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Jalore Dalit student Death: भारतीय लोकतंत्र अंदर से बहुत अलोकतांत्रिक है

दलितों पर अत्याचार के ज्यादातर मामलों में मीडिया आरोपी की जाति के बारे में बात नहीं करता

सुभाजीत नस्कर
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>Jalore Dalit student Death: भारतीय लोकतंत्र अंदर से बहुत अलोकतांत्रिक है</p></div>
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Jalore Dalit student Death: भारतीय लोकतंत्र अंदर से बहुत अलोकतांत्रिक है

(फोटोः क्विंट)

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भारत बहुत गर्व के साथ आजादी के 76वें साल में दाखिल हुआ है. लेकिन ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर धकेले गए लाखों दलित अब भी अपनेपन की प्रतीक्षा में हैं. रोजाना उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ता है.

भारतीय जनता पार्टी (BJP) के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार आजादी का अमृत महोत्सव मना रही है. इस बीच दलित समाज उस स्कूली बच्चे की मौत का मातम मना रहा है जिसने सिर्फ घड़े को छूने भर के ‘अपराध’ के चलते अपने अपरकास्ट टीचर से मौत की सजा पाई. दिल को दहलाने वाली इस घटना ने छुआछूत की अप्रिय यादों को ताजा कर दिया है. इसके साथ ही संविधान की उस नैतिक और कानूनी बाध्यता पर भी सवाल खड़े किए हैं जिसके तहत अनुच्छेद 17 में छुआछूत को समाप्त करने की बात की गई है. बराबरी के हक की बात की गई है.

विरोधाभास की जिंदगी: अंबेडकर की चेतावनी सच साबित हुई

इसके बावजूद कि आजाद भारत ने ‘अछूत कहलाने वाले लोगों’ को गरिमापूर्ण भविष्य देने का वादा किया था, उनके हिस्से अभाव, अपमान और शोषण ही आया. उच्च जातियों के प्रभुत्व वाले सामाजिक-राजनैतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक नेरेटिव्स में वे लगभग गायब रहे. 75 साल बाद अंबेडकर की चेतावनी मानो सच हो रही है.

“26 जनवरी, 1950 को हम विरोधाभास भरी जिंदगी में कदम रख रहे हैं. राजनीति में हमारे पास समानता होगी और सामाजिक और आर्थिक जीवन में हमारे पास असमानता होगी. राजनीति में हम एक व्यक्ति एक वोट और एक वोट एक मूल्य के सिद्धांत को मान्यता देंगे. अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में हम अपने सामाजिक और आर्थिक ढांचे के कारण, एक व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत को नकारते रहेंगे. हम कब तक इन अंतर्विरोधों का जीवन जीते रहेंगे? कब तक हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को नकारते रहेंगे?

अगर हम इसे लंबे समय तक नकारते रहे, तो हमारा राजनीतिक लोकतंत्र खतरे में पड़ेगा. हमें इस अंतर्विरोध को जल्द से जल्द दूर करना चाहिए, वरना जो लोग गैर बराबरी से पीड़ित हैं, वे राजनीतिक लोकतंत्र के ढांचे को तोड़ देंगे, जिसे संसद को बहुत मेहनत से बनाना है.”

लोकतंत्र और राष्ट्रवाद से इतर

आठ दशक पहले अंबेडकर ने एक भाषण, जो दिया नहीं जा सका था, में सफल लोकतंत्र के निर्माण का जरूरी उपाय बताया था. उन्होंने सुझाव दिया था कि भारत के उच्च जाति प्रधान राष्ट्रवादी आंदोलन में सामाजिक सुधार को भी शामिल किया जाना चाहिए. लेकिन बदकिस्मती से, और बहुत ध्यानपूर्वक, यह आंदोलन सिर्फ ब्रिटिश सरकार से ताकत की अदला-बदली के मकसद से चलाया गया.

राष्ट्रीय स्तर पर लोगों को एकजुट करने की गांधीवादी राजनीति जातियों में बंटे हिंदू सामाजिक ढांचे को तोड़ने में नाकाम रही. भारत के राष्ट्रवादी आंदोलन के इस खास क्षण को प्रोफेसर जी. एलॉयसियस ने कुछ इस तरह बयां किया था: "यह साफ तौर से राष्ट्र की खोज करने वाली राष्ट्रीयता नहीं थी इसीलिए एक राष्ट्र नहीं उभर पाया."

राष्ट्रीयता पर प्रोफेसर राजीव भार्गव की टिप्पणी भी यहां अहम है:

"लोकतंत्र भारत में राष्ट्रवाद के रूप में आया, और इसलिए, राष्ट्रवाद के लिए तर्क, लोकतंत्र के लिए तर्कों के साथ-साथ थे. इस लोकतंत्र का चरित्र न केवल नागरिक स्वतंत्रता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के कारण बल्कि समानता और सामाजिक न्याय के अपने दृष्टिकोण के कारण भी उदार होना चाहिए.
प्रोफेसर राजीव भार्गव

तीसरी सच्चाई का आग्रह

ऐसे राजनैतिक लोकतंत्र के निर्माण में दलितों की आकांक्षाएं बिखर गईं, जिसमें वैचारिक रूप से उदार लोकतांत्रिक ढांचा बनाने का सपना देखा गया था. बाद के दशकों में उन्हें इज्जत तो मिली नहीं, जाति आधारित अंतहीन अत्याचारों का शिकार होना पड़ा. संभ्रांत राजनीतिक विमर्श में उनकी पहचान को नजरंदाज किया गया.

स्वतंत्रता दिवस पर जब मोदी ने बड़े पैमाने पर 'हर घर तिरंगा' अभियान शुरू किया, तो कांग्रेसी नेताओं ने भी अपने सोशल मीडिया प्रोफाइल डिस्प्ले पर भारतीय तिरंगे को चस्पा कर दिया. कइयों ने अपने प्रोफाइल में नेहरू की वह तस्वीर लगाई जिसमें उन्होंने तिरंगा पकड़ा हुआ है. इस बीच दलित अंबेडकरवादियों ने तीसरी सच्चाई से लोगों को रूबरू करवाया. उन्होंने जालौर के नौ साल के बच्चे इंदर मेघवाल के लिए समानता और न्याय का मुद्दा उठाया और एक नया आह्वान दिया 'आज़ादी का मृत्यु महोत्सव'.

भारत की मुख्यधारा की राजनैतिक पार्टियों में सवर्ण उच्च जातियों का बोलबाला है, ठीक उसी तरह जैसे भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन ऐतिहासिक रूप से भारतीय समाज की जमीनी हकीकत से तटस्थ है.

दक्षिणपंथियों के राजनीतिक विमर्श, और उन पर मध्यमार्गियों, उदारवादियों और वामपंथियों के विरोध में स्वर में दलितों के साथ बढ़ती हिंसा पर कोई सामूहिक रोष नजर नहीं आता.

संसद में सरकार के अपने डेटा में यह खुलासा किया गया है कि 2018 और 2020 के बीच विभिन्न राज्यों में दलितों के साथ 1.3 लाख से ज्यादा अपराधों को दर्ज किया गया है और इनमें से 50,291 अपराध सिर्फ 2020 में हुए हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) का कहना है कि 2019 में दलितों के साथ होने वाले 84% अपराध देश के नौ राज्यों में हुए, हालांकि इन राज्यों में दलितों की कुल आबादी 54% है. दलित विरोधी अपराध सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश (36,467), फिर बिहार (20,973), राजस्थान (18,418) और मध्य प्रदेश (16,952) में हुए.

इसलिए बीजेपी और कांग्रेस, दोनों अपने शासन में इन तीखी और कभी न बदलने वाली सामाजिक सच्चाइयों से मुंह नहीं फेर सकतीं. असल बात तो यह है कि कोविड-19 जैसी महामारी ने भी दलितों और हाशिए पर पड़ी जातियों को नहीं बख्शा. उनके साथ ज्यादा हिंसा हुई. एनसीआरबी के डेटा का कहना है कि 2020 में अनुसूचित जाति का एक व्यक्ति हर 10 मिनट में एक अपराध का शिकार हुआ. यानी पिछले साल की तुलना में अपराधों में 9.4% की बढ़ोतरी हुई.

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जब मातम भी आसान नहीं होता

जब मैं यह सब लिख रहा हूं, राजस्थान के दलित लड़के का परिवार उसकी मौत का मातम भी नहीं मना पा रहा- आरोप प्रत्यारोपों का दौर जारी है. लेकिन यह दलितों के लिए यह नई बात नहीं कि उन्हें मातम भी न मनाने दिया जाए. दो साल पहले, उत्तर प्रदेश के हाथरस में एक दलित परिवार का भी यही हश्र हुआ था. उस परिवार की दलित लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ था. सबसे अधिक विडंबना यह है कि राजस्थान में कांग्रेस सरकार है और उसकी नाक के नीचे लोग विशाल जनसभा करके, इंदर मेघवाल के परिवार पर दबाव बना रहे हैं कि वे मामला दर्ज न करें.

दरअसल दलितों पर सवर्णों की हिंसा अब अधिकांश राजनीतिक दलों की अंतरात्मा को नहीं कचोटती. दलितों के साथ जाति-आधारित अत्याचार के ज्यादातर मामलों में मुख्यधारा का मीडिया आरोपी की जाति के बारे में बात नहीं करता, और होता यह है कि उच्च जातियों पर खड़े होने वाले सवाल खुद ब खुद दब जाते हैं. इसके अलावा इससे दलितों की दर्दनाक आपबीतियों के लिए सिर्फ दया उपजती है. उच्च जातियों की पहचान धुंधली पड़ जाती है और इंसाफ हासिल करने की दलितों की कोशिश नाकाम होती है.

दलितों से जुड़े मुद्दों को लगातार भुलाने की कोशिश की जा रही है

दक्षिणपंथियों का हिंदूवाद तो यह कर ही रहा है, उच्च जातियों के उदारवादी अपनी हिंदुवाद बनाम हिंदुत्व की बहस में भी दलितों की समस्याओं को अनदेखा कर रहे हैं.

इससे पता चलता है कि इस व्यवस्था की प्रकृति ही एकपक्षीय है. ऐतिहासिक रूप से उत्पीड़ित दलित लोग अपनी पहचान कायम करने की कोशिश कर रहे हैं और लोकतंत्र में जातिवादी भेदभाव उनके सामाजिक और नैतिक कद को कतरने में जुटा है. इसीलिए दलितों का मुखर होना, उनकी मुक्ति का मार्ग नहीं, एक खतरे के तौर पर देखा जाता है.

आजाद भारत में सभी भारतीयों का सम्मान करना चाहिए

एक जातिवादी समाज की मौजूदगी दलितों के गुस्से को खारिज करती है और उच्च जातियों की रक्षा भी. इसने सालों से भारत में लोकतांत्रिक संस्थानों में उदारवाद के सिद्धांतों को स्थापित करने से रोका है. अंबेडकर ने संविधान सभा में इस बारे में कहा था, "भारत में लोकतंत्र सिर्फ भारतीय धरती पर एक ऊपरी परत जैसी है, क्योंकि वह भीतर से बहुत अलोकतांत्रिक है."

आखिर में, भारत की आजादी का कोई भी उत्सव तभी सच्चा होगा जब मुक्ति की राजनीति में सभी भारतीयों को आत्मसम्मान, गरिमा और पहचान मिले. और जाहिर सी बात है, भारतीयों में दलित और हाशिए पर पड़े समुदाय भी शामिल हैं.

(सुभाजित नस्कर कोलकाता की जाधवपुर यूनिवर्सिटी में डिपार्टमेंट ऑफ इंटरनेशनल रिलेशंस में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यह लेखक के अपने विचार हैं. क्विंट न तो समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)

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