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मुझे वो घटना अच्छी तरह से याद है. 2004 के जून महीने में अहमदाबाद की गर्मी भरी सुबह थी. रिपोर्टर्स ने मुझे बताया कि पुलिस वालों ने तड़के कुछ आतंकवादियों को मार गिराया है, वे लोग गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या करने के लिए अहमदाबाद आ रहे थे. रिपोर्टर्स ने यह सूचना पुलिस के हवाले से दी थी. कुछ समय बाद, फोटोग्राफर्स घटनास्थल की तस्वीरें लेकर आए. मारे गए सभी लोग सड़क पर पड़े थे. उनमें एक युवती भी थी जिसे बाद में मुंबई के पास मुंब्रा में रहने वाली इशरत जहां के तौर पर पहचाना गया.
इस युवती की तस्वीर से ही हम लोगों में संदेह पैदा हुआ. अगर यह आतंकवादियों का गुट था तो मासूम सी दिखने वाली इशरत जहां इनके बीच क्या कर रही थी. हमारे दिमाग में यह बड़ा सवाल कौंधा था. वह तो आतंकवादी बिल्कुल नहीं लगती थी. हमने सोचा, क्या इन पांचों का बेहरमी से कत्ल किया गया है.
उस समय मैं अहमदाबाद में एक प्रमुख अंग्रेजी अखबार का रेजिडेंट एडिटर था. अगले दिन हमारे अखबार की हेडलाइन्स में यह संदेह जाहिर हो रहा था. गुजराती के प्रमुख अखबार में भी पुलिस की इस कहानी पर संदेह जताया था (जितना मुझे याद है). यह एक बहुत बड़ी खबर बन गई थी.
इसके बाद यह मालूम चला था कि इशरत जहां एक सीधी-सादी सी लड़की थी जो पढ़ने के लिए मुंब्रा से ठाणे आती थी. यह कहा गया कि ठाणे में प्रणेश पिल्लई नाम के शख्स से उसकी दोस्ती हुई. पिल्लई एक नौजवान था, जिसने एक मुस्लिम लड़की से शादी की थी और फिर इस्लाम कबूल कर लिया था. सरकारी सूत्रों का कहना था कि पिल्लई लश्कर-ए-तैय्यबा का सदस्य बन गया था और 2002 के गुजरात दंगों के कारण अहमदाबाद आकर मोदी को निशाना बनाना चाहता था. कहा गया था कि उसने इशरत को अपने साथ चलने के लिए राजी किया था.
इसके बाद प्रणेश पिल्लई के पिता गोपीनाथ पिल्लई का एक इंटरव्यू अखबारों में छपा. इस इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि प्रणेश ने इशरत को अपनी छत्रछाया में ले लिया था क्योंकि इशरत के पिता ने मरते वक्त उससे ऐसा करने को कहा था.
गोपीनाथ ने यह खुलासा भी किया था कि प्रणेश एक प्रशिक्षित टेक्नीशियन था और खाड़ी में काम करता था. उसने जिस लड़की से शादी की थी, उसकी मर्जी के मुताबिक इस्लाम कबूला था. उस लड़की का नाम सजदा था और प्रणेश के खाड़ी जाने से पहले सजदा उसके घर के पास रहती थी.
उनका प्रणेश के साथ कोई ताल्लुक नहीं था, लेकिन पुलिस ने उन्हें प्रणेश के 'जुर्म का साथी' बताया था.
दिल्ली में यूपीए की सरकार बनने के साथ इस मामले ने दिलचस्प मोड़ ले लिया. 2009 में अहमदाबाद में मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट एसपी तमांग ने यह फैसला सुनाया कि यह एनकाउंटर फर्जी था और इस तरह पुलिस का विवरण खारिज हो गया. राज्य सरकार ने गुजरात हाई कोर्ट में अपील की जिसने एक स्पेशल इन्वेस्टिगेशन्स टीम (एसआईटी) बनाई. एसआईटी ने 2011 में कहा कि एनकाउंटर असली नहीं था और पीड़ितों को मुठभेड़ से पहले ही मार दिया गया था. जो मारे गए, वे पहले से कस्टडी में थे और उन्हें राज्य पुलिस और सेंट्रल इंटेलिजेंस के ज्वाइंट ऑपरेशन में मारा गया था.
3 जुलाई, 2013 को सीबीआई ने अहमदाबाद की एक अदालत में चार्जशीट दायर की और कहा कि वह गोलीबारी ‘फर्जी मुठभेड़’ थी जिसे बहुत ‘बेरहमी से’ अंजाम दिया गया था. इसमें जिन पर आरोप लगे थे, वे थे डिप्टी कमिश्नर डीजी वंजारा, असिस्टेंट कमीशनर जीएल सिंघल और इंस्पेक्टर तरुण बारोट.
आईबी के स्पेशल डायरेक्टर रजिंदर कुमार को चार्ज नहीं किया जा सका था क्योंकि आईबी के डायरेक्टर ने प्रॉसीक्यूशन की इजाजत नहीं दी थी. वंजारा कई सालों तक जेल में रहे क्योंकि वे दूसरे केस- सोहराबुद्दीन मामले- में आरोपी थे. इस मुठभेड़ में सोहराबुद्दीन और उसकी बीवी को मार गिराया गया था.
इस साल मार्च के आखिर में यह केस क्लोज हो गया, क्योंकि सीबीआई अदालत ने कहा कि आरोपियों ने ‘आधिकारिक कर्तव्यों के तहत काम किया था.’
क्या इसके ये मायने हैं कि भविष्य में अगर कोई और राजनीतिक दल सत्ता की कुर्सी संभालता है तो यह मामला फिर उठ सकता है? इस बीच इशरत जहां उस दूसरी दुनिया में इंसाफ के लिए बिलखती रहेगी जहां उसे भेज दिया गया है.
(लेखक टाइम्स ऑफ इंडिया के अहमदाबाद हैदराबाद संस्करणों में रेजिडेंट एडिटर रहे हैं. यह एक ओपनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 04 Apr 2021,11:45 AM IST