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चीन से भौंचक क्यों रह जाता है भारत?

चीन के खिलाफ भारत की ‘दो कमजोरियां’

राघव बहल
नजरिया
Updated:
क्या हैं चीन के खिलाफ भारत की ‘कमजोरियां’
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क्या हैं चीन के खिलाफ भारत की ‘कमजोरियां’
(फोटो: श्रुति माथुर/क्विंट)

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चीन अक्सर भारत को कुछ ऐसी स्थिति में डाल देता है जैसे...क्या कहूं...हम्म...अब मैं एक ऐसा तटस्थ शब्द खोज रहा हूं जो ट्रोल की आंखों से बचकर निकल जाए. और यहां, मुझे वो मिल गया! भौंचक, हां, चीन बस भारत को भौंचक कर देता है. भीमकाय पड़ोसी से कैसे व्यवहार करें, इसे लेकर हम कभी आश्वस्त नहीं रहते.

एक ताकतवर दुश्मन, जिसे छेड़ने में बेहद सावधानी बरतनी पड़ती है, जिसे हैंडल करने के लिए बच्चों के दस्ताने चाहिए? या एक रहस्यमय विशाल देश, जिसके साथ हम मित्रता चाहते हैं, लेकिन सावधान रहते हैं, घबराहट होती है? हमारी सामूहिक राष्ट्रीय चेतना में यही वो उलझन है जिससे हमारे कदम हवा में रह जाते हैं. जैसे ही हम एक कदम आगे बढ़ाते हैं, दूसरा पैर हवा में झूलता रह जाता है. तय नहीं कर पाते हैं कि हमें आगे बढ़ना है या कि कदम वापस खींचने हैं.

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लद्दाख में ‘बढ़ता कब्जा'

इससे पहले कि मुझ पर राजद्रोह का मुकदमा लगे, दो हालिया उदाहरणों से मैं अपनी बात साफ कर दूं. भारत-चीन की सीमा पर क्या हो रहा है, उसे देखें. एक-एक सबूत इशारा करता है कि जिसे हम अपनी जमीन मानते हैं, वहां चीन घुसता चला आ रहा है, खासकर लद्दाख में.

बीते वर्षों की तरह यह कोई स्थानीय झड़प नहीं है जो उत्तेजित गश्ती दलों के बीच रास्ते से गुजरने को लेकर हुआ करती थी. ऐसा लगता है कि चीन एक सोची समझी साजिश के तहत ये हरकत कर रहा है.

ये चर्चा बढ़ती जा रही है- ज्यादातर विश्वसनीय- कि तनाव घटाने की बात हो रही है लेकिन चीन ने रणनीतिक रूप से अपने कदम पूरी तरह नहीं खींचे हैं, मतलब पुरानी वाली स्थिति में नहीं लौटा है.

साधारण भाषा में, स्टॉक मार्केट की शब्दावली से उधार लेते हुए कहा जाए तो ऐसा लगता है कि यहां ‘रेंगते अधिग्रहण’ का अचूक तत्व है. अफवाह और सुनी-सुनाई बातों में तो दावा किया जाता है कि चीन ने हमारी 35 से 60 किमी के बीच की जमीन हथिया ली है, लेकिन भारत का जवाब क्या रहा है? लगभग अशोभनीय- “नहीं, हम खास विवरण साझा नहीं कर सकते कि गलवान घाटी में क्या हो रहा है, लेकिन हां, हम नहीं चाहते कि चीन के साथ कोई परेशानी हो, इसलिए कृपया हमसे ज्यादा सवाल-जवाब न करें.” यही है जिसे आप कहेंगे.....सचमुच, एक भौंचक प्रतिक्रिया.

चीनी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) पर प्रतिबंध!

इससे भी ज्यादा है वो अशोभनीय तरीका जिससे हमने चीनी निवेश पर शिकंजा कसने की कोशिश की है. जब मार्च में भारत के सबसे बड़े गिरवी कर्जदाता एचडीएफसी की वैल्यू कोविड की घबराहट में कुछ ज्यादा ही गिरने लगी, तो चीन के सेंट्रल बैंक ने हमारे स्टॉक एक्सचेंज के जरिए इस ब्लू चिप में अपनी हिस्सेदारी 1 फीसदी से थोड़ी ज्यादा बढ़ा ली. दोबारा पढ़ें. यह केवल एक प्रतिशत था. खुले बाजार में खुली खरीदारी के तहत एक पोर्टफोलियो की खरीदारी थी. लेकिन सही में हम भौंचक रह गए.

एक डरी हुई घुटना टेक प्रतिक्रिया देते हुए हमने आदेश दिया कि “हमारी सीमा को साझा करते किसी भी देश से आ रहा निवेश ऑटोमेटिक रूट से नहीं आएगा. केस दर केस जांच के बाद ही इसकी इजाजत दी जाएगी.”

लक्ष्य स्पष्ट था- हमें चीनी पूंजी के मुक्त प्रवाह को रोकने की जरूरत थी जो हमारी संपत्ति को बहुत सस्ते में प्राप्त करके हमें ‘प्रभावित’ कर सकता था. इरादे नेक थे- इस गंभीर संकेट के बीच संपत्तियों की गिरती कीमत के दौरान परिवार की चांदी और चीनी मिट्टी (ओह) के बेशकीमती बर्तन को शिकारियों से बचाना. लेकिन चूंकि हम चीन को छेड़ना नहीं चाहते थे इसलिए हमने “सीमावर्ती राज्यों” वाला आइडिया निकाला. इसकी जद में पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और न जाने कौन-कौन से देश भी आ गए, लेकिन इनका कोई मतलब नहीं.

अब तक सबकुछ ठीक था. लेकिन तभी हमें वही पुरानी बीमारी लग गई-“हवा में झूलता दूसरा पैर”. आगे क्या होगा ये सोचे बिना हमने ‘साहस के साथ’ (लापरवाही?) पहला कदम उठाया. तो अब हमें दूसरा उठाना था, बताना था कि कौन सा विदेशी निवेश, यानी चीनी निवेश, निगरानी के दायरे में होगा. लेकिन जैसे ही चीनियों ने अपनी आंखें गुस्से में तरेरीं, हम भौंचक रह गए. हम जम गए.

तो आज हम नो मेंस लैंड में फंसे हैं. चीन से आई हर रेनमिनबी (चीन की मुद्रा) फंस गई है. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि एक चीनी निवेशक दो फीसदी का मालिक है या 80 फीसदी का, या फिर वो प्रत्यक्ष मालिक है या फिर लाभुक, जो निवेश चक्र में दो स्तर ऊपर है- सबकुछ ठप हो गया है. क्यों? क्योंकि भारत को अभी यह परिभाषित करना है कि ‘चीनी निवेश’ के अंतर्गत क्या आता है. इससे भी बुरा ये हुआ कि हमारा मूल मकसद तो था (और शायद नेक भी) कि चीनियों के मौकापरस्त अधिग्रहण को रोका जाए, उन्हें हमारी कंपनियों का मालिक बनने से रोका जाए लेकिन आज स्थिति ये है कि छोटे से छोटे और सही मंशा वाले निवेश भी रुक गए हैं. और ये मजाक यहीं खत्म नहीं होता.

हॉन्ग कॉन्ग या ताइवान से निवेश के बारे में क्या? चूंकि भारत इन जगहों पर चीन के कूटनीतिक पक्ष का साथ देता है, तो क्या ये भी “प्रतिबंधित सूची” में हैं? उस भारतीय कंपनी के बारे में क्या जो हॉन्ग कॉन्ग के स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध होना चाहती है? चीनी निवेशकों ने जो करार कर रखे हैं, और अब जिन्हें पूरा करने का वक्त गया, क्या उनके लिए भी फिर से मंजूरी लेनी होगी?राइट्स का क्या? क्या चीनी निवेश उसे खरीद सकता है, क्या उसे खरीदना चाहिए?

सवाल ही सवाल, लेकिन जवाब कोई नहीं. कम से कम अब तक तो नहीं जबकि बगैर सोचे समझे “प्रतिबंध” के तीन महीने बीत चुके हैं.

सफाई में कमी का भयंकर खामियाजा वो कंपनियां झेल रही हैं, जिन्हें चीनी निवेश की जरूरत है, या जिनमें निवेश का वादा किया गया था, या जिनमें चीनी निवेशकों ने रुचि दिखाई थी.

ये सबकुछ..फिर से, कैसे कहूं...हम्म...भौंचक करने वाला है.

चीन के खिलाफ भारत की 'दो कमजोरियां'

और आखिर में, अपने ही भ्रम से ध्यान हटाने के लिए हमने अपनी जनता के लिए एक अफीम तैयार की है- स्वदेशी के पीछे भागो, स्थानीय सामान खरीदो, इन घटिया चीनी वस्तुओं का बहिष्कार करो. ऐसा यह आशा (भोलेपन के साथ) करते हुए किया जा रहा है कि सोची समझी हुई सैन्य या निवेश की चुनौतियों का जवाब उपभोक्ता के उन्माद से दिया जा सकता है.


चीन के खिलाफ ऐसी असमान स्थिति में हम क्यों पहुंचे? इसका जवाब “दो दबावों” में छिपा है. (दो चीनी दिग्गज यानी माओ-त्से-तुंग के “द ग्रेट लीप फॉरवर्ड” और दंग शाओपिंग के “फोर मॉर्डनाइजेशन” से बस यह मुहावरा मैं उधार ले रहा हूं)

सबसे पहले चीन ने हमें अक्टूबर 1962 में एक खूनी युद्ध में पराजित किया और अक्साई चिन पर कब्जा कर लिया. दूसरी बार, 1991 में एक जैसी प्रति व्यक्ति आय से आगे बढ़ते हुए चीन 5 गुना हो गया- मैं फिर कहूंगा, हमारी संख्या का पांच गुना. आज उनकी जीडीपी 15 ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा की है जबकि हम 3 ट्रिलियन से नीचे संघर्ष कर रहे हैं.

यकीनन इन दो चीजों ने चीन को भारत पर साफ मनोवैज्ञानिक बढ़त दिला दी है, चाहे हम इसे मानें या न मानें, लेकिन, क्या सबकुछ हमेशा के लिए खत्म हो गया है? नहीं, पक्के तौर पर नहीं.

अगर हम चीन के बराबर नहीं हो सकते तो कम से कम उसके आसपास सम्मानजनक स्थिति में तो आ सकते हैं? यस वी कैन ( इस जुमले के लिए शुक्रिया, राष्ट्रपति ओबामा)

कैसे? अपनी आर्थिक हार के भाव का त्याग कर और अपनी पूरी क्षमता तक पहुंच कर.

कैसे? उन आइडिया को देखें जिनके बूते चीन ने आर्थिक चमत्कार किया.

और फिर पूरे जोश के साथ अपने खुद के आइडिया लाएं और लागू करें. ये क्या हैं? जवाब इस आर्टिकल के दूसरे हिस्से में.

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Published: 13 Jun 2020,11:20 AM IST

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