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ऐसा मैंने पिछले हफ्ते लिखा था. और ये भी लिखा था कि 1953 में नेहरू जी ने पब्लिक सेक्टर को मैनेज करने के लिए एक सर्विस बनाई थी. उसका नाम इंडस्ट्रियल मैनेजमेंट पूल था. इस सर्विस को आईएएस वालों ने पनपने नहीं दिया और धीरे से इसमें रिक्रूटमेंट बंद हो गई. लेकिन आइडिया जबरदस्त था.
खैर, जो हुआ, हुआ. अब सवाल ये है कि अगर पब्लिक सेक्टर को मैनेज करने के लिए एक सर्विस बन सकती थी, तो पाॅलिसी बनाने और मैनेज करने के लिए क्यों नहीं बन सकती?
ये सर्विस मौजूदा कायनात के एक बहुत बड़े नुक्स को खत्म कर देगी. नुक्स है लैक आॅफ स्पेशलाइजेशन.
एक आईएएस आॅफिसर कभी कृषि की पाॅलिसी बनाता है और मैनेज करता है, तो कभी एविएशन की, कभी होम मिनिस्ट्री संभालता है, तो कभी पेट्रोलियम, कभी टेक्सटाइल्स, तो कभी एजुकेशन. पर अब तो कम से कम 30 बरस हो गए हैं, जब से इन हरफनमौलाओं का जमाना बीत गया. अब जरूरत है स्पेशलाइजेशन की, जो आज के सिस्टम में संभव ही नहीं है.
पर ये परिवर्तन भी असली समस्या है, जो लैक ऑफ डोमेन नॅालेज का हल नहीं है. उसके लिए डेडिकेटेड ऑफिसर्स की जरूरत है, जैसे बाकी सेंट्रल सर्विसज में मिलते हैं.
और बस यहीं पर वो ऑल इंडिया सर्विस वाली बात बार-बार उठ खड़ी होती है. वो तो एक होली काऊ बन गई है.
क्या है ये ऑल इंडिया सर्विस, जब आईएएस ऑफिसर्स की सर्विस राज्यों की होती है और केन्द्र में वो सिर्फ डेप्युटेशन पर आते हैं? मैंने ये सवाल कई बार किया है अपने दोस्तों और रिश्तेदारों से.
अंत में बात उन तीन लेटर्स पर आ जाती है – आईएएस. निष्कर्ष ये निकलता है कि आईएएस पर लोग जो भरोसा रखते हैं, वो बाकी सर्विसेज पर नहीं रखते. पहले तो ये बात सच नहीं है. दूसरी, बहुत इनसल्टिंग है.
कुछ ऑफिसर्स ये भी कहते हैं कि इंडिया एक अकेला देश है, जहां फेडरल स्ट्रक्चर होने के बावजूद, एक ऑल इंडिया सर्विस है. मेरी राय में ये तो एक त्रुटि है, उपलब्धि नहीं. मोटी बात तो ये है कि आज की तारीख में आईएएस, ऑफिसर को स्टेटस देता है, देश को कोई खास काबिलियत नहीं. पिछले 70 साल में हम ये बात भूल गए हैं.
यही वजह है कि हमें अब इस बात पर फिर से गंभीरता से गौर करना पड़ेगा. आईएएस को नेताओं से बचा कर देश की सेवा में लगाना होगा.
बाकी देशों में हर पांच साल के बाद छंटाई होती है, जिसके फलस्वरूप घोड़ों और खच्चरों को अलग-अलग कर दिया जाता है. इसी बारे में मेरे पिताजी, जिनकी सीनियरिटी 1946 की थी, ने एक बार कहा कि आईएएस की सबसे बड़ी खूबी ये है कि वो रेस के घोड़ों को गधे बना देती है. मैंने पूछा था कि उल्टा भी तो होता है कि गधों को रेस का घोड़ा बना देती है.
जब भी मैं ये सब कहता हूं, तो जवाब आता हैं ग्रेप्स आर साॅर -अंगूर खट्टे हैं. खट्टे हों या मीठे, इक्कीसवीं सदी में ये कैसे चल सकता है कि बस एक एग्जाम के बूते पर आपकी कोई इवैलुएशन न हो और निकम्मों को अलग किया जाए?
इसकी शुरुआत तभी हो सकती है, जब पहले से ही काबिलियत को पहचाना जाए और पॉलिसी मेकिंग और मैनेजमेंट के लिए श्रेष्ठ ऑफिसर्स को पहले से ही चुना जाए. इसके बारे में अगले हफ्ते विस्तार से लिखूंगा.
(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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