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जम्मू-कश्मीर का परिसीमन: राज्य की राजनीति पर क्या होगा असर

आर्टिकल 370 हटाने के बाद अब ये तर्कसंगत है कि केन्द्र सरकार जम्मू और कश्मीर में परिसीमन की प्रक्रिया शुरू करे.

संजय कुमार
नजरिया
Updated:
जम्मू-कश्मीर का परिसीमन 
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जम्मू-कश्मीर का परिसीमन 
(फोटो: क्विंट)

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2008 में चौथी बार हुए परिसीमन में कुछ राज्य छूट गए थे. गुवाहाटी हाई कोर्ट में 2001 की जनगणना की वैधता को चुनौती देने वाली याचिका के कारण उत्तर पूर्वी राज्यों में परिसीमन रोक दिया गया. इसी जनसंख्या गणना के आधार पर 2008 में परिसीमन किया गया था. मणिपुर के मामले में भी एक केस चल रहा था.

झारखंड का परिसीमन हुआ जरूर, लेकिन रांची हाई कोर्ट ने उसे लागू करने पर रोक लगा दी, क्योंकि अनुसूचित जनजातियों के लिए सुरक्षित विधानसभा सीटों की संख्या पहले की तुलना में कम थी. जम्मू और कश्मीर में परिसीमन नहीं किया गया. दलील दी गई कि राज्य का अलग संविधान है. लिहाजा परिसीमन आयोग बनाने का अधिकार राज्य के पास है. राष्ट्रीय परिसीमन आयोग को जम्मू-कश्मीर के चुनाव-क्षेत्रों की सीमाएं नहीं बदलनी चाहिए.

आर्टिकल 370 हटाने के बाद या दूसरे शब्दों में बेअसर हो जाने के बाद अब ये तर्कसंगत है कि केन्द्र सरकार जम्मू और कश्मीर में परिसीमन की प्रक्रिया शुरू करे. लेकिन ये प्रक्रिया हड़बड़ी में शुरु की गई है, जबकि 2008 में जिन राज्यों में परिसीमन नहीं हुआ था, वहां ये प्रक्रिया अब भी लटकी पड़ी है. इससे कई सवाल पैदा होते हैं. सबसे बड़ा सवाल है कि जम्मू और कश्मीर में नए परिसीमन का क्या असर पड़ेगा?

क्यों होता है परिसीमन?

हर व्यक्ति के वोट का मूल्य एक समान हो, इस सिद्धांत को बनाए रखने के लिए देश के सभी संसदीय क्षेत्र और सभी राज्यों के विधानसभा क्षेत्र कुछेक अपवादों के अलावा एक आकार के होने चाहिए.

परिसीमन की प्रक्रिया संसदीय क्षेत्रों के आकार में समानता बनाए रखने के लिए की जाती है, ताकि जनसंख्या में असामान्य वृद्धि के कारण विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग कारणों से पैदा हुई वोटरों की संख्या में असमानता खत्म हो. शहरी क्षेत्रों में और खासकर मेट्रोपोलिटन शहरों में जनसंख्या वृद्धि की दर ज्यादा होती है, क्योंकि गांवों से लोग आजीविका की तलाश में शहरों और महानगरों में आते हैं. उनका विश्वास होता है कि गांवों की तुलना में शहरों में आजीविका के साधन ज्यादा होते हैं. इसी प्रकार कई राज्यों में पहाड़ों से लोगों के प्रवास के भी यही कारण होते हैं.

माना जाता है कि किसी राज्य में सभी विधानसभा क्षेत्र एक आकार के होने चाहिए. लिहाजा परिसीमन आयोग का काम इस प्रकार विधानसभा क्षेत्रों के आकार तय करना है, कि कमोबेश वो एक आकार के हों. जम्मू और कश्मीर में भी परिसीमन से यही उम्मीद की जाती है. प्रवास के सामान्य कारणों को देखते हुए माना जा सकता है कि जम्मू क्षेत्र की जनसंख्या में कश्मीर क्षेत्र की तुलना में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है. नई परिसीमन से दोनों क्षेत्रों में विधानसभा क्षेत्रों की संख्या में भी बदलाव आने की संभावना है.

जम्मू-कश्मीर के 10 बड़े विधानसभा क्षेत्रों में 9 जम्मू में हैं

जम्मू और कश्मीर में कुल 87 विधानसभा क्षेत्र हैं. इनमें 46 कश्मीर में और 37 जम्मू में हैं. लद्दाख में सिर्फ चार विधानसभा क्षेत्र हैं. फिलहाल कश्मीर में वोटरों की औसत संख्या 81,778 है, जबकि जम्मू में वोटरों की औसत संख्या 91,593 है, यानी कश्मीर की तुलना में लगभग 10,000 ज्यादा. लद्दाख के विधानसभा क्षेत्रों का आकार तुलनात्मक तौर पर छोटा है, जहां औसतन 41,546 वोटर हैं. वोटरों की संख्या के मुताबिक जम्मू और कश्मीर के दस बड़े विधानसभा क्षेत्रों में नौ जम्मू में हैं. सिर्फ बाटामालू विधानसभा क्षेत्र कश्मीर में पड़ता है, जो वोटरों की संख्या के मुताबिक तीसरा सबसे बड़ा विधानसभा क्षेत्र है.

जब विधानसभा क्षेत्रों की सीमाएं फिर से तय की जाएंगी, जिनका आधार सभी विधानसभा क्षेत्रों में वोटरों की संख्या का समान होना है, तो निश्चित रूप से जम्मू क्षेत्र में सीटों की संख्या बढ़ेगी, जबकि कश्मीर में सीटों की संख्या घटेगी. दोनों क्षेत्रों में बीजेपी, पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस का जनाधार अलग-अलग है. परिसीमन का असर राज्य की राजनीति में इन पार्टियों के राजनीतिक आधार पर भी पड़ेगा. 

राज्य में कांग्रेस के सामने आने वाली चुनौती बड़ी हो गई है

जम्मू में सीटों की संख्या बढ़ने से सीधे तौर पर बीजेपी को फायदा होगा, जिसका प्रदर्शन इस क्षेत्र में अच्छा रहा है और जिसमें अगले कुछ सालों में अपना जनाधार बढ़ाने की क्षमता है. 2019 लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने तीन लोकसभा सीटें जीती थीं (27 विधासभा क्षेत्रों में बढ़त). बीजेपी को 46.4% वोट हासिल हुए थे.

चुनावी इतिहास में ये आंकड़ा सबसे ज्यादा था. इस लिहाज से कश्मीर में अपना जनाधार बढ़ाए बिना बीजेपी राज्य की राजनीति में अपना अहम स्थान बना सकती है. पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस मुख्य रूप से कश्मीर में मजबूत हैं. कश्मीर क्षेत्र में सीटों की संख्या में कमी से राज्य में उनकी चुनावी संभावनाओं पर प्रतिकूल असर पड़ेगा.

2019 के लोकसभा चुनाव में कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस ने तीन सीटें जीतीं, लेकिन जम्मू क्षेत्र में उसे सिर्फ 7.9% वोट मिले. पीडीपी ने 2014 में जिन सीटों पर विजय हासिल की थी, उन्हें गंवा दिया. पीडीपी का प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा और उसे मात्र 2.4% वोट मिले. कांग्रेस का जनाधार कम हो सकता है (2019 चुनावों में 28.5%), फिर भी दोनों क्षेत्रों में पार्टी का जनाधार लगभग एक समान है. लिहाजा दोनों क्षेत्रों में सीटों की संख्या में बदलाव का कांग्रेस के चुनावी समीकरण पर कोई खास असर नहीं पड़ेगा, लेकिन निश्चित रूप से राज्य में कांग्रेस के सामने आने वाली चुनौती बड़ी हो गई है.

संजय कुमार प्रोफेसर हैं. फिलहाल Centre for the Study of Developing Societies (CSDS) के निदेशक हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके निजी हैं. इसमें क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है.

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Published: 01 Sep 2019,10:23 AM IST

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