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झारखंड में आदिवासियों की पत्थलगड़ी परंपरा को लेकर एक बार फिर अराजक स्थिति बनती नजर आ रही है. 2018 में खूंटी जिले में पत्थलगड़ी को लेकर हजारों लोगों पर देशद्रोह के मामले वापस करने की घोषणा हेमंत सोरेन ने मुख्यमंत्री बनने के साथ ही की थी. इसके एक महीने के भीतर ही पत्थलगड़ी को लेकर पश्चिमी सिंहभूम जिले के गुदड़ी प्रखंड के बुरू गुलीकेरा गांव में सात लोगों की निर्मम हत्या कर दी गई.
इसके साथ ही झारखंड में माओवाद को लेकर राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप तेज हो गए हैं. इन राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप के बीच यह समझने की जरूरत है कि वास्तव में पत्थलगड़ी परंपरा क्या है और इस समय इसका इस्तेमाल किन चीजों के लिए किया जा रहा है.
पत्थलगड़ी का शाब्दिक अर्थ है पत्थर गाड़ना. पुराने जमाने में लगभग हर जगह पर इस तरह की परंपराएं रही हैं. लोग अपना खेत, खलिहान, घर आदि की हदबंदी के लिए पत्थर या खूंटा गाड़ते थे. अगर आप गैर आदिवासी समाज में देखेंगे तो गांवों में आज भी कई जगह आपको मजबूत लकड़ी का खूंटा या ईंट आदि हदबंदी के निशान के तौर पर देखने को मिल जाएंगे.
आदिवासी समाज में खासतौर पर झारखंड और इससे सटे आदिवासी इलाकों में घर, जमीन, खेल-खलिहान आदि की हदबंदी के लिए पत्थर का इस्तेमाल किया जाता है. आदिवासी समुदाय और गांवों में विधि-विधान/संस्कार के साथ पत्थलगड़ी (बड़ा शिलालेख गाड़ने) की परंपरा पुरानी है. इनमें मौजा, सीमाना, ग्रामसभा और अधिकार की जानकारी रहती है.
वंशावली, पुरखे और मरनी (मृत व्यक्ति) की याद संजोए रखने के लिए भी पत्थलगड़ी की जाती है. कई जगहों पर अंग्रेजों-दुश्मनों के खिलाफ लड़कर शहीद होने वाले वीर सूपतों के सम्मान में भी पत्थलगड़ी की जाती रही है. एक गांव के घर, जमीन, खेत-खलिहान यानी उसके क्षेत्र को चिन्हित करने के लिए बड़े पत्थर गाड़े जाते रहे हैं जो यह बताते हैं कि यहां तक अमुक गांव की सीमा है या आज की भाषा में कहें तो पंचायत की सीमा है.
पड़हा की सीमाओं को पत्थर गाड़कर चिन्हित किया जाता है और यह पूरा क्षेत्र पड़हा राजा के अधिकार क्षेत्र में आता है. इस क्षेत्र में पड़हा राजा और गांव की सीमा में मुखिया की अनुमति के बिना कुछ नहीं हो सकता, यहां तक बाहरी व्यक्ति की एंट्री भी.आदिवासी समाज में यह व्यवस्था जल-जंगल-जमीन के संरक्षण का काम भी करती रही है. इसको ऐसे भी देखा जा सकता है कि इसके अंदर आदिवासी समाज का अपना कानून लागू होता है और किसी बाहरी की एंट्री निषेध रहती है.
पत्थलगड़ी का मौजूदा अभियान पूर्ववर्ती सरकारों द्वारा छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम को कमजोर करने की कोशिशों को देखते हुए शुरू हुआ और 2016 में उस समय इसमें तेजी आई जब सरकार की ओर से इस संबंध में नए सिरे से कोशिश की गई. यह बात दीगर है कि पूरे राज्य में भारी विरोध के चलते सरकार की यह कोशिशें सिरे न चढ़ सकीं लेकिन आदिवासियों के बीच संशय गहराने लगा.
माओवादी ताकतों ने अपनी कमजोर होती पकड़ को मजबूत करने के लिए इसका इस्तेमाल करना शुरू किया. कई गांवों में आदिवासी, पत्थलगड़ी कर 'अपना शासन, अपनी हुकूमत' की मुनादी शुरू कर दी गई. इसके लिए सहारा लिया गया संविधान की पांचवी अनुसूची में स्वायत्त क्षेत्र और अनुच्छेद 15 के प्रावधानों का. आदिवासियों ने तमाम जगहों पर अपने आधार कार्ड, राशन कार्ड आदि प्रशासन को लौटाना शुरू कर दिया और पत्थलगड़ी कर घोषणा की जाने लगी कि-
ताजा हत्याकांड के बाद पत्थलगड़ी को लेकर झारखंड की सियासत तो गरमा ही गई है. पूरे आदिवासी समाज में बहस भी तेज होने लगी है. पत्थलगड़ी के जरिए गवर्नमेंट ऑफ इंडिया अधिनियम 1935 के प्रभावी होने की बात की जा रही है जबकि आजादी के बाद इस अधिनियम को खत्म कर दिया गया था. आदिवासी विषयों के जानकार प्रेमचंद मुर्मू के मुताबिक, पत्थलगड़ी पुरानी परंपरा है लेकिन संविधान के प्रावधानों की गलत व्याख्या की जा रही है. जाहिर है आम आदिवासियों को बरगलाने का काम किया जा रहा है.
कुल मिलाकर, पत्थलगड़ी आंदोलन हमारी राज्य व्यवस्था और राजनीतिक नेतृत्व की स्वार्थपरक कार्यशैली, ईमानदारी की कमी और जनता को हाशिए पर रखकर चलने की प्रवृत्ति का नतीजा है. जरूरत है आदिवासी समूहों से ईमानदार और खुलेपन के साथ राजनीतिक संवाद की, जिसकी पहल कोई भी सरकार या हमारा राजनीतिक क्लास नहीं कर पाता है. मुद्दे को मूल से भटकाने के लिए कानून-व्यवस्था को मूल मुद्दे के तौर स्थापित करने और इससे निपटने की घोषणाओं पर पक्ष-विपक्ष केंद्रित हो जाता है.
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