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जिन जजों ने शुक्रवार को विरोध के स्वर उठाए, उनकी वरीयता देखिए- नंबर 2,3,4 और 5. इसके बाद बात हो रही है कि न्यायपालिका को कैसे दुरुस्त किया जाए. ऐसे में यह जानना जरूरी है कि विवाद के मुद्दे कौन-कौन से रहे हैं.
इस पर कई सालों से बहस होती रही है. सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति की प्रणाली को ‘कॉलेजियम सिस्टम’ कहा जाता है. 1993 से लागू इस सिस्टम के जरिए ही जजों के ट्रांसफर, पोस्टिंग और प्रमोशन का फैसला होता है. कॉलेजियम 5 जजों का एक ग्रुप है. इसमें चीफ जस्टिस समेत सुप्रीम कोर्ट के 4 सीनियर जज मेंबर होते हैं.
1998 में इस मामले पर 9 जजों की बेंच ने कहा था कि जजों की नियुक्ति पर आखिरी फैसला कॉलेजियम का होगा. इस सिस्टम को नया रूप देने के लिए NDA सरकार ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) बनाया था. यह सरकार द्वारा प्रस्तावित एक संवैधानिक संस्था थी, जिसे बाद में रद्द कर दिया गया.
चार जजों की चिट्ठी, जिसे शुक्रवार को सार्वजनिक किया गया, उसमें कहा गया है कि चूंकि सरकार का मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर पर कई महीनों तक कोई जबाव नहीं आया है, इसका मतलब है कि सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम ने जो तय किया है, वही लागू है. मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर के हिसाब से जजों की नियक्ति में आखिरी फैसला कॉलेजियम का ही होगा और सरकार को उसे मानना ही होगा.
इस बात पर काफी बहस हुई है कि जजों के करप्शन की जांच कैसे हो? किसी बाहरी एजेंसी से या फिर न्यायपालिका के अपने ही सिस्टम से? 2017 में जजों के करप्शन का मामला सामने आया था, जिसकी सुनवाई के दौरान जस्टिस चेलमेश्वर ने एक संवैधानिक बेंच बनाकर मामले की सुनवाई करने का आदेश दिया था. जस्टिस चेलमेश्वर के फैसले को चीफ जस्टिस ने संवैधानिक बेंच के सदस्यों को यह कहकर बदल दिया कि बेंच का गठन करने का अधिकार सिर्फ चीफ जस्टिस को ही है.
इस बहस पर आखिरी शब्द अभी लिखा जाना बाकी है.
शुक्रवार की बगावत पर सबसे ज्यादा बहस इसी मुद्दे पर हो रही है. चार जजों ने अपनी चिट्ठी में लिखा है कि सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस फर्स्ट एमंग द एक्वल्स हैं. 'फर्स्ट एमंग द एक्वल्स' का मतलब यह नहीं होता है कि जो फर्स्ट है, वो सारे फैसले अपने मन से ले. इसका मतलब होता है कि उनके हर बड़े फैसले में दूसरों के इनपुट हों, सहमति हो और हर फैसला रूल ऑफ लॉ के मुताबिक हो.
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