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संयुक्त अरब अमीरात (UAE) और बहरीन ने मंगलवार को इजराइल के साथ संबंधों को सामान्य बनाने के लिए समझौतों पर हस्ताक्षर किए हैं. ये समझौते अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की मध्यस्थता में हुए हैं.
हाल ही में ट्रंप ने ट्वीट कर बताया था- “एक और ऐतिहासिक सफलता. हमारे दो महान मित्र देश इजराइल और किंगडम ऑफ बहरीन शांति समझौते के लिए तैयार हो गए- 30 दिन के भीतर इजराइल के साथ शांति समझौता करने वाला दूसरा अरब देश.”
पहला समझौता जब इजराइल और यूएई के बीच हुआ था तो उसका फल डोनाल्ड ट्रंप को नोबल पुरस्कार के लिए नामित होने के तौर पर मिला. अब, जबकि दूसरा समझौता भी महीने भर के भीतर सामने आ चुका है तो डोनाल्ड ट्रंप की नोबेल पुरस्कार की दावेदारी और मजबूत हो गई है.
समझौते की घोषणा 9/11 की बरसी पर किया जाना भी अहम है. अमेरिका की अंदरूनी सियासत में इसे तत्कालीन डेमोक्रेट राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की असफलता के तौर पर रिपब्लिकन बताते आए हैं. अमेरिका के लिए अभिशाप माने जाने वाले इस दिन को एक ऐसे शुभ अवसर पर बदलने की कोशिश की गई है जिससे मध्य पूर्व में शांति का रास्ता खुलता हो और उसके कर्णधार रिपब्लिकन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप हैं.
इजराइल के लिए एक महीने के भीतर दो अरब देश बतौर साथी मिल गए. यूएई और बहरीन दोनों देश ईरान के पड़ोसी हैं और दोनों को ईरान से डर भी लगता है. ईरान खुले तौर पर अमेरिका का विरोधी है और फिलिस्तीन का समर्थक भी. अब तक अरब देश फिलिस्तीन के सवाल पर एकजुट रहे थे. ताजा समझौते का आधार ही यही है कि इजराइल वेस्ट बैंक में अपने विस्तार की योजना को स्थगित कर रहा है. यही वो कीमत है जो इजराइल चुका रहा है. बदले में मध्य पूर्व में शांति की उम्मीद अरब देशों को अपना रुख बदलने के लिए तैयार कर रही है.
इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू (Benjamin Netanyahu) की प्रतिक्रिया गौर करने लायक है. उन्होंने कहा है,"ये शांति का एक नया युग है. शांति के लिए शांति. अर्थव्यवस्था के लिए अर्थव्यवस्था. हमने कई साल तक शांति के लिए कोशिशें कीं. अब शांति हमारे लिए कोशिशें करेगी."
नेतन्याहू साफ तौर पर उम्मीद कर रहे हैं कि शांति से उनकी तकनीक और विज्ञान का खरीददार मिलेगा. यूएई और बहरीन दोनों देश इजराइल के बाजार बनेंगे. इसका असर खाड़ी के बाकी देशों पर भी होगा. ईरान और तुर्की ने इन समझौतों की आलोचना की है. इसे अरब देशों को बांटने वाला करार दिया है. वहीं सऊदी अरब ने चुप्पी साध रखी है. पाकिस्तान तक ने भी संयमित होकर इन समझौतों के विरोध से परहेज किया है.
फिलिस्तीनी हितों को भुलाकर या फिर कहें कि अपने-अपने हितों को वरीयता देते हुए अरब देश इजराइल के साथ अपने संबंधों की नई परिभाषा गढ़ रहे हैं तो क्या इसके पीछे शांति मकसद है? यह सवाल बड़ा है. मध्य पूर्व में शांति की शर्त अब इजराइल के साथ समझौतों में नहीं टिकी है. बल्कि, यह ईरान, तुर्की और सऊदी अरब के साथ अमेरिका, चीन और रूस के संबंधों पर टिकी है. अरब देशों में एक तरह से नए प्रकार का ध्रुवीकरण होता दिख रहा है. यह ध्रुवीकरण ईरान और तुर्की के खिलाफ है और अमेरिका इस ध्रुवीकरण के केंद्र में है. इजराइल के साथ अरब देशों को जोड़-तोड़कर समर्थक देशों का नया समूह तैयार करना और ईरान की सीमा तक आ धमकना शांति नहीं अशांति की आहट है.
फिलिस्तीन जैसे मुद्दे भारत भुला सकता है और अरब देशों के नाराज होने का खतरा भी अब नहीं रहा. कच्चे तेल के लिए ईरान पर निर्भरता बनी रहने के बावजूद नए विकल्प भी खुले हैं. ऐसे में इजराइल के साथ बहरीन के शांति समझौते के स्वागत में आगे रहने वाला देश भारत स्वाभाविक रूप से है.
अरब देशों के साथ शांति समझौते की कुंजी मुख्य रूप से इजराइल के पास बनी रहेगी. पश्चिमी किनारे पर विस्तारवादी आकांक्षा को जिंदा करते ही ये समझौते टूट जाएंगे. इस समझौते की उम्र ही इस बात पर निर्भर करती है कि यह अरब देशों तक अमेरिका और इजराइल की पहुंच को कितना आसान बनाए रखता है. यह पहुंच इजराइल, तुर्की को नियंत्रित करने में मददगार होती रहे, यही उनकी मंशा है. दूसरी तरफ ईरान की मदद से मध्य पूर्व तक व्यापारिक पहुंच बनाने की कोशिश में जुटे चीन को भी यह जवाब है. मध्य पूर्व की यह गतिविधि दुनिया के स्तर पर नए सिरे से हो रही गोलबंदी का एक पड़ाव भर है.
ट्रंप राष्ट्रवाद और अमेरिका फर्स्ट के नारे के साथ चुनावी मैदान में हैं. नवंबर के पहले हफ्ते में होने वाले चुनाव के लिए ग्लोबल हीरो के तौर पर उतरना उनके चुनावी इरादों के अनुकूल है. नोबल पुरस्कार के लिए नामित होना भी चुनावी संभावना को मजबूत करने वाला है. देखना यह है कि घरेलू मोर्चे पर नाकाम रहे ट्रंप प्रशासन को इन ‘उपलब्धियों’ के लिए खुद अपने देश में कितना सराहा जाता है.
(प्रेम कुमार जर्नलिस्ट हैं. इस आर्टिकल में लेखक के अपने विचार हैं. इन विचारों से क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है.)
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Published: 12 Sep 2020,10:30 AM IST