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तालिबान की वापसी में क्या असल खिलाड़ी पाकिस्तान है और खेल में चीन भी शामिल है?

इमरान खान ने तालिबान की जीत पर लंबा चौड़ा भाषण दिया है और कहा है कि अफगानों ने अपनी गुलामी की बेड़ियां तोड़ दी हैं

फ्रांसेस्का मैरिनो
नजरिया
Updated:
<div class="paragraphs"><p>अफगानिस्तान संकट&nbsp;</p></div>
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अफगानिस्तान संकट 

(फोटो: क्विंट)

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डिफीट इज एन ऑर्फन’, यह स्कॉटिश एनालिस्ट मायरा मैकडोनाल्ड की एक किताब का टाइटिल है, जो हाल ही में आई है. इस तरह अमेरिकियों ने एंटोनी ब्लिनकन के जरिए अफगानिस्तान के अपने बीस साला अभियान को पूरी तरह कामयाब बताया है, और इस बात से इनकार किया है कि अमेरिका ने जिस तरह बेआबरू होकर साइगॉन से वापसी की थी, यह वापसी उसी का दोहराव है.

हालांकि दिलचस्प यह है कि जो बाइडेन ने खुद कुछ दिनों पहले उसकी याद दिलाई थी: “आपको मकानों की छतों से निकलते लोगों की तस्वीरें देखने को नहीं मिलेंगी.” और तालिबान, जो जमीनी स्तर पर जीत गए हैं, इस फतह का जश्न मना रहे हैं. उन्होंने दुनिया की सबसे ताकतवर सेना को हरा दिया है. वे लोगों से कह रहे हैं कि युद्ध खत्म हो गया है और लोगों को डरने की जरूरत नहीं है.

अमन’ का नया दौर शुरू होने वाला है, और हर इंसान महफूज है, जब तक कि वह नए इस्लामी अमीरात के नियमों को मानता रहेगा. यह स्कॉटिश एनालिस्ट मायरा मैकडोनाल्ड की एक किताब का टाइटिल है जो हाल ही में आई है. इस तरह अमेरिकियों ने एंटोनी ब्लिनकन के जरिए अफगानिस्तान के अपने बीस साला अभियान को पूरी तरह कामयाब बताया है, और इस बात से इनकार किया है कि अमेरिका ने जिस तरह बेआबरू होकर साइगॉन से वापसी की थी, यह वापसी उसी का दोहराव है.

‘ हालांकि दिलचस्प यह है कि जो बाइडेन ने खुद कुछ दिनों पहले उसकी याद दिलाई थी: “आपको मकानों की छतों से निकलते लोगों की तस्वीरें देखने को नहीं मिलेंगी.” और तालिबान, जो जमीनी स्तर पर जीत गए हैं, इस फतह का जश्न मना रहे हैं. उन्होंने दुनिया की सबसे ताकतवर सेना को हरा दिया है. वे लोगों से कह रहे हैं कि युद्ध खत्म हो गया है और लोगों को डरने की जरूरत नहीं है. ‘अमन’ का नया दौर शुरू होने वाला है, और हर इनसान महफूज है जब तक कि वह नए इस्लामी अमीरात के नियमों को मानता रहेगा.

राष्ट्रीय झंडे की जगह अफगानिस्तान में सफेद झंडा लहरा रहा है. वह भी विदेशी भाषा- अरबी में लिखा हुआ. ऐसा लगता है कि लोगों को लाल और हरे रंग के कपड़े पहनने से भी रोक दिया जाएगा ताकि किसी भी तरह देशप्रेम का झूठा सच्चा प्रदर्शन न हो.

अमेरिका धोखा खाने का क्यों तैयार हुआ?

सरहद पार पाकिस्तान में विजेताओं को बधाइयों के संदेश दिए जा रहे हैं. देश में आतंकवादी संगठनों के बड़े नेताओं से लेकर इस्लामी पार्टियों के लीडर, सरकारी सदस्य और प्रधानमंत्री इमरान खान भी. हैरानी नहीं होना चाहिए कि एक समय उन्हें तालिबानी खान नाम से पुकारा जाता था.

जिन्हें आधा पाकिस्तान कठपुतली प्रधानमंत्री कहता है, उन्होंने ऐलान किया कि “अफगानों ने अपनी गुलामी की बेड़ियां तोड़ दी हैं”. और इस तरह इमरान खान ने लोगों को Jo लंबा चौड़ा भाषण दिया और कहा कि पश्चिमी शिक्षा, मानसिकता, कपड़े लत्तों और लाइफस्टाइल के क्या नुकसान हैं.

रावलपिंडी और उसके आस-पास के इलाकों में भी सेना की रणनीति और उसकी गुप्त योजनाओं पर खुशियां मनाई गईं.असली सवाल यही है कि क्यों बीस साल से भी ज्यादा समय तक अमेरिका पाकिस्तान से धोखा खाता रहा (ऐसा पूछने का सबसे साफ तरीका यही है.

सभी जानते थे कि पाकिस्तान तालिबान को रसद भी दे रहा था और सैन्य सहयोग भी. सभी जानते थे कि “आतंकवादियों से लड़ने के लिए” अमेरिका ने जो हेलीकॉप्टर और हथियार दिए थे, उनका इस्तेमाल करके बलूचिस्तान पर बम गिराए गए, क्वेटा को छोड़कर. क्योंकि वहां मुल्ला उमर और उनका परिवार रहता है. सभी जानते थे, और मुशर्रफ ने अपनी आत्मकथा में यह लिखा भी है कि पाकिस्तान ने अलकायदा के नंबर दो और तीन आतंकियों को पेशावर और उसके आस-पास के इलाके से अगवा किया था और उन्हें अमेरिका को सौंपा था ताकि कुछ पैसा कमाया जा सके. चूंकि अमेरिका हर आतंकी नेता को पकड़ने के लाखों डॉलर देता था.

तालिबान तो इंश्योरेंस पॉलिसी है

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पाकिस्तान ने दसियों साल तक मुल्ला बरादार और क्वेटा शूरा की हिफाजत की. तब तक इंतजार किया, जब तक वे इस्तेमाल लायक नहीं हो गए. यह कोई इत्तेफाक नहीं कि उसने हमेशा बरादार को अमेरिका को सौंपने से इनकार किया. तालिबान इस्लामाबाद के लिए इंश्योरेंस पॉलिसी जैसा था. किसी भी वक्त उसके सहारे सौदेबाजी की जा सकती थी. जब वॉशिंगटन को अपनी राजनैतिक और भूराजनैतिक त्रुटियों की वजह से इस सौदेबाजी के लिए मजबूर होना पड़ता.

इस बीच आईएसआई हक्कानी, जैश ए मोहम्मद और लश्कर ए तैय्यबा की मदद से पुराने और नए तालिबानी आतंकियों को प्रशिक्षित कर रहा था, हथियारों से लैस कर रहा था. उसने तहरीक ए तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) के ‘बुरे’ तालिबान से लेनदेन की बात की जोकि सेना के अनुसार, पाकिस्तान के खिलाफ थे. तालिबान ने जनरलों को नकार दिया. वे वहां से निकल भागे क्योंकि उन्हें मन मुताबिक और पूरा पैसा नहीं मिला.

इस तरह एक तरफ न्यूयॉर्क टाइम्स ने सिराजुद्दीन हक्कानी जैसे भाड़े के हत्यारे के एक लेख को पहले पेज पर उसी के नाम से छापा (कहा जाता है कि इसे हक्कानी ने नहीं, किसी अमेरिकी एक्सपर्ट ने लिखा था), तो दूसरी तरफ वॉशिंगटन बरादार और उसके सैनिकों को वैधता और अंतरराष्ट्रीय मान्यता दिलाने में जुटा रहा. ये पाकिस्तान के इशारे पर काम कर रहे थे. इस तरह अफगानिस्तान की निर्वाचित सरकार की वैधता सवालों के घेरे में थी, जबकि अमेरिका की छत्रछाया में ही चुनाव कराए गए थे.

ये कैसी शांति वार्ता, यह तो घुटने टेकने जैसा था

इधर तथाकथित “शांति वार्ता” शुरू हुई और उधर तालिबान की तरफ से खून-खराबा भी चालू हो गया. काबुल और दूसरे शहरों में आत्मघाती हमले शुरू हुए. सैन्य ठिकानों पर नहीं, बल्कि पत्रकारों, एक्टिविस्ट्स, डॉक्टरों, नेताओं और आम लोगों पर.

अमेरिका ने शुरुआत से शांति समझौता करने की बजाय, सौदेबाजी करना उचित समझा. उसने अस्पष्ट वादे के बदले तालिबान को देश सौंप देने का फैसला किया. विशेष प्रतिनिधि जालमे खलीलजाद ने बेशर्मी से हर सैन्य कार्रवाई और हर नरसंहार के बाद सारा दोष आईएसआईएस के मत्थे मढ़ा या ‘बुरे’ तालिबान को कटघरे में खड़ा किया.

इस्लामाबाद ने भी पूरी कोशिश की कि उसके प्रतिनिधियों की आधिकारिक या गैर आधिकारिक मौजूदगी के बिना कोई बातचीत न हो. इसके अलावा चीन और रूस ने भी उसके कहने पर तालिबान को मान्यता दी और इस तरह पाकिस्तान ने तालिबान को और ज्यादा जायज ठहराया.

चीन की सरकार, वह पहली सरकार होगी, जो इस्लामिक अमीरात को मान्यता देगी. ऐसा इसलिए है क्योंकि वह पहले ही पाकिस्तान से समझौता कर चुका है. पाकिस्तान पूरी तरह से उसकी मुट्ठी में है. भूमध्य सागर तक पहुंचने वाले चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे के विस्तार का रास्ता अब खुल गया है.

अब तालिबान को प्रतिबंधों के जरिए धमकाया नहीं जा सकता, और न ही उसकी सरकार को मान्यता न देने का कोई फायदा होने वाला है. मानवाधिकारों या महिला अधिकारों की दुहाई देने से भी कोई फर्क नहीं पड़ता. रूस, चीन और तुर्की, पाकिस्तान भी बरादार को मान्यता देने और उसके साथ कारोबार करने को तैयार हैं. नए अमीरात के नए मुखिया की बला से, शिकस्त खाए पश्चिमी मुल्क उसे मंजूर करें न करें.

(फ्रांसेस्का मैरिनो पत्रकार और दक्षिण एशियाई एक्सपर्ट हैं.उन्होंने बी. नताले के साथ ‘एपोक्लिप्स पाकिस्तान’ लिखी है.उनकी हालिया किताब का नाम है, ‘बलूचिस्तान- ब्रूज्ड, बैटर्ड एंड ब्लडीड’. उनका ट्विटर हैंडिल @francescam63 है. यह एक ओपिनियन पीस है. द क्विट न इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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Published: 19 Aug 2021,09:36 AM IST

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