस संबंध राष्ट्रपति शी जिनपिंग के सत्ता में आने के बाद 2013 से गहरे हुए. चूंकि दोनों के खिलाफ पश्चिमी सरगर्मी कुछ शांत हुई. शी और राष्ट्रपति पुतिन कम से कम 31 बार मुलाकात कर चुके हैं.

2019 में रूस में आठवें दौरे के दौरान शी और पुतिन ने दोनों देशों के बीच के संबंध को ‘व्यापक कूटनीतिक भागीदारी’ में बदलने का फैसला किया. शी ने पुतिन को अपना ‘सबसे अच्छा और जिगरी दोस्त’ बताया. उन्होंने रूस को उपहार स्वरूप दो पांडा दिए जोकि चीन में एक गुडविल जेस्चर माना जाता है. अब चीन रूस का सबसे बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर है.

2019 में दोनों देशों के बीच 110 बिलियन USD का द्विपक्षीय व्यापार हुआ, और रूस और भारत के बीच 11 बिलियन USD का. 2024 तक उनके बीच 200 बिलियन USD का व्यापार लक्ष्य है, जिसे हासिल करना मुश्किल नहीं है. जल्द ही चीन रूसी तेल और गैस का सबसे बड़ा खरीदार बन जाएगा. इसके अलावा, रूस चीनी महत्वाकांक्षा से पूरी तरह परिचित है और वास्तव में उसका जूनियर पार्टनर बनने से निराश भी है. बेशक, तीन दशक में भूमिकाएं बदल गई हैं- जिसे आप रोल रिवर्सल भी कह सकते हैं.

व्यापार संबंधों के बावजूद दोनों एक दूसरे से होशियार 1988 में रूस और चीन की जीडीपी क्रमशः 554.7 बिलियन USD और 312.35 बिलियन USD थी. 2018 में यह क्रमशः 1.67 ट्रिलियन USD और 13.6 ट्रिलियन USD हो गई. रूस जोकि कभी एक टेक जाइंट था, अब प्राइमरी और एनर्जी प्रोडक्टस का निर्यातक बन गया है. हां, डिफेंस हार्डवेयर और स्पेस टेक्नोलॉजी में अब भी उसके हाथ मजबूत हैं.

चीन ने रूस को प्लांट, मशीनरी और टेक्नोलॉजी के सप्लायर के रूप में जर्मनी को पछाड़ दिया है. वह अब रूसी डिफेंस प्लेटफॉर्म्स (S400 मिसाइल और चौथी पीढ़ी का Su 35 लड़ाकू विमान) का दूसरा सबसे बड़ा आयातक है (भारत के बाद). हालांकि वह मनमाने तरीके से रिवर्स इंजीनियरिंग करता है जो रूस को कतई पसंद नहीं, पर वह इस पर कुछ नहीं कर सकता. फिर भी रूस ने चीन की इस मांग को ठुकरा दिया कि वह भारत को रक्षा आपूर्ति न करे.

2 दिसंबर, 2019 से रूसी प्राकृतिक गैस चीन पहुंचने लगी है, जिसके लिए साइबेरिया से चीन तक 55 बिलियन USD की लागत वाली पाइपलाइन बनाई गई है. यह पाइपलाइन 2014 के उस 400 बिलियन USD के कॉन्ट्रैक्ट का हिस्सा है, जिसके तहत रूस 30 साल तक चीन को गैस की सप्लाई करेगा. राष्ट्रपति पुतिन इसे रूस के गैस उद्योग के इतिहास का सबसे बड़ा समझौता बता चुके हैं.

फिर भी भूराजनैतिक लिहाज से दोनों पक्ष एक दूसर से होशियार रहते हैं

दोनों के बीच स्तान (यानी मध्य एशिया के गणराज्यों कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान, तुर्केनिस्तान और उजबेकिस्तान) को लेकर एक अनौपचारिक समझौता है. ऐसा एक सीनियर भारतीय राजनयिक कहते हैं. चीन को अपने आर्थिक संबंधों को मजबूत करना था, जबकि रूस को इस पूरे क्षेत्र में अपना राजनैतिक प्रभुत्व कायम करना था. लेकिन सच्चाई यह है कि इस क्षेत्र पर चीन का प्रभाव बढ़ा रहा है और यह रूस के लिए चिंता की बात है.

यह ध्यान देने वाली बात है कि रूस ने अब तक दक्षिण चीन सागर पर चीनी दावे को मान्यता नहीं दी है और उसने वियतनाम के साथ गहरी साझेदारी बरकरार रखी है.

इसी तरह चीन ने क्रीमिया पर रूस के कब्जे का समर्थन नहीं किया है. दोनों ही देश यह नहीं चाहते कि कोई उन्हें एक दूसरे का दोस्त समझे और वे सिर्फ कूटनीतिक साझेदारी से खुश हैं. दरअसल दोनों अपने-अपने विकल्प खुले रखना चाहते हैं. मिसाल के तौर पर, रूस अमेरिका से इस बात पर सहमत है कि ‘आर्टिक’ और ‘नॉन आर्टिक’ देश हैं पर ‘नियर आर्टिक’ जैसा कुछ नहीं है. दूसरी तरफ चीन रूस को आर्टिक क्षेत्र में इस दावे के साथ चुनौती दे रहा है कि वह ‘नियर आर्टिक’ देश है.

भारत और रूस: ‘कूटनीतिक साझेदारी’ से ‘विशेष और प्राथमिक कूटनीति साझेदारी’

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मई 2020 की शुरुआत में राष्ट्रपति ट्रंप ने रूस (और भारत) को जी7 शिखर सम्मेलन में बुलाने का फैसला किया, लेकिन चीन को छोड़ दिया. रूस ने इस निमंत्रण को मंजूर किया और चीन को यह बात पसंद नहीं आई.

विदेश मंत्री डॉ. एस जयशंकर की किताब ‘द इंडिया वे’ हाल ही में जारी हुई है. इस किताब में वह कहते हैं, ‘समय आ गया है कि हम अमेरिका को संलग्न करें, चीन का बंदोबस्त करें, यूरोप से संबंध बढ़ाएं, रूस को आश्वस्त करें, जापान को आमंत्रित करे, पड़ोसी देशों को शामिल करें, अपने आस पड़ोस को बढ़ाएं और परंपरागत सहयोग क्षेत्रों का विस्तार करें.’ इसके अलावा वह कहते हैं कि रूस के साथ अपने संबंधों को ताजादम करने के लिए खास कोशिश की जानी चाहिए.

USSR का विघटन भारत के लिए एक बड़ा झटका रहा है

तिस, पर नब्बे के दशक में रूस के राष्ट्रपति येल्तसिन और विदेश मंत्री कोजिरेव पश्चिम की तरफ मुड़ गए और भारत को किनारे लगा दिया गया. भारत भी 1992 में ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’ के फेर में था और अपने संबंधों को विविध बना रहा था.

दिसंबर 1999 में रूस में व्लादिमिर पुतिन ने राष्ट्रपति का पद संभाला, तो इस बदलती बयार को मानो थाम लिया. दिसंबर 2000 में भारत के पहले दौरे पर उन्होंने भारत के साथ ‘कूटनीतिक समझौता’ किया. जिसे दिसंबर 2010 में ‘विशेष और प्राथमिक कूटनीतिक साझेदारी’ में बदल दिया गया.2019 में 20 वार्षिक शिखर सम्मेलन हुए.  

बेशक, चीन के साथ रिश्ते रूस-भारत संबंधों को प्रभावित करते हैं. रूस भारत का मुख्य रक्षा साझेदार है. पिछले पांच सालों में हमारे 68 प्रतिशत हथियार रूस से ही आयात हुए हैं. अब दोनों देश क्रेता-विक्रेता के रिश्तों से बाहर आना चाहते हैं और रक्षा क्षेत्र में संयुक्त विकास और.

उत्पादन करना चाहते हैं. ऊर्जा के क्षेत्र में भी हमारे बीच अच्छा सहयोग है. भारत ने रूस के हाइड्रोकार्बन क्षेत्र में 15 बिलियन USD का निवेश किया है. रूस ऐसा अकेला देश है जिसने भारत में न्यूक्लियर पावर प्लांट्स बनाए हैं. अब उन क्षेत्रों पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है, जहां दोनों देशों के बीच मजबूत संबंध नहीं. जैसे व्यापार क्षेत्र में सुस्ती कायम है. इस बात में कोई इनकार नहीं कि रूस-चीन संबंध का असर भारत और रूस के रिश्तों पर पड़ा है.

रूस भारत और चीन, दोनों को महत्वपूर्ण कूटनीतिक साझेदार मानता है और त्रिपक्षीय रिश्ते बनाने की कोशिश कर रहा है. उदाहरण के लिए भारत आरआईसी (रूस, भारत और चीन) फोरम का हिस्सा बनने को राजी नहीं लेकिन रूस उस पर जोर डाल रहा है. इसी तरह रूस एससीओ (शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन) में भारत की सदस्यता का हिमायती है.

इसलिए भारत चीन की तनातनी भले रूस को परेशान करती हो लेकिन वह इसे सुलझाने के लिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल नहीं करना चाहता.

अब यह किसी को अच्छा लगे, न लगे, रूस भारत और चीन के परस्पर संवाद के लिए तटस्थ मंच बन सकता है. 4 सितंबर को भारत के रक्षा मंत्री मास्को में चीनी रक्षा मंत्री से मिले और विदेश मंत्रियों के 10 सितंबर को मिलने की उम्मीद है.

मास्को को बीजिंग और नई दिल्ली में किसी एक को चुनना होगा

दरअसल रूस और चीन एक दूसरे के साथ हैं, सिर्फ इसलिए क्योंकि परिस्थितियां उन्हें इसके लिए मजबूर कर रही हैं. यह कोई पुराने और लंबे संबंध का नतीजा नहीं, सुविधा का संबंध है.

दूसरी तरफ भारत और रूस के संबंध बहुत पुराने हैं. इसका कारण यह नहीं कि किसी को किसी से खतरा है और उसे भांपकर वे एक दूसरे के करीब हैं. इसके अलावा इससे भारत की सुरक्षा और प्रभाव बढ़ता है. बेशक, रिश्तों में पहले से गर्माइश नहीं, लेकिन रूस भी कोई सोवियत संघ नहीं.

मास्को को बीजिंग और नई दिल्ली में से किसी को चुनना होगा, पर वह तटस्थता बनाए रखेगा. मध्यस्थता की पहल नहीं करेगा लेकिन अगर जरूरत पड़ी तो भारत और चीन के बीच अविश्वास और संदेह को कम करने में मदद जरूर करेगा.

(लेखक कनाडा के हाई कमीशनर, दक्षिण कोरिया के राजदूत और विदेश मंत्रालय के आधिकारिक प्रवक्ता रह चुके हैं. वह @AmbVPrakash पर ट्विट करते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है, और यहां व्यक्त विचार लेखकों के हैं. द क्विंट न तो इसकी पुष्टि करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है)

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Published: 10 Sep 2020,07:32 AM IST

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