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भारतीय वैक्सीन निर्माताओं (Indian Vaccine Makers) की यूरोपीय मेडिसिन एजेंसी, ब्राजील हेल्थ रेगुलेटरी एजेंसी (एनविसा) या यूएस फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (यूएसएफडीए) जैसे रेग्युलेटर के साथ चल रही परेशानियों को राजनयिक हस्तक्षेप या भावनाओं को आहत करने से हल नहीं किया जा सकता है.
यूरोपीय चिकित्सा एजेंसी ने सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया द्वारा तैयार की गई एस्ट्राजेनेका वैक्सीन कोविशील्ड को मान्यता देने से इनकार कर दिया था. वहीं भारत बायोटेक की कोवैक्सिन को इमरजेंसी इस्तेमाल की इजाजत से यूएसएफडीए ने भी इनकार कर दिया था.
क्वालिटी बेंचमार्क उस समय से शुरू होता है, जब कंपनियां टीकों की छोटी खुराक का निर्माण करती हैं जिनका उपयोग प्रयोगशाला अध्ययनों में किया जाएगा. एक बार जब कंपनियां इस लेवल को पार कर जाती हैं, तो उन्हें अपना क्लीनिकल ट्रायल स्टडी डिजाइन को जमा करना होगा.
ट्रायल डिजाइन में, जिनपर ट्रायल होगा उनकी संख्या, उनकी पहले की हेल्थ कंडीशंस, सुरक्षा और प्रभावकारिता प्रोफाइल-जिन्हें कंपनियां टारगेट कर रही हैं, शामिल हैं. COVID-19 के लिए, EMA और USFDA ने जोर देकर कहा है कि टीकों की प्रभावकारिता दर (Efficacy rate) कम से कम 50% होनी चाहिए.
कंपनियों को स्वतंत्र वैज्ञानिक समुदाय द्वारा इस डेटा की सहकर्मी-समीक्षा जरूर करवानी चाहिए. इसके परिणामों को एक स्थापित वैज्ञानिक पत्रिका में पब्लिश कराना होता है.
आखिरी स्टेज में मैन्युफैक्चरिंग साइट्स का निरीक्षण आता है, जहां नियामक (रेग्युलेटर) अपने निरीक्षकों को यह जांचने के लिए भेजते हैं कि क्या कंपनियां जीएमपी आवश्यकताओं की सूची के अनुरूप हैं.
अन्विसा (Anvisa) ने कहा कि उसने भारत बायोटेक के Covaxin को मंजूरी देने से इनकार कर दिया क्योंकि कंपनी ने "भारत के स्वास्थ्य प्राधिकरण द्वारा जारी या प्रकाशित वैक्सीन के मूल्यांकन पर तकनीकी रिपोर्ट" पेश नहीं की थी.
ब्राजील के नियामक ने यह भी कहा कि उसने भारत बायोटेक के गुड मैन्युफैक्चरिंग प्रैक्टिसेज (जीएमपी) के निरीक्षण का मूल्यांकन करने के बाद Covaxin के आवेदन को खारिज कर दिया. सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एसआईआई) ने जून के अंत तक ईएमए के साथ अपना आवेदन डेटा भी जमा नहीं किया था.
भारत के जेनेरिक दवा उद्योग को यूरोप, अमेरिका, जापान और ब्राजील में अपनी दवाओं की आपूर्ति के लिए क्वालिटी फार्मा-मैनुफैक्चरिंग इंफ्रास्ट्रकचर बनाने के लिए जरूरी समय और प्रयास को समझने में दो दशक से ज्यादा का वक्त लगा.
इन बाजारों में अपने प्रोडक्ट को रजिस्टर कराने के लिए पर्याप्त वित्तीय निवेश करने के बावजूद, रैनबैक्सी जैसे विवाद ने पूरे उद्योग की प्रतिष्ठा को बिगाड़ दिया. जेनेरिक दवा उद्योग अभी भी उस झटके से उबर रहा है.
वैक्सीन बनाने वालों के लिए यह सफर और भी मुश्किल होगा. एक बीमार रोगी को दी जाने वाली दवाओं के उलट, वैक्सीन स्वस्थ लोगों को दिए जाते हैं, यही वजह है कि अप्रूवल के लिए बेंचमार्क इतना सख्त है.
कंपनियों को अपनी फाइल को बढ़ाने के लिए हर आवेदन पर 3-5 मिलियन रुपए के बीच खर्च करना होगा. यह शुल्क निवेश कंपनियों द्वारा क्लिनिकल ट्रायल डिजाइन करने, टीके बनाने और बाकी खर्च से अलग होते हैं.
ये कुछ ऐसे कारण हैं जिनकी वजह से भारतीय वैक्सीन निर्माता यूरोपीय संघ या अमेरिका जैसे बाजारों में सेंध लगाने में कामयाब नहीं हो पाए हैं. कंपनियों के पास इन जरूरतों को पूरा करने के लिए जरूरी धैर्य और निवेश की कमी है.
दुनिया में किसी भी नियामक ने अधूरे परीक्षण डेटा के आधार पर किसी भी COVID टीके को मंजूरी नहीं दी है, फिर भी भारतीय नियामकों ने यह खतरनाक जोखिम उठाया.
अगर भारत इस मुद्दे को सुलझाने के लिए अपने राजनयिक माध्यमों का इस्तेमाल करना चाहता है तो उसे जबरदस्ती के इस तेवर को छोड़ देना चाहिए. भारत को अपनी कूटनीति का उपयोग नियामक मार्गदर्शन की सुविधा के लिए करना चाहिए और कंपनियों को वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी होने के लिए पूंजी प्रदान करना चाहिए.
(लेखिका दिव्या राजागोपाल) एक स्वतंत्र स्वास्थ्य/फार्मा रिपोर्टर हैं, इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 14 Jul 2021,01:32 PM IST