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पाकिस्तान में एयर स्ट्राइक: क्या मोदी ने आधी चुनावी जंग जीत ली है?

भारतीय जनता पार्टी के लिए वो कौन सा मुद्दा हो सकता है जो पूरे देश में जनता को उसके पक्ष में प्रेरित कर सके?

नीलांजन मुखोपाध्याय
नजरिया
Published:
(फोटो: श्रुति‍ माथुर/ द क्विंट)
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(फोटो: श्रुति‍ माथुर/ द क्विंट)

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सियोल शांति पुरस्कार को स्वीकार करते हुए अगले दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मशहूर कोरियाई लोकोक्ति ‘शिकागी भनीदा’ का जिक्र किया, जिसका मतलब होता है ‘अच्छी शुरुआत से ही आधी लड़ाई जीत ली जाती है’. हालांकि उन्होंने इसका जिक्र कोरियाई प्रायद्वीप में शांति प्रक्रिया के संदर्भ में किया था, लेकिन उनका सुरक्षा प्रतिष्ठान इसे बिल्कुल अलग अर्थ में उल्लेख कर रहा है.

मगर, सबसे महत्वपूर्ण ये है कि जैसे ही समूचे भारत में भारतीय वायुसेना की ओर से हमले की खबर फैली, मोदी के घरेलू प्रशंसकों ने भी इस विदेशी कहावत को दोहराना शुरू कर दिया होगा.

आतंकवाद और उसके समर्थक पाकिस्तानी शासक के खिलाफ युद्ध उनके लिए तत्काल महत्वपूर्ण हो सकता है या फिर थोड़े और लम्बे समय के लिए भी यह जरूरी हो. मगर सबसे महत्वपूर्ण है तत्काल चुनाव की लड़ाई, जो कुछ हफ्ते दूर हैं.

एयरफोर्स की कार्रवाई ने बढ़ाई मोदी के जीत की संभावनाएं

बमुश्किल दो हफ्ते पहले मोदी चुनावी विकेट पर कमजोर दिख रहे थे. आसन्न चुनावों पर चर्चा इस बात पर केन्द्रित थी कि भारतीय जनता पार्टी के लिए वो कौन सा मुद्दा हो सकता है, जो पूरे देश में जनता को उसके पक्ष में प्रेरित कर सके.

2014 में चुनाव दो मुद्दों पर लड़े गये थे- एक यूपीए के कार्यकाल के प्रति एंटी इनकम्बेन्सी और दूसरा आशा और आकांक्षा, जो नरेंद्र मोदी ने पैदा की थी. उसके मुकाबले 2019 में चुनावी मुद्दे कई हिस्सों में बंटे दिख रहे हैं- बेरोजगारी, किसानों में गुस्सा, वादों को पूरा नहीं करना और सबसे बढ़कर जातिगत गणित.

भारतीय वायुसेना की कार्रवाई, जिसे बहुत सावधानी से ‘असैन्य एहतियात कार्रवाई’ का नाम दिया गया और ‘जो जैश-ए-मोहम्मद के कैम्प पर खासतौर से लक्षित था’, इसने चुनावी परिदृश्य को बिल्कुल बदल दिया है.

इस घटना में भारत ने सफलतापूर्वक पाकिस्तान के धोखे को सामने रखा और ‘आत्मरक्षा के अधिकार’ के तहत ‘बदला लेने के अधिकार’ के साथ इस्लामाबाद से बातचीत के लिए भी वह आगे नहीं बढ़ा. चुनाव भी तय कार्यक्रम के अनुसार हो रहे हैं. इस चुनाव अभियान में मोदी इस दावे के साथ आगे रहने वाले हैं, “सौगंध मुझे है इस मिट्टी की. मैं देश नहीं मिटने दूंगा...”

इस अंदाज में यह सम्भव है कि चुनाव भावनात्मक आधार पर होंगे, जिसमें रोजी-रोटी और सामाजिक सुरक्षा जैसे मुद्दों पर चर्चा की शायद ही कोई सम्भावना रहेगी.

बीजेपी के प्रचार तंत्र की ओर से यह सब ‘एक के बाद एक उपलब्धि’ के तौर पर सामने लाया जाएगा.

'देशभक्ति' ओढ़ने का आखिरी चोला ही हो सकता है

हालांकि वर्तमान संदर्भ में ऐसा नहीं लगता कि सबकुछ देशभक्ति पर ही आ टिके, लेकिन 1775 में अंग्रेजी लेखक सैमुएल जॉनसन की लिखी गयी वह बात बहुत मशहूर है कि देशभक्ति में निश्चित रूप से यह क्षमता होती है कि वह दूसरी किसी भी भावना और मुद्दों के प्रभाव को कम कर देती है.

भारत समते दूसरे देश भी परम्परागत सोच और संतुलित राय की बदौलत अतीत में ऐसी परिस्थितियों से बाहर निकले हैं और मतदाताओं को भी इसी तरीके से उबारा गया है. अभी इस चरण में इस सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता.

चूकि 2014 के बाद से ऐसे समूह पूरे उत्साह के साथ सक्रिय हैं जो वैकल्पिक आवाज का झंडा बुलन्द करने वालों को बदनाम करते रहे हैं, यही समूह आगे भी बहुत ऊंचे मनोबल के साथ सक्रिय दिखने वाला है. इससे सरकार और मोदी की आलोचना करना मुश्किल हो जाएगा क्योंकि उन्हें इस बात का श्रेय दिया जाएगा कि कड़ी से कड़ी चुनौती का मुकाबला भी वे सामने से और डटकर करते हैं.

14 फरवरी के बाद से ही इसके प्रमाण देखे जा सकते हैं जब कई दिनों की खामोशी के बाद हमले वाले दिन फोटोशूट की तस्वीरों के साथ विपक्ष पहली बार आलोचना लेकर सामने आया था. अब मंगलवार को जैश-ए-मोहम्मद के शिविरों पर पेलोड गिराने के बाद विपक्ष के लिए सरकार की आलोचना और भी मुश्किल हो जाएगी.

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सभी भारतीयों पर दबाव है, कांग्रेस पर भी, सब मिलिट्री की वाहवाही कर रहे हैं

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की पहली सार्वजनिक प्रतिक्रिया एक ट्वीट थी, जिसमें उन्होंने भारतीय वायुसेना के पायलटों को सलाम किया. चिंता इसके बाद शुरू होती है. मोदी की बराबरी करने और पुलवामा से पहले वाले मोमेन्टम को हासिल करने में विपक्ष को अब संघर्ष करना होगा.

राष्ट्रवाद पर इतराने वाले लोगों की उम्मीदें परवान पर होंगी और जो लोग संयमित रहना चाहेंगे, उन्हें अगर निशाना नहीं भी बनाया गया, तो बोलने के लिए जरूर मजबूर किया जाएगा.

सार्वजनिक रूप से मोदी को इस रूप में प्रोजेक्ट किया जाएगा और सम्भावना है कि स्वीकार किया जाएगा कि केवल वही पाकिस्तान स्थित आतंकियों के खिलाफ सैन्य शक्ति का इस्तेमाल कर सकते हैं (यह न भूलें कि सार्वजनिक सोच यही है कि ये समूह पाकिस्तानी शासन के छद्मरूप हैं) क्योंकि कांग्रेस के नेतृत्व वाली पूर्व की सरकार ‘निर्णय लेने में अक्षम’ और ‘विनम्र’ थी. मोदी उन्हें सबक सिखाने का इरादा लेकर आए हैं.

पाक भले ही शरीफ बने, लेकिन किसे पता कब क्या हो?

शायद यह केवल समय की बात है जब शिमला समझौते के तहत बातचीत की बात दोबारा होगी और इसे इस रूप में पेश किया जाएगा मानो भारत ट्रॉफी लेकर लौटा हो. यह तर्क दिया जाएगा कि पाकिस्तान के साथ दूसरी बार आक्रामक तेवर लेकर मोदी ने अनन्त गुस्से का बदला ले लिया है.

भारत की ओर से कार्रवाई को 'असैनिक' बताने के बावजूद महाद्वीप में सैन्य कार्रवाई का रास्ता खुला हुआ है.

बेशक विश्व समुदाय इस्लामाबाद पर दबाव देगा और सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि दुनिया में बढ़ते तीखे माहौल को देखते हुए पाकिस्तान को दम साधकर चुप रहना होगा. फिर भी आगे क्या होगा, कोई नहीं जानता.

यह सच है कि कारगिल में जीत के बावजूद अटल बिहारी वाजपेयी को अपनी पार्टी की टैली सुधारने में कोई मदद नहीं मिली. पार्टी 1999 में 182 पर रुक गयी. वास्तव में उत्तर प्रदेश में बीजेपी की टैली 1998 में 57 से गिरकर 1999 में 29 पर आ गयी थी और वोट शेयर में करीब 9 फीसदी की गिरावट हुई थी.

महत्वपूर्ण बात ये है कि यह नुकसान बीजेपी विरोधी पार्टियों की वजह से नहीं हुआ, क्योंकि दोनों ही चुनावों में बीजेपी, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच चतुष्कोणीय मुकाबला हुआ था. बिना गठबंधन के ये पार्टियां चुनाव मैदान में उतरी थीं.

मोदी आधी चुनावी जंग जीत गए, ये कहना जल्दबाजी होगी

बहरहाल कभी न खत्म होने वाले आतंकवाद के वे शुरुआती दिन थे. हिंसा स्थानीय स्तर पर थी और उसका पैमाना बहुत व्यापक नहीं था. बारम्बार होने वाले सीमा पार के आतंकी हमलों के बावजूद लोग निराश नहीं हुए.

1999 में आईसी 814 के अपहरण के बाद से दो दशकों के लम्बे अंतराल में संसद पर हमला, मुम्बई में आतंकी हमले, पठानकोट एयर बेस पर हमले, उरी कैम्प और सीआरपीएफ के काफिले पर हमले कुछेक उदाहरण हैं, जिसने पाकिस्तान के खिलाफ लोगों के गुस्से को भड़काया और राष्ट्रवाद की भावना को मजबूत किया. इसका नेतृत्व एक पार्टी ने किया जिसने देश के ज्यादातर हिस्सों में दूसरे मुद्दों को पीछे कर दिया.

यह कहना जल्दबाजी होगी कि आधी लड़ाई जीतने के बाद अंतिम जीत मोदी की होगी. सबसे महत्वपूर्ण ये है कि पाकिस्तान में दो सत्ता केंद्र होने के उदाहरण रहते हुए भी वे इस क्षण अपमान झेल रहे हैं और जवाब नहीं दे रहे हैं, फिर भी मोदी के लिए यह चुनौती बनी रहेगी कि देश के किसी हिस्से में कोई भी आतंकी हमले न हो, न ही पूरी चुनाव प्रक्रिया के दौरान.

उन्हें इस ऑपरेशन से हुए फायदों को और आगे ले जाना होगा, ताकि अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में भारत की स्थिति मजबूत हो.

अगर वे अपने प्रयास में सफल होते हैं और विपक्ष एकजुट होने और जवाबी रणनीति बनाने में विफल रहता है, तो मोदी इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने में सफल होंगे कि देश की सुरक्षा को आंच आने की स्थिति में भारत के पास जवाब देने की क्षमता और राजनीतिक इच्छाशक्ति दोनों है.

(लेखक दिल्ली के पत्रकार हैं. वह ‘The Demolition: India at the Crossroads’ और ‘Narendra Modi: The Man, The Times’ के लेखक हैं. ट्विटर पर उनसे @NilanjanUdwin पर संपर्क किया जा सकता है. आलेख में उनके निजी विचार हैं और क्विंट का उससे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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