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पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह (Manmohan Singh) ने एक बार कहा था कि, “न्यायपालिका को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए कि वह अपने मामलों को रेगुलेट करने के तरीके और जरिए तलाशे- जोकि संविधान की मूल विचारधारा के अनुरूप है.” लेकिन कुछ ही वक्त में यह सब कुछ बहुत जबरदस्त तरीके से बदला है, और भारत के संवैधानिक मूल्यों के एकदम विपरीत है.
लेकिन उस समय जनता के बीच माहौल ऐसा नहीं था कि संविधान की समीक्षा होनी चाहिए. पिछले दो दशकों में, खास तौर से पिछले आठ वर्षों में बड़े पैमाने पर लोगों को समझाया जा रहा है कि हमारे स्थापित संवैधानिक मूल्य कथित रूप से असफल हैं.
वैसे इन मूल्यों और इन मूल्यों को सहेजने वाली संस्थाओं को ठेस पहुंचाने की बहुत कोशिशें की गई हैं. हालांकि हमारे संवैधानिक मूल्य बहुत गहरे हैं और पर्याप्त रूप से संरक्षित भी.
हमारी न्यायापालिका संविधान की सबसे ताकतवर पहरुआ है. अपने कई फैसलों में न्यायपालिका ने हमारी संवैधानिक लोकतांत्रिक व्यवस्था की रक्षा की है और यह सुनिश्चित किया है कि यह सुचारू रूप से काम करती रहे.
लेकिन बहुसंख्यकवादी राजनीतिक दलों को न्यायपालिका की क्षमता, और उसने हमारे धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय जैसे मूल्यों की रक्षा के लिए जो अवधारणाएं विकसित की हैं, वे सब रुकावटें लगती हैं. इन राजनैतिक दलों को लगता है कि ये उनके मकसद को पूरा करने में अड़चनें पैदा कर रही हैं.
पिछले हफ्ते भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने जयपुर में विधानमंडलों के पीठासीन अधिकारियों के एक सम्मेलन में जजों की नियुक्ति के तरीके की आलोचना की और बुनियादी संरचना की अवधारणा पर बुरी तरह हमला किया.
हैरानी की बात यह है कि सम्मेलन में मौजूद कई अन्य संवैधानिक पदाधिकारियों ने भी यही राग अलापा और कहा कि न्यायपालिका राष्ट्र के विकास के लिए जरूरी कानूनों को पेश करने और विकास कार्यक्रमों को लागू करने में बड़ी रुकावट है. दिलचस्प बात यह है कि सम्मेलन में न तो उपराष्ट्रपति, और न ही अन्य किसी व्यक्ति ने ऐसे किसी कानून या कार्यक्रम की तरफ इशारा किया.
अगर हम देश के सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट्स के पिछले एक दशक में फैसलों पर सरसरी निगाह डालेंगे तो पाएंगे कि न्यायपालिका ने पिछले आठ सालों में संसद के किसी ऐसे कानून को रद्द नहीं किया है जो जनता को ध्यान में रखकर बनाया गया था, सिवाय जजों की नियुक्ति से संबंधित कानून (एनजेएसी) को छोड़कर. इसके अलावा न्यायपालिका ने कुछ कानूनों के उन मामूली प्रावधानों को ही रद्द किया है जो साफ तौर से संविधान के विरोधी थे.
हाल ही में केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिरिजू ने भारतीय चीफ जस्टिस को चिट्ठी लिखकर कहा कि कोलेजियम में सरकारी प्रतिनिधियों को शामिल किया जाए (कोलेजियम जजों की नियुक्ति की सिफारिश करता है). यह मेरी समझ से परे है कि यह सुझाव दिया ही क्यों गया है. जबकि वह भी अच्छी तरह से जानते हैं कि जजों की नियुक्ति की प्रणाली सुप्रीम कोर्ट के ही फैसलों का नतीजा हैं, और चीफ जस्टिस इस संबंध में अपनी तरफ से कुछ नहीं कर सकते.
कानून मंत्री ने इस बारे में यह स्पष्टीकरण दिया है कि यह सुझाव एपेक्स कोर्ट के उस फैसले को ही आगे बढ़ाता है जिसमें नए मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीज़र (एमओपी) की तरफदारी की गई थी. लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि एमओपी को टुकड़ों में नहीं बनाया जा सकता, और वह भी इस तरह से एकाएक.
अगर कानून मंत्री सचमुच पूरा नया एमओपी बनाना चाहते हैं तो उन्हें सबसे पहले यह बताना होगा कि इस संबंध में सरकार का पक्ष क्या है और वह नियुक्तियों की क्या प्रक्रिया बनाना चाहती है. उन्हें इस सिलसिले में गंभीर पहल करनी होगी. चूंकि एनजेएसी को तो पहले ही असंवैधानिक कहा जा चुका है (जिसे जरिए सरकारी दखल बनाने की कोशिश की गई थी).
इसमें कोई शक नहीं कि कॉलेजियम सिस्टम में भी कमियां है और उन्हें दूर करने की जरूरत है लेकिन इसके लिए सभी स्तरों पर गंभीर सोच-विचार की जरूरत है. इतना अहम काम, इतने लापरवाह तरीके से नहीं किया जा सकता.
जयपुर सम्मेलन में वक्ताओं के शब्द, और कानून मंत्री की चिट्ठी- इनसे सिर्फ यह लगता है कि सरकार जजों की नियुक्ति के तरीके को अपने नियंत्रण में रखना चाहती है, जिससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर असर पड़ सकता है.
(जस्टिस गोविंद माथुर इलाहाबाद हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस हैं. यह एक ओपिनियन आर्टिकल है और व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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