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भारत के दो राज्यों महाराष्ट्र और झारखंड ने इजाजत मांगी है कि बांग्लादेश से एंटी वायरल दवा रेमडेसिविर का आयात करने दिया जाए. जब कोविड के मामले पूरे देश, खासकर महाराष्ट्र, दिल्ली और दूसरे राज्यों के बड़े शहरों में विस्फोटक तरीके से बढ़ रहे हैं, रेमडेसिविर को सभी उपलब्ध स्रोतों से हासिल करने की बेहतहाशा कोशिशें जारी हैं.
रेमडेसिविर वह अकेली दवा है, जो खतरे की स्थिति में कोविड मरीजों के इलाज के लिए इस्तेमाल की जाती है. हालांकि इससे पक्के इलाज की कोई गारंटी तो नहीं है, लेकिन पॉजिटिव नतीजों के साथ इस एंटी वायरल दवा का मरीजों पर टेस्ट किया गया है.
फिलहाल कैलीफोर्निया की बायोफार्मा कंपनी गिलीड साइंसेज के साथ वॉलंटरी लाइसेंस एग्रीमेंट के तहत भारत की सात कंपनियां रेमडेसिविर बना रही हैं. रेमडेसिविर का पेटेंट गिलीड के पास है और उसने चार और भारतीय फार्मास्यूटिकल कंपनियों के साथ इस दवा को बनाने और उसकी मार्केंटिंग का एग्रीमेंट किया है. एक और भारतीय कंपनी ने जनरिक वर्जन के उत्पादन के लिए आवेदन किया हुआ है.
ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) ने अभी तक इन भारतीय कंपनियों को इस दवा को बनाने और उसकी मार्केटिंग की इजाजत देने पर फैसला नहीं किया है, हालांकि गिलीड ने रेमडेसिविर को मार्केट करने की इजाजत हासिल कर ली है.
फिलहाल सारी बहस दवा की कीमत को लेकर है. चूंकि लाइसेंस के तहत पेंटेट वाली दवा की कीमत बहुत अधिक है, और उसके जेनरिक आयातित वर्जन की कम. यूएन के वर्गीकरण के मुताबिक बांग्लादेश एक लेस डेवलप्ड कंट्री यानी एलडीसी है. उसने गिलीड की इजाजत के बिना, अपने एलडीसी दर्जे का लाभ उठाकर रेमडेसिविर का जेनरिक वर्जन तैयार किया है.
एलडीसीज को दोहा घोषणापत्र से छूट दी गई है और उन्हें 2033 तक ट्रिप्स पेटेंट कानूनों को लागू करने की जरूरत नहीं है. इसलिए बांग्लादेश पर पेटेंट उत्पादों को बनाने और उसकी प्रतियों को बेचने पर कोई अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध नहीं है और वे उन्हें निर्यात भी कर सकते हैं. चूंकि बांग्लादेश में उत्पादन की लागत काफी कम है, वहां बनने वाला रेमडेसिविर का जेनरिक वर्जन अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्धा है.
फार्मास्यूटिकल कंपनियों के लिए मांग बढ़ रही है, और साथ ही लाभ की अपार संभावनाएं भी. इसीलिए उम्मीद है कि गिलीड और उसके भारतीय सहयोगी जेनरिक वर्जन की मार्केटिंग का विरोध करें. बांग्लादेश से आने वाली रेमडेसिविर की हर डोज की कीमत करीब 160-170 USD होने की संभावना है, और भारत सरकार पर ऐसी नीतियां बनाने का दबाव होगा जिसके तहत दवा ज्यादा से ज्यादा सस्ती हो.
ऐसे में भारत सरकार और फार्मा कंपनियों को मूल्य निर्धारण के मुद्दे पर एक राय कायम करनी होगी.
सरकार के पास यह अधिकार है कि वह 1970 के भारतीय पेटेंट एक्ट के चैप्टर XVI के क्लॉज 92 के अनुसार अनिवार्य लाइसेंसिंग और ट्रिप्स (बौद्धिक संपदा अधिकारों के व्यापार संबंधी पहलुओं) पर अंतरराष्ट्रीय संधि का इस्तेमाल करे. अनिवार्य लाइसेंसिंग के तहत किसी आपात स्थिति में निर्दिष्ट शर्तों के तहत पेटेंट्स से छूट मिल जाती है. ऐसी अनुमति मिलने से पेटेंट होल्डर की सहमति के बिना भी किसी पेटेंटेड दवा का उत्पादन और मार्केटिंग किया जा सकता है.
एक फार्मा कंपनी अनिवार्य लाइसेंसिंग के लिए आवेदन कर सकती है या सरकार खुद कंट्रोलर ऑफ पेटेंट्स को निर्देश दे सकती है कि वह आपात स्थिति में अनिवार्य लाइसेंस जारी करे.
अनिवार्य लाइसेंसिंग सरकार के पास आखिरी विकल्प है, पर यह एक विवादास्पद मुद्दा भी है. पश्चिमी देश यह तर्क देते हुए इसका विरोध करते रहे हैं कि इससे फार्मा कंपनियां नई दवाओं की फंडिंग को हतोत्साहित होंगी. क्योंकि अनुसंधान और विकास पर खर्च करने के बावजूद उन्हें इसका मुनाफा नहीं मिलेगा.
बांग्लादेश ने अपने घरेलू फार्मा बाजार का बहुत संरक्षण किया है. वहां का फार्मा उद्योग परिपक्व और तकनीकी रूप से उन्नत है. अनेक प्रकार के रेगुलेशंस के तहत कड़े सुरक्षात्मक उपाय भी किए गए हैं. वहां का घरेलू उत्पादन दवाओं की 97 प्रतिशत मांग पूरी करता है और उद्योग कई विकसित यूरोपीय देशों सहित विभिन्न देशों को एपीआई और दवाएं निर्यात करता है.
ब्रांडेड भारतीय दवाएं बांग्लादेश में स्मगल होती हैं. अगर ढाका की किसी फार्मेसी में भारत में बनी दवा चोरी-छिपे ऊंची कीमत पर बिकती मिले, तो हैरानी नहीं होनी चाहिए. वैसे भारत बांग्लादेश की फार्मा कंपनियों की 30 प्रतिशत एपीआई की जरूरतों को पूरा करता है.
एस्कायेफ और बैक्सिमको नाम की कंपनियां क्रमशः रेमिविर और बेमसिविर नाम से रेमडेसिविर के वर्जन बना रही हैं. पेंटेट होल्डर गिलीड ने बांग्लादेश में बनने वाली कॉपीकैट दवाओं की प्रामाणिकता या असर की पुष्टि करने से इनकार किया है और यह कहा है कि उसने किसी बांग्लादेशी कंपनी को कोई लाइसेंस नहीं दिया है. न ही इनमें से किसी कंपनी ने भारत में रेमडेसिविर के किसी वर्जन को मार्केट करने की अनुमति मांगने के लिए आवेदन किया है.
इन कंपनियों का कहना है कि भारत ने उनसे किसी दवा के लिए कोई औपचारिक अनुरोध नहीं किया है. अनौपचारिक रूप से यह पूछताछ की गई है कि उनके निर्यात की कीमत क्या है. फिर बांग्लादेश से आयात करने पर रेगुलेटरी समस्याएं भी हो सकती हैं क्योंकि इससे पेटेंट कानून का उल्लंघन हो सकता है.
अगर भारत सरकार आयात का फैसला करती है ताकि सरकारी अस्पतालों के जरिए सरकारी दवाखानों में दवा का वितरण किया जा सके तो पेटेंट कानून के तहत अपवाद मौजूद हैं. वैसे भारत में इन दवाओं की स्मगलिंग शुरू हो चुकी है.
समय बीतता जा रहा है और रेमडेसिविर की सप्लाई में तेजी लाने की जरूरत है. भारत सरकार ने दवा और एपीआई पर आयात शुल्क हटा दिया है. रूस ने रेमडेसिविर के निर्यात का प्रस्ताव दिया है. अब सरकार को यह तय करना होगा कि क्या वह बांग्लादेश में बनने वाले क्लोन्स के आयात की इजाजत देगी.
हालांकि आयात निजी कंपनियों की वाणिज्यिक शर्तों पर होगा, फिर भी भारत सरकार आयात पर अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल कर सकती है और महत्वपूर्ण मुद्दा इसकी कीमतें होंगी. इससे भारतीय कंपनियों पर दाम कम रखने का दबाव होगा जोकि बांग्लादेश से आयात को मंजूरी देने में भी निर्णायक होगा.
भारत में मांग बहुत अधिक है और इसी के आधार पर सरकार इसकी कीमतें कम करने की कोशिश कर सकती है.
(लेखक विदेशी मामलों के मंत्रालय के पूर्व सचिव और एक पूर्व राजदूत हैं. इसके अलावा थिंक टैंक डीपस्ट्रैट एलएलपी के फाउंडर डायरेक्टर और ओआरएफ दिल्ली के विजिटिंग फेलो हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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