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ओमिक्रॉन पर भारत की पहल- बहुत कम और बहुत लेट, दूसरी लहर से हमने कुछ नहीं सीखा

वेल्लोर के दो विशेषज्ञ बता रहे हैं कि कैसे Omicron इस बात के लिए बदनाम है कि वह इम्युनिटी को धोखा देना जानता है.

टी जैकब जॉन & एम एस शेषाद्रि
नजरिया
Updated:
<div class="paragraphs"><p>ओमिक्रॉन पर भारत की पहल- बहुत कम और बहुत लेट, दूसरी लहर से हमने कुछ नहीं सीखा</p></div>
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ओमिक्रॉन पर भारत की पहल- बहुत कम और बहुत लेट, दूसरी लहर से हमने कुछ नहीं सीखा

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सार्स-कोवि-2 (covid 19) बार-बार अचंभित कर रहा है. वैज्ञानिक और सरकारें हक्का बक्का हैं. वैज्ञानिक नहीं जानते कि वायरस आगे कैसा व्यवहार करेगा. वह म्यूटेट हो रहा है और कोई चेतावनी दिए बिना वेरिएंट्स प्रोड्यूस कर रहा है. सरकारें फिर-फिर दुविधा की शिकार हैं- सामाजिक पाबंदियां, जैसे कड़े लॉकडाउन लगा रही हैं ताकि वायरस की रफ्तार को धीमा किया जा सके. महामारी की टेढ़ी रेखा को समतल करना है ताकि जिंदगियां दांव पर न लगें- अर्थव्यवस्था को गंभीर नुकसान न हो.

एक वेरिएंट की टेढ़ी, घुमावदार रेखा सपाट होती है, तब तक ‘नया चिंताजनक वेरिएंट’ (‘new variant of concern’) दूसरी लहर पैदा कर देता है. कई विकसित देशों में जहां सामाजिक पाबंदियां ज्यादा लगाई गईं, वहां भी महामारी की चार से पांच लहरें आ चुकी हैं.

भारत ने अब तो दो बड़ी लहरों का सामना किया है. पहला ओरिजिनल वायरस का वेरिएंट था, और दूसरा डेल्टा वेरिएंट जोकि तब आया था, जब भारत में पहली लहर का उतार हो रहा था.

हमारी लहर का पैटर्न भी दुनिया भर में अनोखा है. केरल इसमें अपवाद है जहां वक्र रेखा समतल हुई और विकसित देशों की तरह वहां महामारी की चार लहरें आईं.

डेल्टा के अनुभव

सभी ने डेल्टा वेरिएंट के खतरे को कम करके आंका, जब तक वह विशाल लहर नहीं बन गया- वह चार गुना तेजी से फैलता है और पहली लहर के मुकाबले वह दोगुने मामलों का कारण बना. इसके तेजी से फैलने की वजह डेल्टा का हायर बेसिक रीप्रोडक्शन नंबर (Ro) था.

यह पहले के इंफेक्शन की कमजोर होती इम्युनिटी को चकमा दे सकता है जिससे दोबारा संक्रमण हो सकता है. फिर ट्रांसमिशन चेन जारी रहती- इंफेक्शन का इंट्रा-फैमिली सैचुरेशन होता था. ब्रेकथ्रू इंफेक्शन (जिन्होंने वैक्सीन की दो डोज ली हैं) बहुत आम थे.

इसके बावजूद कि लगभग सभी विकसित देशों में अलग-अलग वैक्सीन उपलब्ध थीं, डेल्टा ने उन सभी जगहों पर वैक्सीन से मिली इम्युनिटी को मात दे दी. ऐसा नहीं था कि डेल्टा ने हर सभी की इम्युनिटी को तोड़ा हो.

जिन लोगों में वायरस को निष्क्रिय करने वाली एंटीबॉडी ज्यादा थी, वे लोग बेहतर सुरक्षित थे. लेकिन यह सुरक्षा भी सबमे समान नहीं थी. इसने गंभीर बीमारियों को तो रोका लेकिन मामूली बीमारियां, या बिना लक्षण वाली बीमारियों को नहीं रोक पाईं. कई मामलों में ‘ब्रेकथ्रू’ इंफेक्शन तो हुआ ही.

ओमिक्रॉन वेरिएंट, डेल्टा से भी तेजी से फैलता है- उसका Ro डेल्टा से बहुत ज्यादा है और वह इम्युनिटी को धता बताने में ज्यादा माहिर है. वह डेल्टा के मुकाबले ज्यादा बार री-इंफेक्शन और ब्रेकथ्रू इंफेक्शन का कारण बनता है. तो क्या, ओमिक्रॉन भारत में फिर से महामारी की लहर लाएगा? इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है. हमारा अनुमान है कि ऐसा नहीं होगा, लेकिन अगर ऐसा होता है तो भारत फिर से बुरी तरह प्रभावित होगा. इस पर विस्तार से चर्चा करने की जरूरत नहीं है क्योंकि डेल्टा के कारण हुई मौतों की यादें अभी भी हमारे जेहन में जिंदा हैं.

अगर हम यह मान लें कि यह तीसरी लहर की वजह बनेगा, और हम वैक्सीन्स के साथ अपनी इम्युनिटी को मजबूत करते हैं, तो लहर को सबसे अच्छे से रोका जा सकता है, या कम से कम उसे चपटा किया जा सकता है.

लेकिन जब बाढ़ का खतरा होता है, तो क्या आप पहले से ही रेत की बोरियों को एक के ऊपर एक लगाना शुरू कर देते हैं, या तब तक इंतजार करते हैं जब बाढ़ आने का सबूत न मिल जाए.

हम काफी वक्त बर्बाद कर चुके हैं

हम ओमिक्रॉन के बारे में कुछ महीने से ही जानते हैं. अब तक यह पिछले वायरस वेरिएंट्स की तुलना में कम खतरनाक लगता है. ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि बहुत से लोग संक्रमण से पहले ही एक्सपोज हो चुके हैं और पिछले वेरिएंट्स से आंशिक रूप से इम्यून हो चुके हैं. बड़ी संख्या में लोगों ने वैक्सीन की एक या दो डोज ले ली हैं. हर कोई इस बात को मानता है कि संक्रमण में भारी वृद्धि होगी, लेकिन उनमें से अधिकतर नजर नहीं आएंगे. जहां तक हम उम्मीद कर सकते हैं, बीमारी के प्रकोप की एक बड़ी लहर की आशंका नहीं है. बीमारी की लहर की उम्मीद की जा सकती है सिर्फ उसके असर का अनुमान लगाना मुश्किल है और वह काफी कम हो सकता है. लेकिन अफसोस करने से बेहतर है, सुरक्षित रहा जाए.

हम जानते हैं कि 18 साल से कम के लोगों को नीतिगत वजहों से वैक्सीन नहीं लगी हैं और बच्चों और वैक्सीन की कमी की वजह से ओमिक्रॉन उनके बीच तेजी से फैल सकता है.

ओमिक्रॉन पहले के वेरिएंट्स की तुलना में युवाओं को ज्यादा प्रभावित करता है जिससे रिजवॉयर इफेक्ट पैदा होता है और पूरी आबादी में सामुदायिक संक्रमण हो सकता है.

अगर बीमारी की फ्रीक्वेंसी कम है तो भी संक्रमण की व्यापकता तुलनात्मक रूप से कम समय में बड़ी संख्या में बीमारियां पैदा कर सकती है और इससे हमारी कमजोर और थकी हुई स्वास्थ्य प्रणाली प्रभावित हो सकती है.

बुजुर्ग, दूसरी बीमारियों और थेरेपी लेने वाले लोग जिनका इम्युनिटी लेवल कम है, जिन्हें गंभीर रोग हैं, गर्भवती महिलाएं-इन सबको महामारी का प्रकोप झेलना पड़ सकता है. हमने पूरे एक महीने कोई फैसला नहीं किया, कोई कार्रवाई नहीं की- और पूरा समय गंवा दिया.

पिछली दो लहरों से हमने कुछ नहीं सीखा

पहली लहर मार्च 2020 के बीच से शुरू हुई थी. 16 सितंबर को 97,859 मामलों के साथ चरम पर पहुंची थी और फिर 8 फरवरी 2021 को 8,947 मामलों से उसमें गिरावट आई थी. 24 मार्च 2020 को घोषित लॉकडाउन का मामलों की संख्या पर बहुत कम असर पड़ा, क्योंकि वे 46 गुना बढ़ गए.

एक महीने पहले मामले 536 थे और 24 अप्रैल को 24,447 पर पहुंच गए. तो मामलों में बढ़ोतरी और गिरावट की प्रवृत्ति से पता चलता है कि बढ़ोतरी को किसी तरह की पहल से रोका नहीं जा सकता. इलाज क्या किया गया- लॉकडउन समय से पहले था. यानी वह तब लगाया गया, जब संक्रमण ने रफ्तार नहीं पकड़ी थी.

जब संक्रमण तेज हुआ तो लॉकडाउन का कवच तार-तार हो गया. जब प्रवासी मजदूर अपने-अपने गांव लौटे तो अपने साथ वायरस भी ले गए. संक्रमण एक राज्य से दूसरे राज्य में पहुंचा. दूरदराज के गांवों में भी. वहां हमारे पास तब कोई वैक्सीन नहीं थी.

वैज्ञानिकों और इंडस्ट्री ने सफलतापूर्वक वैक्सीन बनाए थे; 3 जनवरी 2021 को इमरजेंसी यूज की मंजूरी की घोषणा की गई. मार्च में दूसरी लहर ने हमें बेदम किया, लेकिन हम इसे वैक्सीनेशन से कम करने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं थे- वैक्सीन स्टॉक नहीं बनाया गया था, व्यवस्थित और तेजी से वैक्सीनेशन की योजना तैयार नहीं की गई थी. लहर 6 मई को 4,14,433 मामलों के साथ चरम पर पहुंच गई और जुलाई के दूसरे सप्ताह तक घटकर 42,000 से नीचे आ गई. तब से दैनिक मामलों की संख्या में लगातार गिरावट जारी है, जो कि एंडेमिक चरण है और वह लगभग पांच महीने से जारी है.

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फिलहाल 85% से ज्यादा वयस्कों ने अपनी पहली डोज ले ली है, 55% की दोनों डोज पूरी हो चुकी हैं. इसके अलावा लगभग 85% लोगों को पहले संक्रमण हो चुका है (दूसरी लहर के बाद के डेटा के अनुसार, जिसका समर्थन चौथी सेरोप्रवलेंस स्टडी भी करती है) जोकि इम्युनिटी की मजबूत दीवार का हवाला देता है. लेकिन ओमिक्रॉन इस बात के लिए बदनाम है कि वह इम्युनिटी को धोखा देना जानता है.

भारत में सबसे ज्यादा जिस वैक्सीन का इस्तेमाल किया गया (एस्ट्राजेनेका-कोविशील्ड), उसके लिए यह पाया गया है कि वह दूसरी डोज के सिर्फ तीन महीने बाद तक गंभीर बीमारी और मौत के खिलाफ इम्युनिटी देती है.

बूस्टर का मामला

नवंबर 2021 में हमारे पास पर्याप्त टीके थे और संभावित तीसरी लहर की स्पष्ट चेतावनी थी. फिर भी हम इसकी आशंका को नकार रहे थे, और जोखिम कम करने की कोई खास कोशिश नहीं कर रहे थे.

लहर हो या न हो, हमें कमजोर लोगों को सुरक्षित रखने और संक्रमण को तेजी से फैलने से रोकना चाहिए. इसके लिए इम्युनिटी की मजबूत दीवार खड़ी करनी चाहिए.

यूके की हेल्थ सिक्योरिटी एजेंसी की एक हालिया तकनीकी रिपोर्ट ने कहा गया है कि बूस्टर डोज लगाने से ओमिक्रॉन का खतरा कम होता है- उससे हल्की या मध्यम स्तर की बीमारी होती है. वह गंभीर बीमारी, अस्पताल में भर्ती होने और मौत की आशंका को कितना कम करता है, इसे मापना अभी बाकी है.

हम उम्मीद करते हैं कि वह ज्यादा सुरक्षा देगी. यह जानते हुए कि इम्युनिटी का उच्च स्तर बेहतर सुरक्षा देता है, इसलिए बहुत से विकसित देशों ने बूस्टर डोज शुरू कर दी है. तकनीकी लिहाज से देखें तो पिछली डोज के छह महीने या उससे ज्यादा समय बाद बूस्टर डोज दी जाती है.

यूके की रिपोर्ट ने चेतावनी दी थी कि यह इम्युनिटी भी ओमिक्रॉन के खिलाफ चार महीने से ज्यादा नहीं रह सकती. इजराइल बूस्टर डोज में सबसे आगे है. उसने अपने हेल्थ वर्कर्स के लिए दो डोज वाले बूस्टर के असर पर अध्ययन करना शुरू कर दिया है. वह स्कूलों को खुला रखने और बच्चों से घर के सदस्यों में संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए पांच साल से अधिक उम्र के बच्चों का वैक्सीनेशन भी कर रहा है.

पर वैक्सीन पर सभी को भरोसा नहीं

फिर भी वैक्सीन को लेकर जो भगदड़ है, उससे विशेषज्ञों और जनता में काफी चिंता पैदा हो रही है. विशेषज्ञों को संदेह है और जनता में झिझक. निष्पक्ष तरीके से सोचें तो इससे पहले ऐसे हालात कभी आए ही नहीं. इससे पहले कभी इतने बड़े पैमाने पर वैक्सीन्स की जरूरत पड़ी ही नहीं. बेशक, सुरक्षा का मसला अहम है लेकिन बहुत से लोगों को लगता है कि उनसे बहुत कुछ छिपाया जा रहा है. यूनिवर्सल हेल्थकेयर के बिना, इस डर ने लोगों पर बहुत ज्यादा मनोवैज्ञानिक बोझ डाला है. प्रोटीन सबयूनिट या निष्क्रिय वायरस जैसे पारंपरिक तरीकों से बनी वैक्सीन्स बहुत महफूज महसूस होती हैं.

जिन देशों में गंभीर प्रतिकूल प्रभावों को मॉनिटर या मैनेज करने की व्यवस्था नहीं है या यह सभी लोगों को उपलब्ध नहीं है, वहां लोग सुरक्षा के हकदार हैं. इसलिए रक्षा के अंतिम हथियार, वैक्सीन्स ने सभी का भरोसा नहीं जीता है.

नीति निर्धारकों को यह भ्रम था कि न्यूनतम इम्युनिटी वाली दो प्राइमिंग डोज लगाकर, ‘वैक्सीनेशन पूरा हुआ’. लेकिन कोई भी पीडियाट्रीशियन बता सकता है कि 'नॉन-रेप्लिकेटिंग' वैक्सीन्स की दो डोज देने से सुरक्षा की सिर्फ एक झीनी सी परत ही मिलती है (जिसे तकनकी भाषा में प्राइमिंग कहते हैं) यानी कुछ समय की न्यूनतम इम्युनिटी मिलती है. इस तरह बीमारी को कुछ समय तक रोका जा सकता है. इम्युटी अच्छी हो, इसके लिए प्राइमिंग डोजेज के साथ कम से कम एक बूस्टर देना पड़ता है.

भारत मानो एक नींद से जागा है. दो दिन पहले यह घोषणा की गई है कि हेल्थकेयर-फ्रंटलाइन वर्कर्स, और 60 साल से ज्यादा उम्र वाले, जिन्हें कोई जोखिमपरक बीमारी है, उन्हें तीसरी डोज दी जाएगी. रेगुलेटरी एजेंसी ने बच्चों के लिए मंजूर वैक्सीन्स 15 से 18 साल के के किशोरों के लिए रोलआउट के लिए तैयार है. ये सही दिशा में, लेकिन ओमिक्रॉन की लहर को देखते हुए बहुत देर से उठाए गए कदम हैं.

फोकस करने की जरूरत

विकसित देश, यहां तक कि जिन देशों में प्राथमिक और द्वितीय स्तर की यूनिवर्सल हेल्थकेयर मौजूद है, वे भी डेटा कलेक्शन, विश्लेषण और उनकी व्याख्या के लिए अपने हेल्थ प्रोटेक्शन या हेल्थ सिक्योरिटी इंफ्रास्ट्रक्चर पर निर्भर रहते हैं ताकि आम लोगों को स्वास्थ्य नीतियों के बारे में बताया जा सके. ये एजेंसियां सबसे अच्छी तरह से बीमारी की जानकारियां और वैक्सीन के महत्व के बारे में लोगों को शिक्षित करती हैं. लेकिन भारत के पास ऐसा इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं है.

हम उम्मीद करते हैं कि सरकार को भारत की स्वास्थ्य प्रबंधन प्रणाली की इस कमी का एहसास होगा. क्योंकि इसी कमी के चलते महामारी से लोगों को बचाने की जिम्मेदारी राष्ट्रीय महामारी प्रबंधन एजेंसी को सौंपनी पड़ी.

(डॉ टी जैकब जॉन, क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज, वेल्लोर के क्लिनिकल वायरोलॉजी के पूर्व प्रोफेसर हैं. डॉ एमएस शेषाद्री एंडोक्रिनोलॉजी, सीएमसी, वेल्लोर के पूर्व प्रोफेसर हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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Published: 01 Jan 2022,08:45 AM IST

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