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(जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी जैसी लोकप्रिय नेता का विरोध क्यों और कैसे किया? उनके जन्मदिन पर ये जानने की कोशिश करते हैं. ये आर्टिकल पहली बार 8 अक्टूबर, 2016 को छापा गया था. पाठकों के लिए हम इसे फिर से पेश कर रहे हैं)
1970 के दशक से पहले कुछ साल तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लिए बेहतरीन साबित हो रहे थे. पहले लोकसभा चुनाव में भारी जीत और फिर पाकिस्तान के खिलाफ जंग में फतह. उनका 'गरीबी हटाओ' का नारा सुपरहिट था और पोखरन में परमाणु परीक्षण से उनका कद और भी बढ़ गया था.
इन्हीं वजहों से कभी 'गूंगी गुड़िया' कही जाने वाली इंदिरा गांधी देश की सबसे ताकतवर नेता बन गईं. इतनी ताकतवर कि एक कांग्रेसी नेता ने कह दिया कि इंदिरा ही इंडिया है और इंडिया इंदिरा है.
5 जून को पटना के गांधी मैदान में बड़ी रैली को संबोधित करते हुए जेपी ने कहा था कि हमें संपूर्ण क्रांति चाहिए, इससे कम कुछ भी नहीं. उसके बाद जो आंदोलन शुरू हुआ, उसकी परिणति तीन साल बाद इंदिरा गांधी की भारी हार में हुई. और देश में पहली बार केंद्र में गैर कांग्रेसी सरकार बनी.
समाजवादी जेपी को यह बड़ा अजीब लग रहा था कि सत्ता का केंद्रीकरण हो. उनकी राजनीति समावेशी थी, जिसमें विवादित मुद्दों को भी साथ लेकर चलने की गुंजाइश हो. जिसमें विरोधी विचार धाराओं को कुचला नहीं जाता हो, उसको भी अपनी जगह दी जाए.
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक के बाद देश में फिर से उसी तरह की परिस्थियां पैदा हो रहीं हैं. देशभक्ति के नाम पर उन गलतियों पर भी पर्दा डालने की कोशिश हो रही है, जिनका सुधार बेहतर कल के लिए बहुत जरूरी है.
लेकिन भेड़चाल के माहौल में कौन इतिहास के पन्नों से सबक लेने की जहमत उठाता है.
सत्तर के दशक में अपार सफलताओं के बीच इंदिरा गांधी शायद यह भूल गई थीं कि लोगों के लिए रोजी-रोटी का मुद्दा सबसे बड़ा होता है. उस दशक के शुरुआती साल में महंगाई चरम पर थी. नवंबर 1973 से दिसंबर 1974 के बीच महंगाई की दर कभी भी 20 पर्सेंट के नीचे नहीं गई.
सितंबर 1974 में तो महंगाई की दर 33 पर्सेंट के पार चली गई थी. और आग में घी डालने का काम किया बढ़ती बेरोजगारी और गरीब-अमीर के बीच बढ़ते फासले ने.
फिलहाल देश में आर्थिक हालात कैसे हैं. महंगाई की दर काफी कंट्रोल में है. लेकिन, बेरोजगारी और असमानता? द टाइम्स ऑफ इंडिया की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, बेरोजगारी पांच साल में सबसे ज्यादा है. हालात ऐसे हैं कि गांवों में आधी आबादी को रेगुलर काम नहीं मिल रहा है. और गरीब-अमीर के बीच फासला 1993 के सबसे ज्यादा है. कम से कम शहरी इलाकों में तो यही हाल है.
जेपी के संघर्ष की कहानी से क्या सीखने को मिलता है? सबसे बड़ी सीख यह है कि बिजली, सड़क, पानी और रोजगार के मुद्दों को अनदेखा करने से सरकार की लोकप्रियता घटते-बढ़ते देर नहीं लगती है. सरकार को हिंदी भाषी इलाकों में प्रचलित कहावत 'भूखे भजन नहीं होए गोपाला' को कभी नहीं भूलना चाहिए. चाहे वो भजन भगवान का हो या फिर देशभक्ति का.
अटल बिहारी वाजपेयी वाली पिछली एनडीए सरकार ने जेपी को भारत रत्न से नवाजा था. क्या मौजूदा एनडीए सरकार उनकी जिंदगी से कुछ सबक लेगी?
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