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एलएसी के कुछ इलाकों की यथास्थिति बदलने के लिए चीन ने इस साल अप्रैल में लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर गलत और निंदनीय कार्रवाई की. उसका ये कदम एक परमाणु संपन्न देश यानी भारत के खिलाफ उसके गैरजिम्मेदाराना व्यवहार काे दिखाता है.
ऐसा उसने बीते तीन दशकों में आतंकवाद को संरक्षण देकर जम्मू-कश्मीर, लद्दाख और देश के बाकी हिस्सों में किया है.
यह अपने आप में दो कारणों से अजीब है: पहला- चीन, पाकिस्तान को अपना दोस्त और भाई कहता है, जबकि वास्तव में वह उसका संरक्षक है, इसलिए लद्दाख में एलएसी में उसकी गतिविधियां करने में संरक्षक चीन, अपने धूर्त दोस्त (पाकिस्तान) की लाइन का अनुसरण कर रहा है. दूसरा- अमेरिका की तरह चीन खुद को ग्लोबल पावर मनवाना चाहता है. लेकिन इसके लिए वह गलत रास्तों को अपनाता है. इससे यह समझ आता है कि उसे भी पाकिस्तान की तरह एक कैटेगरी में डाल देना चाहिए.
शी जिनपिंग के सत्ता में आने के बाद चीन का कई माेर्चों पर आक्रामक रवैया देखा गया. उसने अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के बनाए नियमों की भी अनदेखी की है. दक्षिण चीन सागर को लेकर उसके संदिग्ध दावे, फिलीपींस और वियतनाम के खिलाफ उसका व्यवहार, ताइवान के विरुद्ध उसकी दुश्मनी और हांगकांग में उसके लोकतंत्र के आंदाेलनों को कुचलना एक पैटर्न का हिस्सा है, जिसका मतलब है कि उसे फर्क नहीं पड़ता. अन्य देशों के साथ बेहतर संबंध स्थापित करने के बजाय वह अपने हितों को बढ़ावा देने की इच्छा रखता है.
चीन की इच्छा है कि उसे महामारी के लिए दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए. इस मामले में उसका कोई हाथ नहीं है, लेकिन इसके सबूत दिखाने के बजाय वह अपने आलोचकों को चुप कराने की कोशिश कर रहा है. जैसा, हम ऑस्ट्रेलिया को व्यावसायिक नुकसान पहुंचाने की उसकी कोशिश के रूप में देख चुके हैं.
इन तथ्यों को नजरअंदाज करते हुए चीन उन नियमों को तोड़ रहा है, जो अतीत में परमाणु संपन्न देशों के बीच संबंधों को नियंत्रित करते थे, जैसे एटमी ताकत देश अन्य एटमी ताकत वाले देश के इलाकों पर कार्रवाई नहीं करेंगे या उसके इलाकों को नियंत्रण में नहीं लेंगे. ऐसा हम अमेरिका और सोवियत यूनियन द्वारा शीत युद्ध के दौर में देख चुके हैं.
चीन ने उन प्रतिबंधों का पालन नहीं किया, जिसे अमेरिका और सोवियत यूनियन ने निभाया था. माओ त्से तुंग 1969 में अपने देश को सोवियत यूनियन के खिलाफ जंग की कगार तक ले गए थे, जबकि दोनों देश एटमी हथियारों से लैस थे. संकेत बताते हैं कि शी जिनपिंग खुद को कम्युनिस्ट पार्टी के उन महान नेताओं के सांचे में ढला हुआ मानते हैं, जिसमें माओ सबसे महान थे. उन्हें समझना चाहिए कि दुनिया अब चीन और उनके नेताओं से अधिक परिपक्वता की उम्मीद करती है.
एक बड़े भारतीय पत्रकार को दिए हालिया इंटरव्यू में चीनी एक्सपर्ट झाओ टोंग ने तर्क दिया कि बीजिंग और दिल्ली काे विश्वास है कि भारत-चीन के बीच की दुश्मनी इतनी स्थिर थी कि उनके बीच पारंपरिक जंग नहीं होगी, लेकिन रणनीतिक तौर पर ये व्याख्या गलत निकली.
चीन की ओर से एलएसी पर की गई किसी भी कार्रवाई, जैसा वह अतीत में कर चुका है, उसकी यथास्थिति को बदलने की कोशिश है. ये उकसावा पूरी तरह से अस्वीकार्य है. दिलचस्प रूप से, झाओ टोंग ने अपने इंटरव्यू में कहा था कि चीन महसूस करता है कि भारत आक्रामक है और उसकी भी इच्छा एलएसी पर यथास्थिति बदलने की है .
निश्चित रूप से, अगर ये चिंता की बात होती तो चीन इसका कोई सबूत देता, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इसके अलावा ये बेहद खतरनाक स्थिति है क्योंकि परमाणु संपन्न देश दूसरे परमाणु संपन्न देश को ठीक से पढ़ने में भूल नहीं कर सकते.
हर बार किसी भी घटना में चीन ये बताता है कि भारत की ओर से कार्रवाई उकसाने वाली है, जबकि ये उसके अपने आक्रामक होने का सिर्फ एक बहाना है.
चीन का ये मानना कि उसके पारंपरिक हथियार भारत से बेहतर हैं और अगर इस आकलन पर उसने लद्दाख में कार्रवाई की तो उसे पता होना चाहिए कि भारत भी एलएसी पर अब अपनी रक्षा करने में सक्षम है. बड़ी संख्या में फोर्स बढ़ाकर वह एलएसी और दूसरी मोर्चे पर अपने इलाकों की सुरक्षा जरूर करेगा.
परमाणु संपन्न देशों के बीच मुद्दा यह नहीं है कि परमाणु हथियारों की ताकत बढ़ाए बिना पारंपरिक युद्ध लड़ा जा सकता है, लेकिन इस समीकरण में फोर्स का इस्तेमाल कभी नहीं होना चाहिए. ऐसा तभी हो सकता है कि जब कोई उकसावे की स्थिति न हो. जैसी उकसावे की कार्रवाई पाकिस्तान आतंकवाद और चीन एलएसी में घुसपैठ के जरिए करता है.
(लेखक विदेश मंत्रालय के पूर्व सचिव [पश्चिम] सचिव हैं. @VivekKatju से संपर्क किया जा सकता है. ऊपर लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है)
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