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नौकरी! ये शब्द अर्थव्यवस्था की हालत पर होने वाली हर बहस में रुकावट पैदा कर देता है. क्या नौकरियों के मौके बन रहे हैं? इसका जवाब इस बात पर निर्भर करता है कि सवाल कौन पूछ रहा है और जवाब कौन दे रहा है.
सरकार के अंदर और बाहर, दोनों जगह. न तो सरकार, न ही विशेषज्ञ, किसी के पास इसका साफ जवाब नहीं है. ये बात उभरकर तब सामने आई जब सरकार ने एक कमेटी बना दी ये सुझाव देने के लिए कि नई नौकरियों की निगरानी कैसे की जाए.
इस मुद्दे के राजनीतिक निहितार्थ हैं. विपक्ष में रहते हुए 'रोजगारविहीन विकास' का मुहावरा गढ़ने वाली बीजेपी जब आज केंद्र और 18 राज्यों में (अपने दम पर या सहयोगियों के साथ) सत्ता में है, तो उसे यही मुहावरा डराने लगा है. इसे सिर्फ विपक्ष ही मुद्दा नहीं बना रहा. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे संबद्ध संस्थाओं ने बेरोजगारी पर निराशा जताई है और सरकार को नई नौकरियों के मौके बनाने पर ध्यान देने को कहा है.
कोई अचरज नहीं कि हर तरफ हलचल तेज हो गई है. मंत्रियों के समूह, सचिवों की समितियां, नीति आयोग के अंदर एक टास्क फोर्स, वगैरह-वगैरह. लेकिन विडंबना ये है कि शहर में ढिंढोरा तो सभी पीट रहे हैं, गोद में छोरे की तरफ किसी का ध्यान नहीं है.
केंद्र और राज्य सरकारों के अलग-अलग विभागों और संस्थानों में 20 लाख से ज्यादा पद खाली पड़े हैं.
सिर्फ केंद्र सरकार के 4.2 लाख से ज्यादा पद खाली हैं. उन्हें भरने की क्यों नहीं सोचते? इन रिक्तियों का होना जानबूझकर की जाने वाली लापरवाही का सबूत है. और इसका नतीजा दिखता है सरकारी कामकाज की नाकामी के रूप में. एक नजर डालते हैं कहां हैं ये वैकेंसी और कैसे इनका संबंध जनता की जरूरत और गवर्नेंस की नाकामी से है.
इस बात को कोई सरकार नकार नहीं सकती कि नागरिकों, विशेषकर बच्चे, महिलाएं और सुविधाहीन वर्ग के जीवन और स्वतंत्रता की रक्षा उसकी प्राथमिकता है. भारत में आबादी और पुलिस बल का अनुपात बहुत कमजोर है और इसे बेहतर करने का राग लगातार सुनाई देता है.
केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में पुलिसकर्मियों के स्वीकृत पदों में से करीब आधे खाली पड़े हैं. इसके बाद है कर्नाटक और पश्चिम बंगाल का नंबर जहां पुलिसकर्मियों के एक-तिहाई पद खाली हैं.
देश की शिक्षा व्यवस्था की बिगड़ी हालत कोई रहस्य नहीं है. लेकिन इसी के साथ सच्चाई ये है कि शिक्षकों के 5,23,973 पद खाली हैं, जिनमें 4,17,057 सर्व शिक्षा अभियान के तहत चलाए जाने वाले प्राथमिक स्कूलों में हैं. सबसे ज्यादा खाली पद बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड और राजस्थान में हैं.
कुपोषण एक ऐसा संकट है, जिसकी चर्चा भारत में काफी कम होती है.
सभी राज्यों में आंगनबाड़ी कर्मचारियों और सहायकों के 2,36,479 पद खाली पड़े हैं.
बिहार और उत्तर प्रदेश इस सूची में सबसे आगे हैं. उसके बाद हैं तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और ओडिशा. इस संकट को और बढ़ाती है प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की बदहाली, जहां डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों के 40,294 पद खाली हैं. यहां तक कि एम्स के 6 नए केंद्रों में भी स्टाफ के 22,000 से ज्यादा पद खाली हैं.
इसी तरह नक्सलवाद, उग्रवाद और सीमापार आतंकवाद से जूझने वाले केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल में अलग-अलग स्तरों पर 78,000 से ज्यादा पद खाली हैं. तो इंडिया पोस्ट में 49,000 और आयकर विभाग में 32,000 पद खाली पड़े हैं.
इन पदों के खाली रहने के कई कारण गिनाए जाते हैं. कभी प्रक्रिया में होने वाली देरी तो कभी जरूरी कौशल की कमी. लेकिन क्या कौशल की इसी कमी को पूरा करने के लिए कौशल विकास मंत्रालय नहीं बनाया गया है?
फिर सवाल आता है बजट का. आपके पास दो विकल्प हैं- खाली पदों को भरने की लागत चुनें या उन्हें खाली रहने देने की कीमत चुकाएं. लेकिन क्या कोई अर्थव्यवस्था प्राथमिक शिक्षा और स्वास्थ्य में पैसे लगाए बिना विकास कर सकती है?
क्या भारत की विकास की महत्वाकांक्षा निम्न स्तर के मानव विकास का बोझ उठा सकती है?
सरकार के बारे में आम धारणा है कि बड़े आकार की सरकार ठीक नहीं होती! सरकारों का काम लोगों और संस्थानों की सुरक्षा सुनिश्चित करना है. सरकार की जगह कोई नहीं ले सकता. मानव विकास, जैसे स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए पैसों और अधिकारियों की जरूरत होती है. हो सकता है कि डिजिटाइजेशन कुछ सेक्टरों में मानव श्रम की जरूरत को खत्म कर दे. मसलन शिक्षकों के बदले टीचिंग-ऐप्स, ग्रामीण स्वास्थ्य के लिए टेली-मेडिसिन. असली सवाल हैं कि क्या हमारा समाज और तंत्र ऐसी छलांग के लिए तैयार है? गवर्नेंस को मॉडर्नाइज करने का रास्ता क्या होना चाहिए? क्या हमने इस बारे में कभी चर्चा की है?
बहरहाल, जरूरत है कि सरकारी कामकाज में राजनीतिक वादों और नाकामी के अंतर को भरा जाए. साथ ही ये चुनौती भी है कि सामाजिक समरसता और राजनीतिक स्थिरता को सुनिश्चित करने के लिए रोजगार की गरिमा बनाए रखी जाए.
(शंकर अय्यर राजनीतिक-आर्थिक मामलों के जानकार हैं. इन्होंने 'एक्सिडेंटल इंडिया: ए हिस्ट्री ऑफ द नेशंस पैसेज थ्रू क्राइसिस एंड चेंज' किताब लिखी है. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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Published: 26 Sep 2017,07:03 PM IST