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ये बजट का समय है दोस्तों, इसलिए नीतिगत हथियार, गांठें और छोटी-मोटी समस्याएं जो भी हैं, उन्हें सामने लाया जाए!
लेकिन इस बार बजट ऐसे समय में लिखा जाएगा जब कोविड-19 ने सिर्फ साल की पहली छमाही में 16 लाख करोड़ (200 बिलियन अमेरिकी डॉलर से ज्यादा) से ज्यादा का आउटपुट पहले ही बर्बाद कर दिया. इसलिए अगर हम अगले साल काल्पनिक ‘दोहरे अंक’ (डींगे तो देखिए) की रफ्तार से भी बढ़ें तो हम वहां तक नहीं पहुंच सकेंगे, जहां महामारी के पहले थे. इसलिए ये एक वास्तविक, अंदर तक नुकसान पहुंचाने वाली आर्थिक तबाही है. शायद यथास्तिथिवादी तंत्र को एक्शन लेने के लिए मजबूर करने के लिए एकमात्र प्रोत्साहन. लेकिन सौभाग्य से डूबते के लिए सौम्य, आशावादी लहराते हुए तिनके के तीन सहारे हैं. ऐसा नहीं है कि वो अचूक हैं, उनके साथ भी कुछ छोटी-मोटी समस्याएं हैं लेकिन कम से कम वो ईमानदारी से, सचमुच सुधारवादी हैं.
बचाव
लक्ष्मी विलास बैंक (LVB) एक छोटा ‘विरासत में मिला’ निजी बैंक था जो 1990 के शुरुआती दशक के उदारीकरण से पहले खुला था, जिसने HDFC, ICICI, एक्सिस बैंक और कोटक जैसे कई बड़े बैंकों को जन्म दिया. ये पिछली 12 तिमाही से नुकसान में था, जिससे इक्विटी खत्म हो चुकी थी, पूंजी को पूरी तरह से लूटा-खसोटा जा चुका था. बैंक के डिपॉजिटर के 21,000 करोड़ रुपये संकट में थे. रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (RBI) बैंक को बचाने वाले की तलाश बेतहाशा कर रहा था लेकिन एक के बाद एक डील असफल हो रही थी.
1991 में SBI में BCCI का प्रोत्साहन या 2004 में ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स (OBC) पर ग्लोबल ट्रस्ट को थोपना, अंत में इस साल YES बैंक को बचाने के लिए उसमें SBI का निवेश और उसे अपने साथ ले आना- इसलिए आप देखते हैं कि बुरी आदतें बनी हुई हैं. इसलिए ये मानना स्वाभाविक था कि भारत अपने सुस्त, बदनाम, यहां तक कि खतरनाक तरीके को एक बार फिर आजमाएगा और LVB संकट को बैंक ऑफ बड़ौदा (BoB) या किसी और असहाय करदाता के स्वामित्व वाली इकाई पर थोपा जाएगा.
लेकिन RBI ने मेरे जैसे चिड़चिड़े टिप्पणीकारों के लिए एक सुखद आश्चर्य तैयार कर रखा था. इसने पूरी तरह से, एक खरगोश यानी डीबीएस बैंक के साथ 47 बिलियन अमेरिकी डॉलर का समझौता, एक हैट यानी सिंगापुर से निकालकर कर सबको हैरान कर दिया और दक्षिण भारत में एक साफ सुथरा, इस्तेमाल को तैयार 4,000 कर्मचारियों और 550 शाखाओं वाला बैंक दक्षिण एशिया के बड़े बैंक को सौंप दिया जिसके पास यहां सिर्फ 30 बैंक शाखाएं ही थीं.
और अंतिम वार में, करार के बाद RBI के पास चौंकाने वाली एक बात और थी. उसने टियर 2 बॉन्ड के 370 करोड़ रुपये को पूरी तरह से बरबाद कर दिया, इस अतिरिक्त, अनुचित उपहार के साथ डीबीएस बैंक के लिए पहले से अच्छी इस डील को और बेहतर बना दिया.
जैसे ही हैरान बॉन्डहोल्डर इस अप्रत्याशित झटके से उबरे, वो मद्रास हाईकोर्ट की ओर भागते देखे गए जिसने बिना किसी आश्चर्य के, पहले ही परेशान शेयरहोल्डर्स को अंतरिम राहत दे दी थी. यहीं पर कहानी आकर रुक गई है.
छोटी-मोटी समस्या
जैसा कि स्पष्ट है, मैंने पुराने, नौकरशाही तरीकों को छोड़ने और संपत्ति को एक मजबूत विदेशी खरीदार को सौंपने के सरकार के बचाव योजना की तारीफ की है. ये साहसिक, नया, सबसे अलग बाजार के अनुकूल कदम है. लेकिन अभी भी कुछ छोटी-मोटी समस्याएं बची हुई हैं जो बताती हैं कि कैसे हमारे बाबू (नौकरशाह) अब भी काफी पुराने हैं और मुक्त बाजार नीतियों (फ्री मार्केट पॉलिसीज) से अनजान हैं.
यानी पहला झटका इक्विटी होल्डर्स को लगता, इसके बाद असुरक्षित ऋण लेने वालों को, इसके बाद अर्ध-सुरक्षित ऋणदाताओं को और फिर कई और लोगों को. ये सबसे अच्छी योजना होती, खैर कोई बात नहीं, कम से कम हम सांख्यिकी नीतियों की खतरनाक फांस से बाहर आ रहे हैं.
बिक्री
सरकार दो दशकों से एअर इंडिया से छुटकारा पाने के लिए संघर्ष कर रही है. सबसे पहले 2000 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान इस पर विचार किया गया था, लेकिन बाद में मनमोहन सिंह की सरकार के दौरान इस पर रोक लगा दी गई थी, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जून 2017 में औपचारिक तौर पर इसको अधिसूचित किया था. सब ठीक था, इस तथ्य को छोड़कर कि इसकी बिक्री के लिए 26 फीसदी शेयरहोल्डिंग के साथ सरकार के लिए रणनीतिक वीटो, नए मालिक के द्वारा विलय/एकीकरण जैसे कॉर्पोरेट कदम पर रोक, और ब्रांड नेम बदलने पर पाबंदी सहित ऐसी मुश्किल शर्तें रखी गईं, जो ये दिखाता है कि भारत की नौकरशाही बाजार अर्थशास्त्र को लेकर कितनी अनभिज्ञ थी-जिसने इसे न बिकने वाला बना दिया.
इसलिए, एयर इंडिया मोदी सरकार के पहले कार्यकाल की असफलता के तौर पर दूसरे कार्यकाल में आया जिसके बाद कर्ज में से 30,000 करोड़ को हटाकर नए खरीदार के लिए सिर्फ 23,000 करोड़ कर दिए जाने सहित डील को आकर्षक बनाने के लिए कुछ शर्तों को बदला गया. लेकिन कोविड 19 ने शर्तों में ढील के बाद भी बिक्री को असंभव बना दिया.
अंत में, सरकार को व्यावसायिक रूप से तर्कसंगत छूट देने पर मजबूर होना पड़ा, साफ साफ कहें तो इसे पहले दिन ही मान लिया जाना चाहिए था, यानी बोली लगाने वाला अब ‘एंटरप्राइज वैल्यू’ (उद्यम मूल्य) के आधार पर बोली लगा सकेगा, यानी वो 23,000 करोड़ रुपये के कर्ज का एक रुपया भी उठाए बिना संपत्ति खरीद सकता है.
छोटी-मोटी समस्या
साफ-साफ कहें तो हर संपत्ति की कीमत उसके ‘एंटरप्राइज वैल्यू’ के आधार पर होती है जिसे इक्विटी वैल्यू और शुद्ध कर्ज के जोड़ के तौर पर परिभाषित किया गया है. अगर आप अधिग्रहण का अर्थशास्त्र नहीं भी समझते हैं तो सामान्य ज्ञान आपको इतना बता देगा. मेरा मतलब है, जब आप दो करोड़ की कीमत का एक घर खरीदने जाते हैं जिसपर एक करोड़ का कर्ज बकाया है तो आप विक्रेता को कितने रुपये देते हैं? आप विक्रेता को एक करोड़ देंगे और बकाया का एक करोड़ चुकाएंगे. यही ना? उसी तरह एयर इंडिया का कोई भी खरीदार इसी आधार पर अपनी बोली तय करेगा कि वो सरकार से कितनी राशि का कर्ज ग्रहण करेगा-कर्ज जितना कम होगा, उतना ही ज्यादा इक्विटी मूल्य वह एयरलाइन खरीदने के लिए सरकार को चुकाएगा. सरल, मौलिक.
लेकिन तब सरकार ने एक सिद्धांत, जो फायनांस 101 में पढ़ाया जाता है, को समझने में तीन साल क्यों बरबाद कर दिए. क्योंकि बाबू (नौकरशाह) काफी पुराने हैं और मुक्त बाजार नीतियों से अनजान हैं.
निकास
शायद मोदी सरकार का सबसे ज्यादा चर्चा वाला सुधार भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड (BPCL) के निजीकरण का इरादा है, जिसने एक बिलियन अमेरिकी डॉलर का शुद्ध मुनाफा कमाया और कमाई के मामले में 2018-19 में दूसरी सबसे बड़ी सरकारी कंपनी थी. अच्छे शब्दों में कहने की कोशिश करें तो ये मुकुट पर लगने वाला गहना है. BPCL के लिए बोली लगाने से ONGC और IOC जैसी अन्य करदाताओं के स्वामित्व वाली कंपनियों को प्रभावी ढंग से प्रतिबंधित करके, मोदी सरकार ने वास्तविक निजीकरण के लिए अब तक अपनी आधी-अधूरी प्रतिबद्धता को रेखांकित किया.
37,000 करोड़ के लिए HPCL से ONGC में बिक्री और 15,000 करोड़ के लिए रूरल इलेक्ट्रिफिकेशन कॉर्पोरेशन से पावर फायनांस कॉर्पोरेशन में बिक्री क्या आपको याद है? सौभाग्य से, इस साल अपने स्टॉक की कीमत में कोविड के कारण 20 फीसदी की कमी के बावजूद, ‘छद्म बिक्री’ के रास्ते में भटके बिना, BPCL के साथ मैदान में रह कर, मोदी एक अटल संकल्प का संकेत दे रहे हैं, आखिरकार.
छोटी-मोटी समस्या
जब BPCL के लिए EOI (एक्सप्रेशन ऑफ इंटरेस्ट) खोले गए थे, तब सऊदी अरब की अरामको से टोटल से बीपी से रिलायंस तक, कोई भी बड़ी कंपनी मैदान में नहीं थी. केवल वेदांता संभावित खरीदारों की दौड़ में सबसे आगे दिख रही थी. निश्चित रूप से निराशा का माहौल था, साथ ही शुरुआती समय में ONGC और IOC को लाकर एक बार फिर ‘घृणित तरीका’ अपनाने की चर्चा भी थी. अगर ऐसा हो गया होता तो तबाही होती, कोई छोटी-मोटी समस्या नहीं. कृपया प्रधानमंत्री, ऐसा नहीं करें.
तब निष्कर्ष निकालने के लिए, ऐसा लग रहा है कि हम एक कमजोर आर्थिक संकट और बाजार के अनुकूल नीतियों को अपनाने के संकल्प का ऊर्जावान कॉकटेल लेकर बजट सत्र की ओर बढ़ रहे हैं! मुझे आश्चर्य हो रहा है कि मैं आशावाद का हल्का सा झोंका क्यों महसूस कर रहा हूं.
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Published: 02 Dec 2020,08:02 AM IST