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कांग्रेस लहर और गठबंधन से झारखंड में आधी हो सकती है BJP

कांग्रेस से जीत की उम्मीद किसी को नहीं थी जिसने 2014 के चुनाव में महज 8.7 प्रतिशत वोट हासिल किया था.

आदित्य मेनन
नजरिया
Updated:
झारखंड में पिछले चुनाव में 14 में से 12 लोकसभा की सीटें जीतने वाली बीजेपी की संख्या आधी हो सकती है
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झारखंड में पिछले चुनाव में 14 में से 12 लोकसभा की सीटें जीतने वाली बीजेपी की संख्या आधी हो सकती है
फोटोः शिवाजी दुबे/द क्विंट

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कोलेबिरा उपचुनाव का परिणाम झारखंड में बीजेपी के लिए इसलिए बुरी खबर नहीं है कि पार्टी चुनाव हार गयी, बल्कि इसलिए कि जीत कांग्रेस की हुई है. बीजेपी को उम्मीद थी कि उसका सीधा मुकाबला झारखंड पार्टी उम्मीदवार मेनन एक्का से होगा. एक्का के पति एनोस एक्का इस सीट से तीन बार विधायक रह चुके हैं और हत्या के एक मामले में सजा के बाद यह उपचुनाव हुआ. लेकिन, कांग्रेस से जीत की उम्मीद किसी को नहीं थी जिसने 2014 के चुनाव में महज 8.7 प्रतिशत वोट हासिल किया था.

बीजेपी के लिए झारखंड में दूसरी बुरी खबर है कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस, झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम), बाबूलाल मरांडी की झारखण्ड विकास मोर्चा (प्रजातांत्रिक) (जेवीएम-पी) और राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) मिलकर गठबंधन बनाने जा रहे हैं. अगर ऐसा होता है तो झारखंड में पिछले चुनाव में 14 में से 12 लोकसभा की सीटें जीतने वाली बीजेपी की संख्या आधी हो सकती है.

कांग्रेस की जीत के हीरो हैं पार्टी के प्रदेश प्रमुख डॉ अजय कुमार, जो पूर्व आईपीएस अफसर और मूल रूप से कर्नाटक के हैं. वास्तव में कुमार ने ही इस सीट से लो प्रोफाइल, मगर समर्पित कार्यकर्ता नमन बिक्सल कोंगाडी को चुनाव लड़ाने का फैसला किया था. इसके लिए उन्होंने अपने सहयोगी झारखंड मुक्ति मोर्चा से भी बैर मोल ली. उन्होंने जेएमएम की उस अपील की अनदेखी कर दी, जिसमें विपक्ष के साझा उम्मीदवार मेनन एक्का का समर्थन करने का आग्रह किया गया था. लगभग उसी समय कांग्रेस को बाबूलाल मरांडी की जेवीएम (पी) का समर्थन मिल गया, जिससे खुद कुमार पहले जुड़े थे. इससे इस सीट पर जीत सम्भव हो सकी। झारखंड पार्टी चौथे स्थान पर रही.

बीजेपी समर्थकों का कहना है कि यह ईसाई बहुल इलाका है और इस सीट की डेमोग्रैफिक्स ऐसी है कि बीजेपी के आगे बढ़ने की भी एक सीमा है. मगर, कांग्रेस का उभार सभी आदिवासी बहुल सीटों पर समान रूप से होता दिख रहा है.

आदिवासी सुरक्षित सीटों पर कांग्रेस का उभार

आदिवासी बहुल सीटों पर बीजेपी का सीमित विकास सिर्फ कोलेबिरा तक सीमित नहीं है. यह 2014 के बाद से झारखंड में हुए उपचुनावों में नजर आता है. जिन 7 सीटों पर उपचुनाव हुए उनमें से तीन-लोहरदगा, लिट्टीपारा और कोलेबिरा-आदिवासियों के लिए सुरक्षित थे. ये उपचुनाव क्रमश: 2015, 2017 और 2018 में हुए। 2014 के आम चुनाव, 2014 में हुए विधानसभा चुनाव और उसके बाद हुए उपचुनावों में अगर इन विधानसभा क्षेत्रों के वोट शेयर की तुलना करें तो एक साझा ट्रेंड देखने को मिलता है.

विश्लेषण की सुविधा के लिए बीजेपी और ऑल झारखंड स्टुडेंट्स यूनियन के वोट शेयर को साझा करके एनडीए के रूप में देखें और इसी तरह कई सीटों पर एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ चुकी कांग्रेस, जेएमएम, जेवीएम-पी व आरजेडी के वोट को जोड़कर यूपीए के तौर पर देखें तो बीजेपी और उसके सहयोगी एजेएसयू का साझा वोट शेयर स्थिर रहा है, जबकि कांग्रेस, जेएमएम और जेवीएम-पी के वोट शेयर में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई है.

झारखंड में आदिवासियों के लिए 28 सीटें सुरक्षित हैं. विधानसभा चुनाव में बीजेपी और आजसू ने इनमें से 12 सीटें जीती हैं और जेएमएम का 13 पर कब्जा है. कांग्रेस एक भी एसटी सीट जीतने में सफल नहीं हुई. हालांकि पार्टी ने 2015 में लोहरदगा और इसी हफ्ते कोलेबिरा सीट पर जीत हासिल की.

आदिवासियों के बीच काग्रेस के उभार की वजह है कि छोटी आदिवासी पार्टियों के वोट कांग्रेस की ओर शिफ्ट हुए हैं. पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा ने अपनी पार्टी जय भारत समानता पार्टी का कांग्रेस में विलय कर लिया है, जबकि एनोस एक्का की गिरफ्तारी के बाद से पार्टी संघर्ष कर रही है. वहीं कांग्रेस से नजदीकी बढ़ा रही बाबूलाल मरांडी की पार्टी की लोकप्रियता भी आदिवासियों के बीच बढ़ी है.

सामान्य सीटों पर BJP को बढ़त

सामान्य सीटों पर परिस्थिति कुछ अलग है. बीजेपी यहां बेहतर कर रही है. वास्तव में बीजेपी को उपचुनावों में चार सामान्य सीटों का फायदा हुआ है- पांकी, गोड्डा, सिल्ली और गोमिया.

कांग्रेस और सहयोगियों का जनाधार बढ़ा है. बीजेपी ने भी लोकसभा और विधानसभा चुनाव के दौरान जो वोट घटे थे, उस खाई को उपचुनावों के दौरान भरने की कोशिश की है.

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एसटी और दूसरी सीटों पर बीजेपी की किस्मत अलग-अलग होने की वजह शायद रघुवर दास के नेतृत्व में राज्य सरकार की नीतियां हैं जो झारखंड के पहले गैर आदिवासी मुख्यमंत्री हैं. दास का गैर आदिवासी होना एक बड़ी वजह है. जमीन के उपयोग संबंधी नीतियों में बदलाव ने आदिवासियों को भड़का दिया है. अब राज्य सरकार के लिए आदिवासियों की जमीन अधिग्रहित करना आसान हो गया है. झारखंड के आदिवासियों के लिए अपनी जमीन की सुरक्षा मुख्य सवाल है. दूसरी ओर ऐसा लगता है कि मुख्यमंत्री गैर आदिवासियों में स्वाभाविक रूप से लोकप्रिय हैं खासकर ओबीसी और सुविधा-प्राप्त जातियों में.

बीजेपी के लिए बुरे सपने की तरह है साझा विपक्ष

एक बात साफ है कि चाहे एसटी की सीटें हों या सामान्य वर्ग की, अगर जेएमएम, कांग्रेस, जेवीएम-पी और आरजेडी एक साथ आ जाते हैं तो बीजेपी और उसके सहयोगी आजसू की दिक्कत बहुत बढ़ जाएगी.

हर लोकसभा सीट पर दोनों गठबंधनों के वोटो को जोड़ें तो लोकसभा सीटों को लेकर हमें दो तरह की सम्भावनाएं दिखती हैं:

  • पहली, अगर पार्टियों के वोट शेयर 2014 के लोकसभा चुनाव की तरह हो
  • दूसरी अगर पार्टियों के वोट शेयर 2014 के विधानसभा चुनाव की तरह हो

हम सभी विधानसभा क्षेत्रों में दोनों गठबंधन के घटक दलों में हरेक को लोकसभा चुनाव में मिले वोटों को जोड़ेंगे. झारखंड में हर लोकसभा सीटों पर 5 या 6 विधानसभा क्षेत्र हैं. हम इसमें तीसरी सम्भावना भी रखते हैं जिसे सी-वोटर ने दिसम्बर में नेशन ट्रैकर के साथ राज्य में जोड़ा है. इसने कांग्रेस, जेएमएम और आरजेडी को सहयोगी के तौर पर माना है और जेवीएम (पी) को अलग करके देखा है. लेकिन हम विश्लेषण के लिए उन्हें भी एक साथ गठबंधन में रखेंगे तो देखें कि कैसी तस्वीर बनती है.

अगर 2014 के लोकसभा चुनावों की तरह पार्टी के वोट शेयर समान रहते हैं तो एनडीए की ताकत 12 सीटों से घटकर 8 की रह जाती है और यूपीए की टैली 2 सीट से बढ़कर 6 हो जाती है. लेकिन अगर विधानसभा चुनाव के वोट शेयर को मानें, तो बीजेपी और भी नीचे गिरकर 3 सीटों पर चली जाती है और यूपीए बढ़कर 11 हो जाती है. सी-वोटर के मुताबिक यूपीए (जेवीएम-पी समेत) को 9 सीटें मिल सकती हैं और एनडीए को पांच, जो लोकसभा में सीटों की वर्तमान संख्या से 7 कम है.

अगर सीट के हिसाब से बढ़ते हैं तो यूपीए राजमहल, दुमका (दोनों सीटें 2014 में जेएमएम ने जीती थीं) और पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा के गृहक्षेत्र सिंहभूम जैसे आदिवासी बहुल निर्वाचन क्षेत्रों में निर्णायक रूप से आगे है. गठबंधन गोड्डा में भी लाभ की स्थिति में रहेगी, जहां मुस्लिम और आदिवासी मिलकर आबादी का 40 फीसदी हैं और यादवों की भी अच्छी खासी तादाद है. इसी तरह चतरा में भी आदिवासी, दलित और मुसलमान मिलकर कुल मतदाताओं का 50 फीसदी हो जाते हैं.

दूसरी तरफ बीजेपी को धनबाद और रांची जैसे ज्यादातर शहरी विधानसभा सीटों पर बढ़त है. धनबाद में वामपंथी बड़ी ताकत हैं और अगर कांग्रेस का उनके साथ कोई तालमेल होता है तो समीकरण बदल सकता है.

बड़ी तस्वीर दिखाता है झारखंड

झारखंड में बीजेपी की चिन्ता की वजह दो ट्रेंड हैं जो देश के बाकी हिस्सों में भी समान रूप से विकसित हो रहे हैं. पहला है गठबंधन का उभरना, जो बीजेपी के लिए देश के उन सभी राज्यों में भी चिन्ता का विषय हैं जहां विपक्ष के बीच एकता में कमी की वजह से उसे सफलता मिली. उदाहरण के लिए समाजवादी पार्टी-बहुजन समाज पार्टी के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में गठबंधन से बीजेपी को बहुत अधिक नुकसान होने का अनुमान है. कुछ लोग कहते हैं कि बीजेपी अकेले उत्तर प्रदेश में 50 सीटें हार सकती है.

दूसरा ट्रेंड है किसान, दलित और आदिवासियों के बीच खास तौर से कांग्रेस की लोकप्रियता का बढना. इसी वजह से पार्टी को छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में सफलता मिली और इसी ने गुजरात में भी बीजेपी को भयभीत कर दिखाया.

झारखण्ड में भी बीजेपी को इन दोनों कारणों से नुकसान होने के आसार हैं. बहरहाल यहां यह आगाह करना भी जरूरी है कि बहुत कुछ कांग्रेस की क्षमता पर भी निर्भर करता है कि वह जेएमएम और जेवीएम-पी को किस तरह एक साथ ले चल सकती है. ये दोनों पार्टियां झारखण्ड में एक-दूसरे की दुश्मन रही हैं. कांग्रेस का समर्थन बढ़ने से जेएमएम में डर हो सकता है कि बड़े सहयोगी के रूप में उसकी स्थिति ख़तरे में है.

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Published: 26 Dec 2018,06:55 AM IST

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