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बहुपक्षवाद और असाधारणवाद: इजरायल-फिलीस्तीन पर UN वोटिंग में क्यों बंटी दुनिया?

UK या ऑस्ट्रेलिया, जो मानव अधिकारों के सिद्धांतों की रक्षा की बात करते रहते हैं, फिलीस्तीनियों के लिए इन पर विचार करने में भी क्यों विफल रहे हैं?

दीपांशु मोहन
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>बहुपक्षवाद और असाधारणवाद: इजरायल-फिलीस्तीन पर United Nations में मतदान</p></div>
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बहुपक्षवाद और असाधारणवाद: इजरायल-फिलीस्तीन पर United Nations में मतदान

(फोटो- AP)

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इजरायल-हमास युद्ध (Israel- Hamas War) एक महीने से ज्यादा समय से जारी है. अब तक हजारों लोगों की मौत हो चुकी है. वहीं गाजा पट्टी में लाखों लोग विस्थापित हुए हैं. पिछले महीने संयुक्त राष्ट्र महासभा (UN General Assembly) में जॉर्डन (Jordan) ने इजरायल-हमास युद्ध में तत्काल मानवीय संघर्ष विराम का आह्वान करते हुए प्रस्ताव पेश किया था. इसमें भारत उपस्थित नहीं हुआ. इस प्रस्ताव में गाजा पट्टी में बेरोक-टोक मानवीय मदद पहुंचाने का भी मुद्दा उठाया गया था.

इस प्रस्ताव का नाम "नागरिकों की सुरक्षा और कानूनी- मानवीय दायित्व" था, जिसके पक्ष में 120 देशों ने मतदान किया था. 14 ने प्रस्ताव के खिलाफ वोट किया और 45 देशों ने मतदान नहीं किया. भारत के अलावा, गैरहाजिर रहने वाले देशों में ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, जर्मनी, जापान, यूक्रेन और यूके शामिल थे.

हाल ही में, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) में ब्राजील के नेतृत्व वाला मसौदा प्रस्ताव भी गिर गया था. इस प्रस्ताव पर भी अमेरिका ने वीटो कर दिया था. इसमें भी गाजा पट्टी तक मानवीय मदद पहुंचाने की पूरी इजाजत देने का आह्वान किया गया था.

UNSC के स्थायी सदस्य और इजराइल के करीबी सहयोगी अमेरिका ने तब कहा था कि वह निराश है कि ब्राजील के नेतृत्व वाले संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव में इजराइल के आत्मरक्षा के अधिकारों का कोई उल्लेख नहीं किया गया है.

दूसरी ओर, भारत सरकार ने अपनी प्रतिक्रिया में यूएनजीए वोट में अनुपस्थित रहने के अपने फैसले का बचाव करते हुए कहा था कि इसमें इज़राइल पर 7 अक्टूबर के आतंकवादी हमलों की "स्पष्ट निंदा" शामिल नहीं थी.

दोनों परिदृश्यों में, किसी भी प्रस्ताव को अमेरिकी या भारतीय समर्थन प्राप्त करने में विफल होने के पीछे इजरायल के लिए स्पष्ट और अंतर्निहित समर्थन के उनके अपने दृष्टिकोण से जुड़े कारण हैं, जो एक बड़ी फिलीस्तीनी नागरिक आबादी की कीमत पर आया है.

अमेरिकी विदेश नीति की स्थिति इस पूरे संघर्ष में अपने सहयोगी इजरायल के समर्थन में डटकर खड़े रहने की है. (और यह समर्थन पहले से ही परिभाषित और ऐतिहासिक स्थिरता के साथ है), जबकि भारतीय प्रतिक्रिया अब 'गैरहाजिरी' की है, जिसकी विदेश नीति अन्यथा और ऐतिहासिक तौर पर भी फिलीस्तीनी-इजराइल संघर्ष के लिए हमेशा टू स्टेट सॉल्यूशन की बात करना रहा है.. उसका उदासीन रवैया बहुत निराशाजनक रहा है.

‘बहुराष्ट्रीय सहकारी समाधान’ की कमी

यहां यह समझना और भी मुश्किल है कि यूके, ऑस्ट्रेलिया, जापान जैसे अन्य देश, जो लोकतांत्रिक सिद्धांतों की रक्षा की बात करते हैं और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकारों और मानवीय कानून की प्रगतिशील प्राप्ति की पुरजोर वकालत करते हैं, फिलीस्तीनियों के संदर्भ में इन पर विचार करने में विफल क्यों रहे हैं.

हमास के हमले के प्रतिशोध में, गाजा और उसके पार इजरायली बलों के अत्याचारों पर विचार करने में, सभी प्रस्तावों पर उनकी अपनी प्रतिक्रियाएं विफल रहीं, जिससे वहां गाजा में रहने वाले नागरिकों पर अकल्पनीय मानवीय संकट पैदा हो गया है.

गाजा में अब तक 10 हजार से ज्यादा मौत हो चुकी है और मृतकों में 4,300 से ज्यादा बच्चे शामिल हैं. यह सैन्य संघर्ष नहीं है, बल्कि उनकी ‘जातीय पहचान’ को टार्गेट करके हमला भी है, जिनका 7 अक्टूबर को हमास के हमले से कोई लेना-देना नहीं था.

इससे भी बुरी बात यह है कि गाजा में शांति बहाल करने के लिए किसी भी ‘बहुराष्ट्रीय सहकारी समाधान’ (Multinational Cooperative Solution) की कमी के कारण, इजरायल का जवाबी हमला उन क्षेत्रों में मानवीय संकट को बढ़ा सकता है जहां फिलीस्तीनी नागरिक रहते हैं. यह संकट अब अमेरिका, यूके, ऑस्ट्रेलिया और भारत जैसे देशों के समर्थन से और बढ़ सकता है. पहले से ही ध्रुवीकृत, विभाजनकारी नेतन्याहू प्रशासन निकट भविष्य में किसी भी मानवीय आधार पर भी युद्ध विराम पर विचार नहीं करेगा.

हाल के संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावों में संघर्ष के बारे में बहुत कम टिप्पणी की गई है, और केवल मानवीय सहायता पहुंचाने के लिए मानवीय आधार पर युद्ध विराम की ही बातें इन प्रस्तावों में थी. इसमें संयुक्त राष्ट्र मानवीय एजेंसियों और उनके भागीदारों के लिए पूर्ण, त्वरित, सुरक्षित और निर्बाध पहुंच की अनुमति देने के लिए युद्ध विराम का आह्वान किया था, और मानवीय गलियारों की स्थापना और अन्य पहलों को प्रोत्साहित किया गया था.

बड़ा सवाल यह है कि आखिर वैश्विक राजनीति व्यवस्था की बात करने वाले ( जो मानव अधिकार और अंतरराष्ट्रीय कानून की बात करते हैं ) वो इन विरोधाभासी कार्रवाई पर विचार करने में भी फेल क्यों रहे?

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बिना बहुपक्षवाद के बहुपक्षता ?

रॉबर्ट हंटर वेड ने दो दशक पहले लिखे अपने एक पेपर में अमेरिकी वर्चस्व को लेकर चेतावनी दी थी. अमेरिकी वर्चस्व और इसके जियोपॉलिटिक्स से वर्ल्ड बैंक, IMF, GATT (बाद में WTO) और लोगों के विचार और कार्रवाई पर पड़ने वाले असर की बात कही थी. उन्होंने तब जो कुछ कहा था और उनकी दलीलें आज के संदर्भ में पहले से भी कहीं ज्यादा प्रासंगिक हो गई हैं.

वेड ने 1990 के दशक के अंत में अंतरराष्ट्रीय संबंधों और आर्थिक पॉलिसी को समझने वाले लोगों को जागरुक किया था कि भले ही दुनिया आर्थिक वजहों से, कैपिटल, ट्रेड में मोबिलिटी बढ़ने, रीजनल इकोनॉमिक पावर (चीन और भारत जैसे देश) के विकसित होने से मल्टीपोलर हो रही है. लेकिन मल्टीपोलर दुनिया के लिए पूर्व निर्धारित शर्तों के क्षीण पड़ने से मल्टपोलरिज्म यानि बहुपक्षवाद असल में चलेगा नहीं और यह नए तरह के राष्ट्र-राज्य संघर्षों को बढ़ाएगा क्योंकि EXCEPTIONALISM यानि असाधारणवाद जैसे कदम उठाए जाते रहेंगे.

नोट- EXCEPTIONALISM का अर्थ इस विचार से है कि किसी व्यक्ति, देश या राजनीतिक व्यवस्था को दूसरों से भिन्न और संभवतः बेहतर मानने की अनुमति दी जा सकती है.

यह बहुत कुछ अमेरिकी वर्चस्व के असर और दूसरे देशों तक इसका प्रभाव पहुंचने की वजह से है.

हम लोग इसका असर अब ना सिर्फ विकसित देशों जैसे UK, ऑस्ट्रेलिया, जापान पर देख रहे हैं बल्कि चीन और भारत जैसे देशों पर भी देख रहे हैं.

असाधारणवाद का क्रूर अनैतिक दौर

द क्विंट पर अक्टूबर में प्रकाशित एक लेख में, लेखक ने व्यवहारिक और अस्तित्ववादी दोनों ही चिंताओं को समझने में अंतरराष्ट्रीय कानून की सीमाओं, इसे लागू करने और इंटरनेशनल जस्टिस आर्किटेक्चर (अक्सर सेलेक्टिव एप्लीकेशन) में ‘न्याय और ‘संप्रभुता’ के संदर्भ में होने वाली दिक्कतों की व्याख्या की थी.

थॉमस नागेल, हॉब्स, अमर्त्य सेन और जॉन रॉल्स जैसे विद्वानों ने अंतरराष्ट्रीय कानून के साथ इन अस्तित्व संबंधी चिंताओं को देखा, जो अब जीत और टकराव से ग्रस्त दुनिया में शायद सबसे क्रूरतम, हिंसक रूप में सामने आ रही हैं.

अमेरिकी असाधारणवाद जिसका इस्तेमाल अमेरिका अपने हिसाब से करता रहता है, उसे " यूनिफाइड बॉडी ऑफ थॉट’ नहीं मानना चाहिए. इसे आमतौर पर "संयुक्त राज्य अमेरिका की विशिष्ट छवि के तौर पर बताई जाती है और बाकी दुनिया बदलने के लिए अमेरिका के मिशन की प्रतिबद्धता की तरह दिखाया जाता है.

हालांकि, भारतीय संदर्भ में, नैतिक असाधारणवाद के इस संस्करण में कोई तर्कसंगत, सुसंगत भारतीय विदेश नीति की व्याख्या नहीं है. यह पहली बार भी नहीं है जब भारत ने मोदी सरकार की लीडरशिप में ऐसा रुख अपनाया है.

रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान भी, भारत ने अपनी गुटनिरपेक्ष विदेश नीति का हवाला देकर अपने कार्यों को उचित ठहराते हुए लगातार सस्ता क्रूड खरीदकर रूसी अर्थव्यवस्था को (अप्रत्यक्ष आर्थिक सहायता) प्रदान करना जारी रखा. परहेज और चुप्पी की वह नीति भी एक ‘नैतिकता’ की कीमत पर ही आई थी, जहां यूक्रेन को भारत समर्थन दे सकता था.

हमें सरकार की ओर से ऐसा कोई प्रयास या इरादा नहीं दिखता. सांकेतिक बयानों या प्रतीकात्मकता का कोई मतलब नहीं रह जाता है, खासकर तब जब संघर्ष की स्थिति न सिर्फ क्षेत्रीय बल्कि ग्लोबल रैमिफिकेशन के साथ बढ़ती ही जाती हो.

विदेश नीति में असाधारणवाद

मौजूदा वक्त में यह समझना अहम है कि ब्राजील के नेतृत्व वाले संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव को वीटो करने के अमेरिका के अपने कारण हैं. वो फैक्टर सहयोगी इजराइल के समर्थन में आवाज और उसके आत्मरक्षा के अधिकार में निहित हो सकता है.

हालांकि, एक प्रस्ताव जो 'मानवीय सहायता' का प्रतिनिधित्व प्रदान करता है, लेकिन एक देश (इजरायल) द्वारा 'आत्मरक्षा' के नाम पर, आम लोगों के घरों और बुनियादी ढांचों को तबाह करना, एक पूरे शहर को खंडहर बना देना, जिसके कारण सैकड़ों लोग मारे गए और हजारों शरणार्थी बन गए, इस बात को स्वीकार नहीं किया जाता है.

यह अमेरिकी पाखंड और वाशिंगटन के साथ ही दूसरे देशों के दोहरे मानदंडों को भी दिखाता है (जो एक युद्ध (रूस-यूक्रेन) के मामले में आत्मरक्षा के लिए यूक्रेनी कार्रवाई का समर्थन उचित ठहराते हैं, और मानवीय आधार पर गठबंधन से सहयोग लेते हैं). वहीं दूसरे परिदृश्य में अपना फोकस बिल्कुल उससे अलग रखते हैं.

दरसअसल यह उस बहुध्रुवीय दुनिया की विरोधाभासी प्रकृति है जिसमें हम अब रह रहे हैं. किसी भी राष्ट्र के पास कोई एक दृष्टिकोण नहीं है जो विदेशी से लेकर शायद घरेलू नीति तक, उनके कार्यों के नैतिक कोड को परिभाषित करने में सुसंगत हो.

ह्यूमन राइट्स वॉच के संयुक्त राष्ट्र निदेशक लुइस चार्बोन्यू ने अमेरिकी वीटो की निंदा की, जिसने ब्राजील और अन्य देशों के प्रस्ताव को गिरा दिया. चार्बोन्यू ने कहा कि,

“ऐसा करते हुए, उन्होंने उन मांगों को अवरुद्ध कर दिया जिन पर वे अक्सर अन्य संदर्भों में जोर देते है जैसे कि सभी पक्ष अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून का पालन करें और यह सुनिश्चित करें कि महत्वपूर्ण मानवीय सहायता और आवश्यक सेवाएं जरूरतमंद लोगों तक पहुंचें. उन्होंने हमास की अगुवाई में 7 अक्टूबर के हमले की निंदा के प्रस्ताव को भी रोक दिया और बंधकों की रिहाई की मांग की. परिषद में जारी गतिरोध को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों को महासभा से नागरिकों की सुरक्षा के लिए तत्काल कार्रवाई करने और बड़े पैमाने पर अत्याचार और जानमाल की हानि को रोकने के लिए कहना चाहिए”.

यह ऐसा वक्त है जब हम भारत, अमेरिका समेत दूसरे विकसित और औद्योगिक रूप से उन्नत देशों (यूके, ऑस्ट्रेलिया, जापान), की विदेश नीतियों में अनैतिकता को बहुत करीब से देख सकते हैं. विदेश नीति में उनका हस्तक्षेप उनके अपने हितों और रणनीतिक फायदों के मुताबिक ही होता है.

दुर्भाग्य से, जैसा कि नोम चॉम्स्की ने एक बार तर्क दिया था, फिलीस्तीनियों के मुद्दे और जिंदगी अक्सर शक्तिशाली और अमीर देशों (अमेरिका सहित) के लिए 'कम प्रासंगिक' रहे हैं, क्योंकि उनकी भूमि और स्थान, किसी भी रिसोर्स का वादा नहीं करते हैं. यह केवल अन्य देशों (जैसे इजराइल) को अपने से अधिक शक्तिशाली सहयोगियों से बिना डरे या दंड/ की चिंता किए बगैर अधिक क्रूरता से कब्जा करने की अनुमति देती है.

यह हमारे अपने सामूहिक विवेक और 'न्याय' की समझ पर सवाल उठाता है, कि उन लोगों के लिए आखिर इसका क्या अर्थ है जो शक्तिहीन हैं, और 'असाधारणता' और 'नैतिक श्रेष्ठता' की कीमत पर जिनकी उपेक्षा की जाती है. एक आधिपत्यवादी शक्ति नैतिकता का निर्माण करती है और दिखावे के मूल्य यानि प्रोजेक्टेड वैल्यूज (शांति, न्याय, लोकतंत्र और स्वतंत्रता) के इर्द-गिर्द विदेश नीति सिर्फ अपने संकीर्ण, स्वार्थ के चलते बनाती है.

(दीपांशु मोहन,अर्थशास्त्र के प्रोफेसर और सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक्स स्टडीज के निदेशक हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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