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वो तारीख थी 12 दिसंबर 1971. भारत और पाक के बीच जंग छिड़ चुकी थी. सेनाध्यक्ष मानेकशॉ और पूर्वी कमान के मुख्य कमांडर जगजीत सिंह अरोड़ा के नेतृत्व में भारतीय फौज ने पूर्वी पाकिस्तान पर चढ़ाई कर दी थी. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को बुरी तरह नापसंद करने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन भारत के इस मुंहतोड़ हमले से बौखलाए हुए थे.
इधर इंदिरा गांधी जनमानस में जोश, हौसला और जज्बा भरने के लिए लगातार जनसभाएं कर रही थीं. उस दिन भी दिल्ली के रामलीला मैदान में इंदिरा गांधी एक जनसभा कर रही थीं, तभी अमेरिका के सातवें बेड़े के बंगाल की खाड़ी में रवाना होने की खबर फैली. इस बेड़े का नेतृत्व परमाणु युद्धक जहाज एंटरप्राइज कर रहा था.
भारत के लिए बेड़े के रवाना होने की सूचना बेचैन करने वाली थी. भारत के लड़ाकू विमानों ने सभा में मौजूद लोगों की सुरक्षा के लिए सभा स्थल के ऊपर आसमान में मंडराना शुरू कर दिया. चर्चित अंग्रेजी पत्रकार सागरिका घोष इंदिरा पर लिखी अपनी किताब में लिखती हैं, इंदिरा गांधी बुलंद आवाज में गरजीं:
जंग चौदह दिन में खत्म हो गई. पाकिस्तान ने अमेरिका के सातवें बेड़े के बंगाल की खाड़ी में पहुंचने से पहले ही सरेंडर कर दिया और भारतीय सेना ने पाकिस्तान को हमेशा के लिए तोड़कर रख दिया. ढाका को मुक्त करा लिया.
इंदिरा का हौसला ही था कि निक्सन और किसिंजर की साजिशों और गीदड़भभकी का उन पर कोई फर्क नहीं पड़ा. इंदिरा गांधी की बेखौफ रणनीति का ही नतीजा था कि चीन जैसे ताकतवर देश का सीधा समर्थन होने के बावजूद पाकिस्तान को भारतीय फौजों के सामने घुटने के बल लेटना पड़ा. दुनिया के दो महाशक्तिशाली देशों की घुड़की के आगे उस वक्त अगर इंदिरा जरा भी डिगतीं, तो उस जंग में भारत बुरी तरह फंस सकता था.
उस समय तक किसिंजर और निक्सन भारत को किसी युद्ध में ऐसे प्रदर्शन के लायक ही नहीं मानते थे. वो समझ ही नहीं पाए थे कि इंदिरा गांधी नाम की जिस भारतीय महिला प्रधानमंत्री के साथ वाशिंगटन में बदसलूकी करके उन्होंने अपने इगो को संतुष्ट किया है, वो महिला किसी और मिट्टी की बनी है. पाक के सबक सिखाने की बात आएगी, तो वो महिला दुनिया के सुपर पावर की चेतावनी को ताक पर रखकर भी अपनी फौज को दुश्मन को मटियामेट करने की खुली छूट देने से परहेज नहीं करेगी. ऐसा ही हुआ भी.
इतिहासकार रामचंद्र गुहा के चर्चित किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ के मुताबिक, दिसंबर के पहले सप्ताह में शुरू हुए भारत-पाक युद्ध के डेढ़ महीने पहले ही अक्टूबर में किसिंजर ने दावा किया था कि भारतीय ऐसे खराब पायलट होते हैं कि एक बमवर्षक विमान को भी नहीं उड़ा सकते.
देश की ताकत और इंदिरा गांधी के हौसले को अमेरिका और चीन जैसे देशों में बहुत कमतर आंकने की गलती की. नतीजा पाक ने भुगता. जिनके दम पर पाकिस्तान इतरा रहा था, न वो मदद कर पाए, न उसकी सेना भारतीय सेना के सामने टिक पाई. अमेरिकी प्रेस और टाइम जैसी पत्रिकाओं ने इंदिरा गांधी पर पाक के खिलाफ युद्ध छेड़ने और इस उप-महाद्वीप को युद्ध की पीड़ा में झोंकने के लिए जिम्मेदार माना, लेकिन इंदिरा को ऐसी आलोचनाओं से कोई फर्क नहीं पड़ा.
पाकिस्तान को हर हाल में धूल चटाने पर आमादा इंदिरा गांधी को डराने की अमेरिकी कोशिश के बारे में ‘अमेरिकापरस्त’ माने जाने वाले बीके नेहरू ने भी लिखा था, ''भारत को आतंकित करने की इस फूहड़ कोशिश का इंदिरा गांधी ने माकूल और मुंहतोड़ जवाब दिया. इंदिरा के इस साहस को देखकर उनके बड़े से बड़े विरोधियों ने भी कभी सवाल नहीं उठाया.''
जिस दिन युद्ध की शुरुआत हुई थी, उस दिन भी इंदिरा गांधी कलकत्ता में किसी सभा को संबोधित कर रही थीं. वो तारीख थी 3 दिसंबर. पाकिस्तान ने ‘ऑपरेशन चंगेज खां’ के तहत धावा बोल दिया. पाक के वायुसेना ने पश्चिमी सेक्टर में भारतीय वायुसना के अड्डों पर बमबारी की और पाकिस्तानी सेना की सात रेजिमेंट भारी हथियारों के साथ कश्मीर की तरफ से गोलीबारी करने लगी.
इंदिरा को जैसे ही ये खबर मिली, उन्होंने कहा:
इसी खबर ने पहले से तैयार बैठी इंदिरा गांधी और भारतीय फौज के मुखिया मानेकशॉ को मौका दे दिया. जैसे ही भारत के जवाबी हमले की खबर दुनियाभर में फैली, सबसे पहले अमेरिका आग-बबूला हो गया. राष्ट्रपति निक्सन ने भारत के इस हमले की निंदा की, लेकिन इंदिरा कहां पीछे हटने वाली थीं.
पाकिस्तान को चीन से मदद मिलने का भरोसा था, लेकिन भारतीय फौजों ने इतनी जल्दी चौतरफा घेराबंदी कर दी, लेकिन नाक रगड़ने के सिवा उसके पास कोई चारा ही नहीं बचा. भारत ने कश्मीर और पंजाब की सीमा पर जमीनी लड़ाई शुरू की, जबकि समंदर के रास्ते भारतीय नौसेना कराची की तरफ बढ़ने लगी.
नौसेना का ऐसा इस्तेमाल पहली बार किया जा रहा था. पूर्वी पाकिस्तान में भारतीय फौजों ने पाकिस्तानी कमांडर एएके नियाजी को घुटने टेकने को मजबूर कर दिया. पाक का ये प्लान भी फेल हुआ कि इस जंग में चीन और अमेरिका की मदद से भारत को पीछे हटने को मजबूर कर देंगे.
लोकसभा 'इंदिरा गांधी जिंदाबाद' के नारे से गूंज उठी. देश के कई हिस्सों इंदिरा के नारों के साथ ढोल-नगाड़े बजे. विपक्षी सांसदों ने भी माना कि बंगलादेश की आजादी के लिए इंदिरा गांधी का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा. उसी दौरान इंदिरा गांधी की तुलना देवी दुर्गा से की गई. कहा गया कि ये उपाधि इंदिरा को वाजपेयी ने दी, हालांकि बाद के सालों में वाजपेयी इससे मुकरते रहे.
इतिहासकार रामचंद्र गुहा लिखते हैं:
चीन से करारी हार झेल चुके भारत के सैनिक इस जीत के जश्न में फूले नहीं समा रहे थे. उधर सरहद पार मातम दूसरा ही नजारा था. पाकिस्तानी सेना के सरेंडर के बाद लाहौर के एक उर्दू अखबार ने लिखा, ‘आज पाकिस्तान खून के आंसू रो रहा है. आज हिन्दुस्तानी फौज ढाका पहुंच गई है और पिछले हजार साल में हिन्दुओं ने पहली बार मुसलमानों पर जीत दर्ज की है. आज हम पराजित और निराश हैं ‘ बांग्लादेश के आजाद होने के बाद भी निक्सन और किसिंजर इंदिरा को अपने तेवर दिखाते रहे.
भारत-पाक के युद्ध पर नजरें गड़ाए बैठे हेनरी किसिंजर ने वाशिंगटन में चीनी राजदूत हुआंग हुआ से बातचीत में इंदिरा गांधी की जिद का जिक्र करते हुए कहा था, '‘ये लड़ाई अगर दो सप्ताह से ज्यादा चली, तो पश्चिमी मोर्चे पर भी पाकिस्तान का वही हाल होगा, जो पूर्वी मोर्चे पर हुआ है. इसलिए हमें बचे-खुचे पाकिस्तान की चिंता करनी चाहिए.''
किसिंजर ने ये भी कहा था, ''हम बांग्लादेश को मान्यता नहीं देंगे, न ही उससे कोई समझौता करेंगे.'' इंदिरा की सेहत पर अमेरिका और चीन की ऐसी जुगलबंदियों का भी कोई फर्क नहीं पड़ा था.
वाशिंगटन में इंदिरा गांधी और राष्ट्रपति निक्सन की मुलाकात का भी एक चर्चित किस्सा है. पूर्वी पाकिस्तान की शरणार्थी समस्या, मुक्तिवाहिनी के संघर्ष और अपने ही पूर्वी हिस्से में पाक के आतंकराज के बारे में दुनिया के देशों को आगाह करने के लिए इंदिरा ने 1971 के सितंबर और नवंबर महीने में कई दशों की यात्राएं कीं.
नवंबर में अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान इंदिरा गांधी राष्ट्रपति निक्सन से दो बार मिलीं. एक बार बातचीत के लिए. दूसरी बार राजकीय भोज के दौरान. इंदिरा गांधी को बुरी तरह नापसंद करने वाले निक्सन ने इंदिरा गांधी को पहली मुलाकात में 45 मिनट तक इंतजार करवाया, जबकि राष्ट्राध्यक्षों की मुलाकातों का समय मिनट दर मिनट तय होता है.
जाहिर है कि पाकिस्तान के तानाशाह याह्या खान पर मेहरबान निक्सन ने इंदिरा को सिर्फ नीचा दिखाने के लिए उन्हें इतना इंतजार कराया, ताकि दुनिया को दिखा सकें कि उनकी नजर में भारत के प्रधानमंत्री की हैसियत क्या है.
निक्सन और किसिंजर के कार्यकाल और फैसलों के बारे में ‘द ब्लड टेलीग्राम‘ के नाम से चर्चित किताब लिखने वाले प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के प्रो. बास ने किजिंसर को कोट करते हुए लिखा है कि ‘'इंदिरा ने बड़ी नफासत के साथ थोड़े पिछड़े हुए विद्यार्थी की प्रशंसा करने वाले प्रोफेसर की तरह व्यवहार किया, जिसे निक्सन सहन नहीं कर पाया. निक्सन ने इंदिरा के बारे में ऐसी टिप्पणियां कीं , जो हमेशा छापने लायक नहीं होती थी.‘'
इंदिरा गांधी की जीवनी लिखने वाली कैथरीन फ्रेंक के मुताबिक:
सागरिका घोष की किताब ‘इंदिरा’ में कई किताबों और रिपोर्टों के हवाले से इस मुलाकात का ब्योरा देते हुए लिखा गया है, ''दोनों नेताओें के बीच जबरदस्त तू-तू, मैं-मैं हो जाने के बाद निक्सन ने किसिंजर से कहा- हम बूढ़ी चुड़ैल पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान हो गए.'‘
प्रो बास के मुताबिक, ‘'इंदिरा और निक्सन की शिखर वार्ता एकदम मन की भड़ास निकालने वाला वाकयुद्ध था.''
इंदिरा गांधी के साथ मौजूद मौनी मल्होत्रा के मुताबिक, ''वार्ता बेहद बुरी हुई थी. किसिंजर याह्या खान से उपकृत था और भारत से उसका छत्तीस का रिश्ता था. इंदिरा से निक्सन को घृणा थी. इसीलिए उनसे इंदिरा के प्रति कटु व्यवहार करने उन्हें चोट पहुंचाने की कोशिश की थी.''
निक्सन को शायद अंदाजा नहीं था कि उनका वास्ता भारत की एक ऐसी महिला से पड़ा है, जो अमेरिकी ताकत और राष्ट्रपति के गुमान के सामने झुकने वाली नहीं हैं. मौनी मल्होत्रा के मुताबिक, ''निक्सन की तरफ से इंदिरा के सम्मान में दिए गए राजकीय भोज के दौरान इंदिरा ने अपनी आंखें कसके बंद कर रखी थीं. वो एक शब्द नहीं बोलीं. अर्ध अंडाकार मेज के सिरे पर राष्ट्रपति के साथ बैठकर भी वो आंखें बंद किए रहीं, तो निक्सन की घबराहट बढ़ती गई. कोई सवाल भी पूछता, तो उनका जवाब नपा-तुला होता. सारे मेहमानों के बीच वो निश्चल बैठी रहीं.''
मौनी मल्होत्रा के मुताबिक, ‘'ये इंदिरा गांधी का औजार था. उन्होंने अपने सिरदर्द का बहाना बनाकर बड़ी सफाई से सार्वजनिक तौर पर निक्सन को जलील किया था.'‘
निक्सन ने कहा था, ''अमेरिका याह्या खान के सत्तापलट में भागीदार नहीं होगा और अगर भारत सैन्य कार्रवाई करता है, तो इसके नतीजे बहुत ही खतरनाक होंगे.'' इसके जवाब में इंदिरा गांधी ने कहा था, ''भारत नहीं, बल्कि पाकिस्तान की तरफ से धर्मयुद्ध छेड़ने की धमकी दी जा रही है.'' इंदिरा गांधी ने वही किया, जो उन्हें देशहित में लगा. किसी की परवाह किए बगैर.
वाशिंगटन में अमेरिकी राष्ट्रपति से इस मुलाकात के पहले लंदन में इंदिरा गांधी बीबीसी को वो चर्चित इंटरव्यू दे चुकी थीं, जिसमें उन्होंने बेहद आक्रामक ढंग से शरणार्थियों की मदद के पक्ष में और पाकिस्तान के आतंक के खिलाफ अपना स्टैंड दुनिया के सामने जाहिर कर दिया था. बीबीसी संवाददाता ने जब इंदिरा से पूछा कि बांग्लादेश के मामले में भारत को संयम क्यों नहीं बरतना चाहिए, तो इंदिरा ने तीखे तेवर दिखाते हुए दृढ़ता से कहा थ, ''हिटलर ने जब हमले किए, तो आपने क्यों नहीं कहा कि आओ हम बर्दाश्त करें. चुप रहें. जर्मनी से शांति बनाए रखें और यहूदियों को मरने दें?''
फिर उन्होंने अपने इरादों को जाहिर करते हुए दो टूक कहा, ‘'मुझे नहीं लगता कि पड़ोसी देश के हालात के बारे में हम आंखें बंद रख सकते हैं. हमें पाकिस्तान के सैनिक शासन से खतरा है. अप्रत्यक्ष हमले की हालत बनी हुई है. पाकिस्तान जैसा था, वैसा दुबारा कभी नहीं रह पाएगा.''
इंदिरा के इस इंटरव्यू के बाद याह्या खान ने बौखलाकर कहा था, ‘'वह औरत मुझे डरा नहीं सकती.'' याह्या खान तो क्या, उसके फौजी प्यादों और इरादों का इंदिरा गांधी ने क्या हश्र किया, अब इतिहास में दर्ज है.
आज का दिन उस इंदिरा को भी याद करने का है, जिसने पाकिस्तान को हमेशा के लिए ऐसा जख्म दिया है कि सदियों तक उसे सालता रहेगा.
(अजीत अंजुम सीनियर जर्नलिस्ट हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है. )
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