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विराट कोहली की वन मैन आर्मी इंग्लैंड में ‘सरेंडर’ करने को तैयार

इंग्लैंड में खेलने से पहले तैयारी कैसे करनी चाहिए, ये टीम इंडिया पाकिस्तान से सीखे

चंद्रेश नारायण
नजरिया
Published:
विराट कोहली की टीम इंडिया का इंग्लैंड में बेहद खराब प्रदर्शन
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विराट कोहली की टीम इंडिया का इंग्लैंड में बेहद खराब प्रदर्शन
(फोटो: AP )

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इंग्लैंड में भारतीय क्रिकेट टीम का एक और टेस्ट सीरीज में दु:स्वप्न शुरू हो गया है. इस देश में (इंग्लैंड में) लगातार तीसरी सीरीज में टीम इंडिया की ऐसी हालत हो रही है. भारत के लिहाज से ये बुरी कहानी शुरू हुई 2011 में, जब वनडे विश्व चैंपियन टीम धोनी की अगुवाई में टेस्ट सीरीज खेलने इंग्लैंड पहुंची. तब भारतीय टीम एक बिखरी हुई टीम की शक्ल में नजर आई थी और सीरीज में बुरी तरह से हार गई. कई करियर असमय खत्म हो गए और आत्मसम्मान को भारी चोट पहुंची.

इसके तीन साल बाद 2014 में भारतीय टीम ने चौंकाने वाले अंदाज में शुरुआत की. सीरीज में दूसरा मैच जीतकर 1-0 की बढ़त बनाई लेकिन तब लॉर्ड्स के मैदान पर जीत के हीरो ईशांत शर्मा चोटिल हो गए और चीजें बुरी तरह से भारत के खिलाफ होती चली गईं. इसके बाद लगातार तीन टेस्ट में भारतीय बल्लेबाजी धराशाई होती रही और हमने 3-1 से सीरीज इंग्लैंड के हवाले कर दी.

2018 में भारतीय टीम एक बार फिर नंबर वन टेस्ट टीम के तमगे के साथ इंग्लैंड पहुंची. दुनिया की नजर हम पर थी और वो बाहर न जीत पाने के लिए हमारा मखौल उड़ाने के लिए भी तैयार बैठे थे. और भारत ने एक बार फिर उन्हें इसका मौका भी दे दिया है, इस बार भी अभी तक सरेंडर वाली स्थिति है.

सोशल मीडिया पर दुनिया भर से आने वाली प्रतिक्रियाएं इस बात का सबसे अच्छा इंडिकेटर (संकेतक) है कि विराट कोहली की कप्तानी वाली भारतीय टीम और उसके खिलाड़ियों को दुनिया किस हद तक नापसंद करती है. हालांकि ऐसे कमेंट पर रिएक्ट करना आसान है, लेकिन ये ज्यादा महत्वपूर्ण है कि अपने अंदर झांका जाए और समझा जाए कि भारतीय क्रिकेट में कहां गलती हो रही है?

2011 की सीरीज में स्टुअर्ट ब्रॉड और जेम्स एंडरसन ने टीम इंडिया की हालत खराब कर दी थी और भारत 4-0 से सीरीज हार गया था(फोटो: Reuters)

खास बात ये है कि 2011 से अब तक इंग्लिश टीम में लगातार उन्हीं सारे गेंदबाजों ने आक्रमण की अगुवाई संभाल रखी है. फिर भी हमारी नाकामी दिखाती है कि हमें जो टास्क मिला है उसकी तैयारी और जानकारी कितनी कमजोर है. गेंदबाजों का एक तय समूह एक सीरीज में किसी टीम पर दबदबा बना सकता है, न कि तीन लगातार सीरीज में और वो भी दो अलग-अलग पीढ़ी के बल्लेबाजों पर. स्टुअर्ट ब्रॉड और जेम्स एंडरसन 2011 में भारत के खिलाफ सीरीज में विकेट लेने वाले दो टॉप गेंदबाज थे और इस सीरीज में ये दोनों अब तक यही काम कर रहे हैं.

भारत के इस इंग्लैंड टूर की एक साल पहले घोषणा हो गई थी. सबको यहां तक पता था कि टेस्ट सीरीज से पहले इंडिया-ए की टीम की एक पूरी सीरीज है लेकिन फिर भी कोई दिखने योग्य तैयारी नहीं थी.

आईपीएल में किसी भी टीम से मौका नहीं मिलने के बाद ईशांत शर्मा और चेतेश्वर पुजारा काउंटी क्रिकेट में खेल रहे थे. उद्देश्य सीरीज से पहले वहां के माहौल में खुद को ढालने का था. लेकिन इन दोनों के अलावा टेस्ट के बाकी खिलाड़ियों को तैयारियों के लिए एडवांस में इंग्लैंड नहीं भेजा गया.

मुरली विजय, अजिंक्य रहाणे, रविचंद्रन अश्विन, मोहम्मद शमी और रवींद्र जडेजा को तैयारियों में खास दिलचस्पी नहीं थी. इन टेस्ट विशेषज्ञों में से विजय और रहाणे ने इंडिया-ए बनाम इंग्लैंड लॉयंस सीरीज का फाइनल मैच खेला. इंडिया-ए ने तीन फर्स्ट क्लास मैच खेले-अच्छे मैच थे, लेकिन किसी भी टेस्ट खिलाड़ी ने इसमें खेलने में दिलचस्पी नहीं दिखाई.

In the 14 days between the ODI and Test series, India chose to play just one warm-up game which also they got truncated to a three-day fixture.(फोटो: AP)  

इसके बाद पहले टेस्ट से पहले एसेक्स के खिलाफ मैच में अजीब स्थिति देखने को मिली. 2011 के बाद से इंग्लैंड के साथ सीरीज से पहले अभ्यास मैच की कोई अहमियत नहीं रह गई है. इससे टेस्ट क्रिकेट में घटता भरोसा भी जाहिर होता है.

2010-11 को याद करें तो टीम इंडिया के साउथ अफ्रीका दौरे से पहले गैरी कर्स्टन ने बड़ी सूझबूझ दिखाई थी. तब टीम इंडिया के मुख्य कोच कर्स्टन टेस्ट के विशेषज्ञों को लेकर बहुत पहले ही साउथ अफ्रीका चले गए थे, जिससे कि मुकाबले के लिए तैयारियां की जाएं.

सच तो ये है कि 2011 में विश्व कप में जीत के बाद से श्रीलंका ओर वेस्टइंडीज को छोड़कर बाकी विदेशी दौरों को लेकर भारत की कोशिश कमजोर ही रही है. जब टेस्ट टीम चुनने की बात आती है तो क्रिकेट के इस प्रारूप में खिलाड़ियों की तैयारियां और फॉर्म सोच पर पर्दा डाल देती है. इसके नतीजे में असमंजस और ढेर सारी असुरक्षा की भावना उभरती है.

सीरीज से पहले एक फर्जी जीत का उन्माद होता है. इसी साल की शुरुआत में अपने साउथ अफ्रीका दौरे पर भारतीय टीम ने जोहान्सबर्ग टेस्ट और एकदिवसीय सीरीज जीतकर किसी तरह से अपनी इज्जत बचाई. तब हमने भरोसा दिया था कि इंग्लैंड को लेकर हमारी तैयारियां अलग और अच्छी होंगी. हमारे पास तैयारियों के लिए पूरा समय भी था, एकदिवसीय मैचों ने हमें इंग्लिश कंडीशन से तालमेल बैठाने का समय भी दिया था. पर हमें ये समझना होगा कि टेस्ट की बल्लेबाजी एकदिवसीय और टी20 के मुकाबले अलग होती है.

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अगर आप तैयारी करने में असफल हो जाते हैं, तो आपको मैचों में असफल होने के लिए भी तैयार रहना चाहिए.

पाकिस्तान के उदाहरण को ही लें तो उनके मेहनती कोच मिकी आर्थर ने पाकिस्तानी टीम के टेस्ट रिकॉर्ड को अच्छा करने की ठानी और अपने हक में चीजों को पलटा. इस कारण इंग्लैंड के खिलाफ दो टेस्ट की सीरीज के पहले पाकिस्तान ने तीन फर्स्ट क्लास मैच खेले. इस वजह से उनकी तैयारी अच्छी हो गई और वो सीरीज को 1-1 से बराबर कर पाए. 2016 में भी वे चार टेस्ट की श्रृंखला 2-2 से बराबर करने में कामयाब रहे थे, तब भी उनकी बढ़िया तैयारी ही इसकी वजह थी.

ऑस्ट्रेलिया अगले साल होने वाली एशेज सीरीज के लिए इंग्लैंड से ड्यूक गेंदें मंगाकर घरेलू शेफील्ड शील्ड क्रिकेट में तैयारी कर रहा है. इसी तरह भारत ने इंडिया-ए की टीम का कार्यक्रम बनाकर अपने आपको एक अच्छा मौका दिया था लेकिन भारतीय टीम उस मौके को भुनाने में नाकाम रही.
भारत के ड्रेसिंग रूम में कुछ कड़े फैसले लेने की जरूरत है, जिसमे कोच रवि शास्त्री को अहम भूमिका निभानी होगी।(फोटो: AP)  

इन सबसे एक ही चीज पर ध्यान जाता है कि टीम में उस व्यक्ति की कमी है, जो दिए गए टास्क को पूरा करने के लिए पूरी तरह से तैयारी करवाए. कोई ऐसा मुख्य कोच जो कि बहुत ही सख्त हो, ड्रेसिंग रूम के नट-बोल्ट कसने वाला इंसान चाहिए. मौजूदा हेड कोच रवि शास्री सिर्फ बड़े-बड़े बयान देकर खुश हो लेते हैं, ये सुनने में बहुत अच्छा लगता है लेकिन असलियत ये है कि उनके कोच की भूमिका वाली टीम का टेस्ट इलेवन ‘वन मैन बैटिंग यूनिट’ बनकर रह गया है.

मैदान पर बाकी बल्लेबाज अनिश्चित, भ्रमित और खोये हुए से नजर आते हैं. उदाहरण के लिए लॉर्ड्स में तो ऐसा लग रहा था कि हर बल्लेबाज अगली ही गेंद पर आउट हो जाएगा. इस स्थिति को देखकर ऐसा लगता है कि शायद ही भारतीय टीम पहली रैंकिंग की टीम है. इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है कि एक क्रिकेटिंग नेशन होते हुए ये हमारे लिए शर्म की बात है.

हम अगले साल विश्व कप जीतने के मुगालते में हैं परंतु इससे बड़ी चिंता की बात ये है कि 2011 में विश्व कप में मिली जीत के बाद टेस्ट क्रिकेट में भारतीय उपमहाद्वीप और वेस्टइंडीज के बाहर हमारा बेहद खराब प्रदर्शन है.

यह एक चिंता की बात है कि हम अपने आखिरी ग्यारह टेस्ट में से इंग्लैंड में सिर्फ एक ही मैच जीत पाए जबकि एक मैच ड्रॉ करा सके. सन 2000 के बाद आई स्वर्णिम पीढ़ी ने भारत का विदेशी पिचों पर प्रदर्शन सुधारने के लिए जितने भी सफल प्रयास किए और टीम को लेकर जो सोच बदली, उन्हें मौजूदा दशक में आई टीम ने मिटा दिया.

अब ऐसा लगता है कि टेस्ट मैचों में विदेशी पिचों पर प्रदर्शन के लिहाज से मौजूदा दशक कुछ उसी तरह से खत्म होगा जैसा कि नब्बे का दशक था. नब्बे का दशक भारतीय टीम के लिए निराशाजनक था लेकिन इसके कारण सिर्फ क्रिकेट से जुड़े हुए नहीं थे. लेकिन मौजूदा अवस्था ज्यादा खराब है. हमें हर हाल में याद रखना होगा कि इसी साल के आखिर में ऑस्ट्रेलिया में भी सीरीज होनी है. वहां भी चार टेस्ट मैचों की सीरीज से पहले कोई वॉर्म-अप मैच नहीं है.

इंग्लैंड की टीम ने 2010-11 में जब ऑस्ट्रेलिया में एशेज सीरीज जीती थी, तो इंग्लिश टीम ने करीब तीन हफ्ते वहां जाकर तैयारियों में गुजारे थे. अगर भारतीय टीम फिट और अच्छे प्रदर्शन के लिए तैयार मिचेल स्टार्क, जोश हेजलवुड और पैट कमिंस का सामना ऐसी ही लचर तैयारियों के साथ करना चाहती है, तो एक और त्रासदी के लिए हमें तैयार रहना चाहिए. सही है कि अभी भी हमें ऑस्ट्रेलिया में एक टेस्ट सीरीज जीतना बाकी है, लेकिन स्टीव स्मिथ और डेविड वॉर्नर की गैरमौजूदगी की वजह से वहां हमारे लिए मौके काफी अच्छे हो सकते हैं.

लेकिन बड़ा सवाल है कि विश्व कप वाले साल में टेस्ट मैचों की कद्र करता ही कौन है?

इन सबसे पहले मौजूदा सीरीज में ही तीन टेस्ट मैच बाकी हैं लेकिन जो बेंच पर बैठे हैं उनके पास खुद को आंकने का कोई मौका नहीं है. क्यों? क्योंकि टीम के थिंक टैंक की कुछ ऐसी ही सोच है. इस सब बिन्दुओं का शायद और शायद सिर्फ ये मतलब है कि 2011 के विश्व कप फाइनल में, उस रात मुंबई में धोनी के उस छक्के ने देश से बाहर टेस्ट क्रिकेट में जीत से हमारे प्यार को हमेशा के लिए खत्म कर दिया.

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