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क्या किसी ने ये सोचा था कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में कोई ऐसा वाइस चांसलर आएगा, जो कैंपस में टैंक रखने की वकालत करेगा? कभी नहीं. कम से कम मैंने या फिर मेरे जैसे सैकड़ों लोगों ने, जिन्होंने जेएनयू मे पढ़ाई-लिखाई की, वो तो ये सोच भी नहीं सकते. मेरे लिए सुबह का अखबार देखना और ये पढ़ना किसी बुरे सपने जैसा था.
जेएनयू के वाइस चांसलर जगदीश कुमार कह रहे थे कि छात्रों को राष्ट्रवाद की प्रेरणा देने के लिये टैंक को कैंपस में रखना चाहिये. जब वो ऐसा कह रहे थे तब उनके साथ बीजेपी के सांसद, कभी सेना प्रमुख रह चुके और मौजूदा सरकार में विदेश राज्यमंत्री जनरल वीके सिंह भी बैठे थे.
कहने को कह सकते है कि वो एक पूर्व सैनिक को इंप्रेस करने की कोशिश कर रहे थे या यों कहें कि उनकी जुबान फिसल गई. या फिर वो वाकई यही कहना चाह रहे थे. उन्हें ये वाकई लग रहा था कि हाल में विश्वविद्यालय जिन वजहों से सुर्खियों में रहा है, उससे निकलने का यही एकमात्र रास्ता है.
वामपंथ और उदारवाद जेएनयू की पहचान रही है. वो एक ऐसा विश्वविद्यालय रहा है, जिसकी बौद्धिक क्षमता का लोहा देश तो क्या, विदेशों में में माना जाता है. कहते हैं कि जेएनयू में जो विचार आज आते हैं, वो दूसरी जगह कई साल बाद दोहराये जाते हैं.
लेकिन जेएनयू पिछले दिनों अलग-अलग कारणों से खबरों में रहा. उसकी बौद्धिकता का मजाक उड़ाया गया. उसके स्वरूप पर सवाल खड़े किये गये. सबसे बड़ी बात, उस पर आरोप लगा कि वो कहीं न कहीं देशद्रोहियों का अड्डा बन गया है. ऐसी घटनायें हुईं, जो अविश्वसनीय हैं, हैरान करती हैं, परेशान करती हैं.
1980 के उत्तरार्ध का वो काल आज भी मेरे जेहन में है, जहां होस्टल में कभी भी रैगिंग नहीं होती थी. जहां जूनियर-सीनियर का कोई भेद नहीं था. जहां टीचर्स को भी फर्स्ट नेम से बुलाने का चलन था. जहां मैंने कभी नहीं सुना कि किसी छात्र ने किसी भी किसी लड़की से छेड़छाड़ की हो.
लाइब्रेरी में देर रात तक पढ़ाई करने के बाद कोई भी लड़की सुनसान सड़क पर या फिर पहाड़ियों के बीच झाड़-झंखाड़ से होते हुये कभी आ जा सकती थी बिना डरे, बिना सहमे, बिना आशंकित हुये कि उसके साथ किसी तरह का दुर्व्यवहार हो सकता है.
स्त्री-पुरुष के बीच कोई दीवार नहीं थी. सब बराबर, खुला स्वस्थ वातावरण. कभी भी किसी भी प्रोफेसर से मुलाकात कर सकता था. सवाल-जवाब हो सकते थे. छात्र और प्रोफेसर के बीच सामंती संस्कार नहीं, बराबरी का रिश्ता था. विचार-विमर्श, बहस-मुबाहिसा विश्वविद्यालय की तहजीब थी.
देश में रहते हुए निकारागुआ और मैक्सिको में हो रहे सामाजिक-राजनीतिक बदलावों पर घंटों चर्चा होती थी. बाहर के बड़े-बड़े विद्वान छात्रों के तीखे सवालों से डरते थे. अहिंसा पर जोर था. मिल-बैठकर मसले सुलझाने का रिवाज था. मारपीट या हिंसा करने वालों का सामाजिक बहिष्कार होता था.
उनसे कोई बात नहीं करेगा. वो लड़के एकदम अलग-थलग पड़ गये. इतने हताश हुए कि कैंपस ही छोड़कर चले गये. इसी तरह कावेरी होस्टल से शिकायत आई कि दो लड़कों ने एक लड़की से बदतमीजी की. फिर मेस में मीटिंग हुयी. सामाजिक बहिष्कार का फैसला सुनाया गया. वो दोनों लड़के जब तक कैंपस में रहे, कोई उनसे घुलता-मिलता नहीं था. बाकी लोगों को भी संदेश मिल गया. न जवाबी हिंसा और न ही गाली गलौज. अपने आप शांति से गांधीवादी तरीके से हल निकल गया.
इसी तरह सतलुज होस्टल में एक लड़के ने एक कुत्ते को बेरहमी से पीटा. कुत्ते का इलाज तो हुआ ही, सारे छात्रों ने मिलकर उस छात्र को बाध्य कर दिया कि वो कुत्ते से माफी मांगे. इस घटना का जिक्र करके बाद में बाहर के लोगों ने जेएनयू का मजाक भी उड़ाया, पर ये बात इस ओर इशारा कर गई कि इंसान हो या जानवर, सबको सम्मान से जीने का हक विश्विद्यालय देता है. कोई ऊंच नीच-नहीं, सब बराबर. फिर चाहे वो कोलकाता, मुंबई से पढ़कर आया हो फिर बिहार-उड़ीसा की किसी छोटी जगह से. बस टैलेंट की कद्र.
कैंपस पर निश्चित तौर पर वामपंथ हावी था. पर जब 1989 में चीन के त्येन आन मन चौक पर लोकतंत्र बहाली की मांग कर रहे छात्रों पर टैंक चढ़ाई गयी, छात्र गोलियों से मारे गये, तो विश्वविद्यालय में गम और गुस्सा था. जब एसएफआई ने चीनी सरकार के कदम को सही ठहराने की कोशिश की, तो छात्र उबल पड़े. वामपंथ की नींव हिल गयी. उसी साल सालिडारिटी नाम का एक मोर्चा बना और भारी मतों से मोर्चा छात्र संघ चुनाव में जीता.
अपनी तबीयत में वामपंथी होने के बाद भी उदारवाद का बोलबाला था. दकियानूसी के लिये स्पेस नहीं था. तर्क की जीत होती थी. इसलिये स्टालिनवाद का भी घोर विरोध होता था और हिंदुत्ववाद का भी. कश्मीर के मसले पर भी खुल कर चर्चा होती थी. तर्क और विवेक के दायरे में, संविधानवाद की हद में, लोकतांत्रिक तरीके से किसी भी विचार के लिये अपने आप को रखने की स्वतंत्रता थी. छद्म राष्ट्रवाद के लिये जगह नहीं थी. कट्टरपंथी वामपंथ को भी किनारे का रास्ता कैंपस दिखा देता था.
ऐसे में जब ये खबर आयी कि कुछ छात्रों ने भारत के टुकड़े होने के नारे लगाये, तो सहसा विश्वास नहीं हुआ. खबर टीवी पर चली और उसके बाद जिस तरह जेएनयू को बदनाम किया गया, उसने मेरे मन में कई सवाल खड़े कर दिये. ऐसा लगा जैसे कि एक मुहिम-सी शुरू हो गयी है ये साबित करने की कि जेएनयू देशद्रोहियों का अड्डा बन गया है, वहां सिर्फ आतंकवादी बसते हैं. इस चक्कर में कन्हैया जैसे बच्चे को जेल की हवा भी खाना पड़ी, उसको पीटा भी गया.
हैरानी की बात ये है कि जो लड़के वीडियो में 'भारत तोड़ने' के नारे लगा रहे थे, उनका आजतक पता नहीं चला, पकड़ना तो दूर की बात है. ऐसे में अगर कुछ लोग पूरे घटनाक्रम को साजिश की नजर से देखें, तो आश्चर्य कैसा ? मैं तो इतने साल वहां रहा, तमाम तरह के विचारों से रूबरू हुआ. कभी नहीं लगा कि वहां देशद्रोह को बढ़ावा दिया जा रहा है या देशद्रोही बसते हैं.
जेएनयू को अगर ये साबित करना पड़ा कि वो बाकी देश की तरह ही देशभक्त है, तो ये डूब मरने वाली बात है. खुले विचारों की आजादी और विचारों के बीच आपसी टकराव विमर्श को परिमार्जित करता है, कमजोर नहीं करता.
भारत एक ऐसी परंपरा का वाहक है, जहां शास्त्रार्थ की लंबी श्रृंखला है. ऐसे में एक विश्वविद्यालय को महज इसलिये दंडित किया जाये कि वो सत्ताधारी विचारों का इंजन बनने के लिये तैयार नहीं है, तो ये भारत की बौद्धिक परंपरा के स्वास्थ्य के लिये ठीक नहीं है. ये हमें नहीं भूलना चाहिये कि हम याज्ञवल्क्य के वंशज है. शंकराचार्य के वंशज है. स्वामी विवेकानंद के वंशज है.
यानी गुरु का दर्जा गोविंद से भी बड़ा माना गया है, क्योंकि ईश्वर का ज्ञान वही कराते हैं. गुरु मार्ग ही ईश्वर मार्ग है. आधुनिक युग में वाइस चांसलर का दर्जा किसी गुरु से कम नहीं है. अगर वो ही छात्रों पर तोहमत लगाये, तो क्या ये मान लिया जाये कि वो गुरु कर्म में असफल रहे या फिर वो गुरुधर्म का पालन नहीं कर रहे हैं?
जगदीश कुमार जी को ये समझना होगा कि कमी विद्यार्थियों में नहीं, उनमें है. विश्वविद्यालय पहले भी भारतधर्मी था और आगे भी रहेगा. उसे अपनी राष्ट्रीयता साबित करने की आवश्यकता नहीं है. राष्ट्रीयता उन्हें साबित करनी है, जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया और आंदोलनकारियों का उनके जीवनकाल में ही मजाक उड़ाया. टैंक युद्ध का प्रतीक है, हिंसा का प्रतीक है, शांति का नहीं.
गांधी जी के देश में इस तरह की बातें शोभा नहीं देतीं. ये गांधी जी का, उनके त्याग और बलिदान का अपमान है.
अंत में, छात्रों को प्रेरणा किताबें देती है, महापुरुषों की जीवनियां देती हैं. अगर विश्वविद्यालय शास्त्र की जगह शस्त्र की शिक्षा देने लगे, तो मान लीजिये कि समाज को कई गहरा रोग लग गया है. जगदीश जी, आप गुरु हैं, शास्त्र का उपदेश दें, शस्त्र का नहीं.
(लेखक आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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