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कैराना लोकसभा उपचुनाव के नतीजे से बीजेपी सरकार को जो झटका लगा है, उसके बाद कई रातों तक नरेंद्र मोदी को शायद ही नींद आएगी. 2014 में वोटरों के बीच उन्हें बादशाह का जो दर्जा मिला था, उसकी वजह उत्तर प्रदेश में बीजेपी की चौंकाने वाली जीत थी.
राज्य में सहयोगी अपना दल की 2 सीटों के साथ बीजेपी को 73 सीटों पर अप्रत्याशित जीत मिली थी. इससे भी दिलचस्प बात यह थी कि बाकी बची 7 सीटों पर गांधी परिवार और मुलायम सिंह यादव परिवार ने कब्जा किया था. यूपी के दो दिग्गज नेताओं, मायावती और अजित सिंह की पार्टियां तो खाता तक नहीं खोल पाई थीं.
यूपी की हैरान करने वाली जीत के कारण ही अमित शाह को बीजेपी अध्यक्ष की कुर्सी मिली थी. उन्हें नए ‘चाणक्य’ का खिताब दिया गया, जिन्होंने राज्य में बेजान पड़े पार्टी संगठन में जान फूंकी थी. शाह को उन पिछड़ी जातियों और दलितों में भी बेहद दबे-कुचलों को बीजेपी के साथ लाने के लिए शाबाशी मिली, जिनकी अनदेखी हुई थी.
2017 के विधानसभा चुनावों में यह फॉर्मूला फिर से सफल रहा. कम से कम बीजेपी समर्थकों को तो यही लगता है. उनका मानना है कि संगठन की ताकत, सटीक जातीय गणित और ध्रुवीकरण के चलते इस चुनाव में बीजेपी ने इतनी सीटें जीतीं, जिसकी खुद पार्टी ने कल्पना नहीं की थी. हालांकि, जब से यूपी में संयुक्त विपक्ष की चर्चा शुरू हुई है, तब से समीकरण बदल रहे हैं.
यह बात सच है कि राजनीति में भविष्यवाणी करना खतरनाक होता है और हालात कुछ दिनों में बदल जाते हैं, लेकिन अभी जो स्थिति दिख रही है, उसने मोदी की नींद जरूर उड़ा दी होगी.
1. बीजेपी के अपराजेय होने का मिथ, यह भरोसा कि मोदी-शाह की जोड़ी को हराया नहीं जा सकता, कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद ही टूट गया था. अब यह कहने में हर्ज नहीं है कि न सिर्फ उन्हें हराया जा सकता है, बल्कि राजनीति के कुछ सबक भी सिखाए जा सकते हैं.
2. धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण की जो योजना बनाई गई थी, उसमें मोदी और संघ परिवार एक हद तक सफल हुए थे. हिंदू समुदाय के एक वर्ग के मन में मुसलमानों को लेकर सोच बदली है. इसका मोदी और शाह ने चुनावी फायदा भी उठाया. हालांकि कैराना ने साबित कर दिया कि इस रणनीति की भी अपनी सीमाएं हैं और इससे एक हद से अधिक चुनावी फायदा नहीं मिल सकता.
3. यह मिथ कि जाटव को छोड़कर सारे दलित और यादव को छोड़कर सभी ओबीसी को हिंदुत्व के रंग में रंगा जा सकता है. इन जातियों को लुभाने के लिए बीजेपी-आरएसएस लंबे समय से कोशिश कर रहे हैं और उन्हें इसमें कुछ सफलता भी मिली थी. कैराना के नतीजे ने साबित कर दिया कि अगर वे सोच रहे थे कि ये जातियां उनके साथ लंबे समय के लिए हो गई हैं, तो उनका यह भ्रम टूट गया होगा.
4. यह डर था कि मुस्लिम उम्मीदवार खड़ा करने पर आरएसएस-बीजेपी को थोक में हिंदू वोटों को अपने पक्ष में करने का मौका मिल जाएगा. इसलिए कैराना में विपक्ष की तरफ से तबस्सुम को उतारने पर कुछ लोगों ने त्योरियां चढ़ गई थीं. उनकी जीत ने साबित कर दिया है कि यह फिजूल का डर था और जमीनी हालात कुछ और ही हैं.
5. 2014 लोकसभा चुनाव के बाद कहा गया है कि मुजफ्फरनगर दंगों की वजह से जाटों ने बीजेपी के पक्ष में वोट डाले थे. दंगों से मुसलमानों और जाटों में दरार पड़ गई थी. इस बार उपचुनाव में ऐसी खबरें आईं कि दोनों समुदायों को अपनी गलती का अहसास हो गया है और वे सांप्रदायिकता के झांसे में नहीं आए.
कैराना में ही हुकुम सिंह ने 2017 विधानसभा चुनाव से पहले उफवाह उड़ाई थी कि मुसलमानों की वजह से हिंदुओं को अपने पुरखों का घर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. हुकुम सिंह ने बाद अपना बयान वापस ले लिया था, लेकिन तब तक नुकसान हो चुका था. पार्टी के दूसरे नेता तब तक मुस्लिम विरोधी प्रचार को दूसरे लेवल तक ले जा चुके थे. उनके निधन के बाद इस सीट पर उपचुनाव हुआ और बीजेपी ने उनकी बेटी मृगांका को टिकट दिया था.
अब असली सवाल पर आते हैं. क्या मोदी को यूपी में हराया जा सकता है? क्या विपक्ष यहां मिलकर काम कर सकता है? क्या एक बड़े संघर्ष के लिए विपक्षी पार्टियां आपसी मतभेद भुला सकती हैं? सच तो यह है कि इस बारे में फैसला करने के लिए अखिलेश, मायावती और अजित सिंह के पास ज्यादा समय नहीं बचा है. यूपी की जनता उन्हें पर्याप्त संकेत दे चुकी है. उन्हें न सिर्फ राज्य की जनता, बल्कि अपना वजूद बचाने के लिए एक-दूसरे को गले लगाना पड़ेगा. अगर तीनों अलग-अलग चुनाव लड़ते हैं, तो उनकी बर्बादी तय है.
गोरखपुर, फूलपुर और कैराना उपचुनाव का नतीजा स्पष्ट हैः अगर विपक्षी दल मिलकर चुनाव लड़ते हैं, तो सत्ता उन्हें मिल सकती है. अगर वे अलग-अलग लड़ते हैं, तो उनकी हार पक्की है. अगर विपक्षी पार्टियां साथ मिलकर चुनाव लड़ती हैं, तो बीजेपी चाहे जो भी करे, उसे आधी सीटें भी शायद ही मिलेंगी. अगर ऐसा होता है, तो मोदी के लिए अपने दम पर बहुमत हासिल करना मुश्किल हो जाएगा.
बीजेपी की सत्ता सिर्फ केंद्र में ही नहीं है, वह पंजाब और दिल्ली को छोड़कर उत्तर भारत के सभी राज्यों में सरकार चला रही है. इसलिए उसे दोहरे सत्ता-विरोधी लहर का सामना करना पड़ेगा. अगर यूपी में बीजेपी के हाथ से 40 सीटें निकल जाती हैं, तो क्या मोदी 2019 में 225 सीटों का आंकड़ा पार कर पाएंगे?
(लेखक आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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