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जम्मू-कश्मीर में जिला और स्थानीय निकायों के चुनाव ने साफ तौर पर दर्शा दिया है कि 2015 में बीजेपी के साथ पीडीपी का गठबंधन रणनीतिक रूप से बड़ी गलती थी. यह गलती लगातार बड़ी होती चली जा रही है.गठबंधन में सबसे ज्यादा नुकसान पीडीपी को हुआ है. अगर इस गठबंधन ने असर दिखाया होता, तो दोनों पार्टियों का प्रभाव एक-दूसरे के इलाकों में बढ़ता और उनकी ताकत में बढ़ोतरी होती.
लेकिन ऐसा नहीं हुआ और पीडीपी के लिए यह तकरीबन मौत को गले लगाने जैसा रहा है जो जम्मू डिवीजन के 10 जिलों में फैले जिला विकास परिषद की 140 सीटों में से केवल एक सीट जीत पाने में सफल रही.
विडंबना है कि बीजेपी उस गठबंधन में कहीं बेहतर होकर उभरी है. शायद इसलिए कि वह अपने वोटरों के बीच खुद को इस रूप में प्रॉजेक्ट करने में कामयाब रही कि गठबंधन को उसने ही तोड़ा. इतना ही नहीं प्रदेश में सभी तबकों की पार्टी के तौर पर खुद को सामने रखते हुए इसने डीडीसी चुनावों में घाटी के भीतर दो सीटों पर जीत हासिल करने में सफलता हासिल की.
हाल के चुनावों में इसने बड़े पैमाने पर खर्च किए. यहां तक कि कश्मीर घाटी में भी, जहां इसने बड़ी संख्या में उम्मीदवार खड़े किए. बेशक बीजेपी ने जो सीटें जीतीं, उनमें तुलेली भी शामिल है, जो ठीक नियंत्रण रेखा के पास का इलाका है. इन इलाकों में रहने वाले पहाड़ी और दूसरे समुदायों के लोगों का सेना के साथ सकारात्मक बातचीत व संबंध रहा है. और, इन लोगों में कश्मीर घाटी के आम लोगों के मुकाबले देश के लिए कहीं अधिक सकारात्मक व्यवहार दिखता है.
पीडीपी का पतन अच्छी बात नहीं है क्योंकि यह घाटी में उस राजनीतिक ताकत का प्रतिनिधित्व करता है, जो खुद को नेशनल कान्फ्रेंस का हिस्सा नहीं मानता, जिसका 1999 में पीडीपी के गठन के समय एकछत्र राज था.
मुफ्ती सैय्यद ने पीडीपी में उन लोगों को जोड़ा जो कभी उत्तर कश्मीर में अब्दुल गनी लोन की पीपुल्स कॉन्फ्रेन्स का हिस्सा थे. ऐसा उन्होंने उस समय कर दिखाया जब लोन अलगाववादी आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे.
सैय्यद उस पार्टी के बचे खुचे लोगों में थे, जिसके संस्थापक मोहिउद्दीन कारा थे और जिसका प्रभाव श्रीनगर के बाटमालू के आसपास था. कई अन्य ताकतें भी थीं जिन्हें, राजनीतिक छत्र छाया मिलती रही थी. 1940 के दशक में शेख अब्दुल्ला के बाद मोहिउद्दीन कारा कश्मीर घाटी में सबसे बड़े कद वाले नेता थे.
2019 लोकसभा चुनाव खुद इस बात का सबूत है कि पूरी घाटी और दक्षिण कश्मीर के ज्यादातर इलाकों में पीडीपी का प्रभाव रहा है, जहां इसे सत्ता से हटने के 10 महीने बाद भी एंटी इनकंबेंसी का नुकसान झेलना पड़ा है. साफ है कि जमीनी स्थिति बहुत अधिक नहीं बदली है.
सत्ता में रहते हुए भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के कारण पीडीपी को जमीनी स्तर पर पर्याप्त नुकसान उठाना पड़ा है.
महत्वपूर्ण यह है कि बीजेपी को नुकसान नहीं उठाना पड़ा है, जबकि इसके मंत्री भी भ्रष्टाचार में लिप्त पाए गये थे. नुकसान कम से कम हो इसका प्रबंध बीजेपी ने कर लिया, जिसके लिए प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता का आभार माना जाना चाहिए.
खराब होती छवि को देखते हुए संभवत: पीडीपी को पीएजीडी गठबंधन से जुड़ने का सबसे ज्यादा फायदा हुआ क्योंकि इसके उम्मीदवारों को कई स्थानों पर दूसरी पार्टियों के वोट भी मिल गये. गठबंधन के बाकी दलों को उतना फायदा नहीं हुआ.
1999 से पार्टी प्रमुख होने के नाते और 2016 में मुख्यमंत्री बनने तक जमीन से जुड़े रहने की वजह से महबूबा मुफ्ती को बड़ा सम्मान मिला है. बीते कुछ महीनों में भी उसने दिखाया है कि जमीनी स्तर पर राजनीतिक रूप से खुद को खड़ा करने में उसे महारत हासिल है.
बहरहाल केंद्रीय गृहमत्री राजनाथ सिंह के दौरे के समय एक प्रेस कॉन्फ्रेन्स में पत्थरबाजों के लिए उनकी टिप्पणी (टॉफी लेने गये थे?) से उनकी छवि को उन लोगों के बीच बहुत नुकसान पहुंचा, जो मुख्य धारा और अलगाववादी राजनीति के बीच हाशिए पर हैं.
2014 की शुरुआत में पीडीपी की लोकप्रियता चरम पर थी, जब नेशनल कान्फ्रेन्स के उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली सरकार के पांच साल पूरा होने के बाद लोगों में काफी गुस्सा और असंतोष था. 2014 के आम चुनाव में इस प्रदर्शन का असर दिखा जब पीडीपी ने न केवल सभी सीटें जीतीं, बल्कि इसने पूरी घाटी में हर विधानसभा क्षेत्र पर जीत हासिल की.
इसका श्रेय मोटे तौर पर महबूबा को जाता है. वह जमीन से जुड़ी नेता थीं, जबकि उनके पिता ने सरकार और नीतियों का प्रबंधन किया. बहरहाल पार्टी लोकसभा चुनावों के बाद संतुष्ट हो गयी और बाढ़ के कारण बर्बाद हुए दक्षिण कश्मीर (पीडीपी का जहां मुख्य जनाधार है) में लोगों की मुश्किलें कम करने के लिए उसी साल सितंबर में पार्टी ने कुछ खास नहीं किया.
जब नवंबर-दिसंबर में चुनाव हुए तो पीडीपी को घाटी में सबसे ज्यादा सीटें मिलीं (44 में 28 सीटें) लेकिन लोकसभा चुनावों के दौरान इसने जो क्लीन स्वीप का नजारा देखा, उसमें पार्टी कहीं खड़ी नहीं दिखी. अगर इसने घाटी में सभी सीटें जीत ली होतीं तो इसे सरकार बनाने के लिए किसी गठबंधन की आवश्यकता नहीं होती.
सत्ता में रहने की वजह से एंटी इनकंबेंसी का असर तो दिखना ही था, लेकिन बीजेपी के साथ जुड़ने की वजह से भारी नुकसान का खतरा था. ये चुनाव संकेत देते है कि पार्टी को अब भी इसका नुकसान उठाना पड़ रहा है.
(लेखक ने ‘The Story of Kashmir’ और ‘The Generation of Rage in Kashmir’ पुस्तकें लिखी हैं. उनसे ट्विटर पर @david_devadas पर संपर्क किया जा सकता है. आलेख में दिए गए विचार उनके निजी विचार हैं और क्विंट का उससे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 25 Dec 2020,08:06 AM IST