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ब्रिटिश फौज के साथ तीन महीने तक लुकाछिपी खेलने के बाद 17 जून, 1858 को झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने एक आखिरी कोशिश की. सिंधिया के ग्वालियर किले के नजदीक फूलबाग की वो कोशिश ब्रिटिश हुकूमत के दबाव को दूर करने की बेचैनी का नतीजा था.
नाकाम कोशिश ने एक बागी को जन्म दिया. बागी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों की Eighth Hussars की टुकड़ी के साथ कोटा की सराय और ग्वालियर के बीच दो-दो हाथ किए. अंग्रेजी फौज में रानी फंस गईं और घायल हो गईं. उनके जख्म घातक साबित हुए और जंग में वीरता से लड़ते हुए एक वीरांगना को वीरगति प्राप्त हुई.
ये जंग रानी की पहली और आखिरी जंग थी. लेकिन रानी का साहस और वीरता पीढ़ियों तक भारतीयों के दिलो-दिमाग में घर कर गए. वीरता से जुड़ी अनगिनत कहानियां पैदा हुईं. दरअसल अंग्रेज 1853 से ही झांसी पर आंख गड़ाए बैठे थे. झांसी पर कब्जा करने का जरिया बना “गोद लेने का कानून”, जिसका रानी विरोध कर रही थी.
लक्ष्मीबाई (बनारस में जन्मीं लक्ष्मीबाई का असली नाम मणिकर्णिका था) और झांसी के राजा गंगाधर राव ने 1851 में आनंद राव (बाद में उनका नाम दामोदर राव रखा गया) को गोद लिया था. सालभर पहले उनका बेटा स्वर्ग सिधार गया था.
उस वक्त अंग्रेजी हुकूमत का किसी ने विरोध नहीं किया. रानी को 60,000 रुपये की सालाना पेंशन और रहने के लिए एक महल दे दिया गया. हां, उन्हें ब्रिटिश अदालत और पुलिस के अधिकारक्षेत्र से बाहर रखा गया.
भारतीय इतिहासकारों ने काफी कोशिश की, लेकिन झांसी की रानी को एक असंतुष्ट बागी से ज्यादा का दर्जा नहीं मिल पाया.
रानी की निजी सेना भंग कर दी गई और किले में 12th Bengal Native Infantry रेजिमेंट की तैनाती हो गई. इस व्यवस्था के खिलाफ रानी ने दो बार गवर्नर जनरल से फरियाद की, लेकिन डलहौजी ने उनकी बात अनसुनी कर दी.
फिर भी “सबकुछ शांतिपूर्वक चलता रहा. नए नियम को लेकर भी ज्यादा व्याकुलता नहीं थी.” साल 1857 में ये लिखा था इतिहासकार सुरेन्द्र नाथ सेन ने. भारत सरकार ने बगावत के सौ साल पूरा होने पर इसका उल्लेख किया था.
मेरठ छावनी में 10 मई को विद्रोह हुआ. इसके अगले दिन बगावत की लहर दिल्ली पहुंची. लेकिन भारतीय और ब्रिटिश – दोनों इतिहासकारों ने लिखा कि इस दौरान कम्पनी के अधिकारियों को झांसी से कोई परेशानी नहीं हुई.
बगावत के बारे में कमिश्नर डब्ल्यू सी अर्सकाइन लिखते हैं, लक्ष्मीबाई ने शिकायत की थी कि उन्हें महल को उड़ाने की धमकी मिलने पर बागियों को भारी रकम चुकानी पड़ी. उन्होंने 8 जून को ब्रिटिश पुरुषों और महिलाओं के कत्लेआम पर भी अफसोस जताया. अर्सकाइन ने फोर्ट विलियम को जानकारी दी कि रानी ने “किसी भी रूप में बागियों की मदद नहीं की थी.”
लेकिन जैसे-जैसे बुंदेलखंड में बगावत फैलती गई, अंग्रेजों के कत्लेआम में लक्ष्मीबाई की भूमिका को लेकर ब्रिटिश हुकूमत का शक गहराता गया. बगावत के कारण अंग्रेजों को झांसी छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा, जिससे आसपास के बुंदेला सामंतों को झांसी पर हमला बोलने का मौका मिल गया. बगावत के दौरान ही ओरछा और दातिया के राजपूत सामंतों ने झांसी पर हमला किया था.
बताया जाता है कि इन हमलों से निपटने के दौरान ही लक्ष्मीबाई, धोंडू पंथ (नाना साहब) और तात्या टोपे जैसे मशहूर बागी नेताओं के सम्पर्क में आईं, जिन्होंने बाद में उनकी काफी मदद की. झांसी से लक्ष्मीबाई को कोंच, फिर काल्पी और अंत में ग्वालियर भागना पड़ा था. इस दौरान इन बागी नेताओं ने उनकी काफी मदद की. ग्वालियर में रानी की मौत हुई थी.
राष्ट्रवादी, लक्ष्मीबाई को “विद्रोह की अगुवाई करने वाली नेता” बताने पर तुले हुए थे. इस लिहाज से वो आजादी की पहली लड़ाई की हीरोइन थीं.
उस वक्त के कुछ ब्रिटिश अधिकारियों को रानी की मौत पर अफसोस जरूर हुआ, लेकिन इंग्लैंड में कई ऐसे भी थे जिन्होंने रानी को “विश्वासघाती” करार दिया. इसमें दो राय नहीं कि अहमदुल्ला और तात्या टोपे जैसे इक्के-दुक्के बागियों को छोड़कर ज्यादातर लोगों ने निजी कारणों से बगावत की राह चुनी. उनके व्यक्तिगत हितों पर आंच आई, तब जाकर उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद किया.
सेन लिखते हैं,
इसी सोच ने न चाहते हुए भी उन्हें असंतुष्ट बागी बना दिया.
(ये आर्टिकल रानी लक्ष्मीबाई के जन्मदिन पर द क्विंट के आर्काइव्स से निकालकर दोबारा प्रकाशित किया जा रहा है. मूल रूप से इसका प्रकाशन 18 फरवरी 2018 को किया गया था.)
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Published: 17 Jun 2019,03:09 PM IST