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India Food Industry: अप्रैल के महीने में खान-पान से जुड़े कई विवादों ने लोगों का ध्यान खींचा है. ये विवाद आक्रामक तरीके से मार्केटिंग किए जाने वाले खाद्य और पेय पदार्थों से जुड़े हुए थे.
इसकी शुरुआत तब हुई, जब भारत सरकार ने ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म्स को बताया कि बॉर्नविटा (बहुत अधिक चीनी और फ्लेवर वाला ड्रिंक) जैसे ड्रिंक्स को 'हेल्थी ड्रिंक्स' के तौर पर वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है.
इसके बाद, नेस्ले की जमकर आलोचना हुई कि वह भारत और अन्य विकासशील देशों में अपने प्रॉडक्ट 'सेरेलैक' में चीनी मिलाता है, लेकिन ग्लोबल नॉर्थ में नहीं.
और आखिर में, यूरोपीय संघ की फूड सेफ्टी अथॉरिटी ने कहा कि पिछले चार साल में उसने भारत से जुड़े 527 उत्पादों में एथिलीन ऑक्साइड पाया है. संयुक्त राज्य अमेरिका का फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन भी अब इस पर गौर कर रहा है.
ऐसे खुलासों से खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम, 2006 और उसके बाद के नियमों पर सवाल खड़े होते हैं. इनमें विज्ञापनों से संबंधित नियम भी शामिल हैं.
हालांकि, इससे सुधार का एक मौका भी मिलता है.
सबसे पहले मैं कुछ मुद्दों को साफ करता हूं.
पब्लिक आई और इंटरनेशनल बेबी फूड ऐक्शन नेटवर्क ने इसी महीने की शुरुआत में एक रिपोर्ट छापी- शुगर: फॉर नेस्ले, नॉट ऑल बेबीज आर इक्वल. इस रिपोर्ट में शिशु आहार में अतिरिक्त चीनी मिलाने और फिर इसे गरीब देशों में मार्केट करने के जोखिम के बारे में बताया गया है.
इसी तरह बॉर्नविटा के लिए कहा गया है कि ये हेल्थ ड्रिंक नहीं है, बल्कि इसके लिए शातिराना मार्केटिंग तकनीक का इस्तेमाल किया गया है. पहले इसे 'तैयारी जीत की' कहकर बेचा जा रहा था, अब इसके लिए दूसरी टैगलाइन इस्तेमाल की जा रही है, 'विटामिन डी की ताकत'.
ऐसे ही गर्मियों के मौसम का फायदा उठाने के लिए, जबरदस्त चीनी वाले दूसरे पेय पदार्थों जैसे पैकेज्ड 'लस्सी' या 'ट्रू फ्रूट ड्रिंक' को बेचा जाता है.
एथिलीन ऑक्साइड की उच्च मात्रा वाले मसालों और अन्य खाद्य उत्पादों का भी जबरदस्त तरीके से विज्ञापन किया जाता है, और इस तरह इसे जोर-शोर से बेचा जाता है.
इनका लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है.
यानी हमें क्वालिटी और मार्केटिंग, दोनों पर ध्यान देने की जरूरत है.
हालांकि, जब देश में खाद्य सुरक्षा नियमों की बात आती है तो मुझे हैरानी नहीं होती कि ऐसे कई उदाहरण हैं, जब नीति विकास में हितों के टकराव के लिए भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) पर सवाल उठाए गए हैं. यह भी कहा गया है कि वह खाद्य उद्योग की मदद करने, और यहां तक कि खाद्य उद्योग की स्थिति को सुविधाजनक बनाने की कोशिश करता है.
2018 में एफएसएसएआई ने चार बेबी फूड कंपनियों को उस कानून से छूट दी थी, जिसके तहत दो साल से कम उम्र के बच्चों के लिए बेबी फूड के प्रमोशन पर पाबंदी लगाई गई थी.
नुकसानदेह खाद्य पदार्थों के 'पैक के सामने लेबलिंग' पर नीति बनाते हुए भी एफएसएसएआई ने खाद्य उद्योग का पक्ष लिया, और पूरी प्रक्रिया का उल्लंघन किया.
मैंने खाद्य सुरक्षा अधिकारियों को यह कहते हुए भी सुना है कि "हमें खाद्य उद्योग यानी फूड इंडस्ट्री की चिंताओं या हितों का ध्यान रखना होता है".
क्या एफएसएसएआई का यही रवैया, खाद्य पदार्थों की खराब क्वालिटी के लिए जिम्मेदार है? शायद, हां.
मशहूर पब्लिक हेल्थ एक्सपर्ट प्रोफेसर के श्रीनाथ रेड्डी ने हाल ही में हिंदुस्तान टाइम्स के एक आर्टिकल में लिखा है कि एफएसएसएआई को "दूसरे वैज्ञानिकों की विशेषज्ञता का इस्तेमाल करना चाहिए जिनके हितों का टकराव नहीं होता है."
वह कहते हैं,
फास्ट-मूविंग कंज्यूमर गुड्स (एफएमसीजी) कंपनी के अधिकांश खाद्य उत्पाद अल्ट्रा-प्रोसेस्ड होते हैं और स्वाभाविक रूप से नुकसानदेह होते हैं क्योंकि उनमें चीनी/नमक, वसा (एचएफएसएस), कॉस्मेटिक एडिटिव्स, रंग और स्वाद बहुत ज्यादा होते हैं.
यह इन उत्पादों की मार्केटिंग है, जिसके कारण लोग इन्हें खरीदना चाहते हैं और इनकी खपत बढ़ जाती है.
चीनी वाले-मीठे पेय पदार्थ, चॉकलेट, नमकीन स्नैक्स, ब्रेडफास्ट सीरियल्स और डेयरी उत्पाद सबसे अधिक मार्केट किए जाते हैं. उनके विज्ञापन आमतौर पर भ्रामक होते हैं.
इस बात के ढेर सारे वैज्ञानिक प्रमाण हैं कि अल्ट्रा-प्रोसेस्ड खाद्य उत्पादों की बढ़ती खपत मोटापे, मधुमेह और कई अन्य गैर-संचारी रोगों से जुड़ी है.
ब्रिटिश मेडिकल जर्नल के एक हालिया अध्ययन ने कहा गया है कि, "अल्ट्रा-प्रोसेस्ड भोजन के अधिक इस्तेमाल से सेहत पर बुरा असर होता है, खास तौर से कार्डियोमेटाबोलिक, सामान्य मानसिक विकार और मृत्यु दर का उच्च जोखिम."
इस अध्ययन को करने वाले वैज्ञानिकों का कहना है...
इसी तरह मसालों और अन्य पैकेज्ड उत्पादों के दैनिक उपभोग से एथिलीन ऑक्साइड के कारण कैंसर का खतरा बढ़ जाता है.
यह स्थिति चिंताजनक है और हम बिना सोचे-समझे दिए गए जवाबों पर भरोसा नहीं कर सकते.
खाद्य उद्योग आमतौर पर तर्क देता है कि यह लोगों की पसंद की बात है. लेकिन इस सोच में कहीं यह नहीं झलकता कि खाद्य उद्योग की मार्केटिंग आपके आहार की सांस्कृतिक रुचियों को बदलना चाहती है.
आपके रोजमर्रा के नाश्ते, दोपहर के भोजन और रात के खाने पर औद्योगिक खाद्य/पेय उत्पादों का हमला हो रहा है.
ऐसा ही एक उदाहरण केलॉग्स का सीरियल और मूसली है जो बच्चों और वयस्कों की नाश्ते की आदतों पर निशाना साधता है.
ऐसे नीतिगत उपाय हैं, जो इन उत्पादों की खपत के संदर्भ में सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं - एचएफएसएस खाद्य पदार्थों के विज्ञापनों पर प्रतिबंध, फूड पैक पर आगे की तरफ चेतावनी वाला लेबल, और 'हेल्दी फूड' और एचएफएसएस की परिभाषा और मानदंड.
वैसे उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की परिभाषा के अनुसार डिब्बाबंद खाद्य उत्पादों के अधिकांश विज्ञापन भ्रामक हैं.
पिछले साल द लैंसेट में पब्लिक हेल्थ एक्सपर्ट्स के एक विश्लेषण से पता चला कि हमारी नीतियां नुकसानदेह खाद्य उत्पादों के विज्ञापन को प्रतिबंधित करने में असमर्थ हैं. जबकि एफएसएस अधिनियम 2006 और उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 2019, दोनों ही 'भ्रामक विज्ञापनों' पर पाबंदी लगाते हैं.
इस स्टडी में कहा गया कि बच्चों को एचएफएसएस फूड मार्केटिंग से बचाने के लिए एक मजबूत रेगुलेटरी ढांचे की आवश्यकता है.
सामान्य गैर-संचारी रोगों की रोकथाम और नियंत्रण के लिए भारत की अपनी राष्ट्रीय बहु-क्षेत्रीय कार्य योजना (2017-2022) से पता चलता है कि इन दोनों नीतियों, प्रतिबंध और चेतावनी वाले लेबल, के लिए मंजूरी और सहमति है.
हमें निगरानी के लिए एक मजबूत प्रणाली की आवश्यकता है जो गुणवत्ता की जांच करे और हानिकारक पदार्थों की सीमा पार करने वाले उत्पादों को रीकॉल करे.
फिर इसमें देरी क्यों हो रही है? भारत सरकार से हमारा सवाल है.
सरकार या रेगुलेटर्स को खाद्य उद्योग के साथ साझेदारी करने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि इसका हल यह है कि विभिन्न नियमों को लागू करने के लिए उनके साथ साफ-साफ "बातचीत" की जाए. इस बात का कोई तर्क या वैज्ञानिक स्पष्टीकरण नहीं कि रेगुलेशंस बनाते वक्त नीति निर्धारकों के साथ एक ही मेज पर खाद्य उद्योग के लोगों को भी बैठाया जाए.
भारत इजरायल से सबक लेना चाहिए, जिसने एक स्वतंत्र वैज्ञानिक समिति की मदद से पॉजिटिव फ्रंट-ऑफ-पैकेज लेबलिंग (एफओपीएल) के मानदंड बनाए हैं.
या फिर भारत को एक व्यापक कानूनी ढांचे पर विचार करना चाहिए, जैसा कि अमेरिका ने किया है. हाल ही में उसने एक विधेयक पेश किया है. इसके तहत चिंताजनक तत्वों वाले खाद्य और पेय पदार्थों पर चेतावनी वाले लेबल लगाए जाएंगे, साथ ही बच्चों के लिए जंक फूड के विज्ञापनों को भी प्रतिबंधित किया जाएगा.
एफएमसीजी कंपनियों के भ्रामक विज्ञापनों पर सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसला भी तत्काल कार्रवाई की जरूरत बताता है. अगर भारत अभी कार्रवाई नहीं करता है, तो शायद बहुत देर हो जाएगी.
(डॉ. अरुण गुप्ता एक बाल रोग विशेषज्ञ, ब्रेस्टफीडिंग प्रमोशन नेटवर्क ऑफ इंडिया (बीपीएनआई) के केंद्रीय समन्वयक, न्यूट्रिशन एडवोकेसी फॉर पब्लिक इंटरेस्ट (एनएपीआई) के संयोजक और भारत की पोषण चुनौतियों पर प्रधानमंत्री परिषद के पूर्व सदस्य हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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