advertisement
अब तक इस भारतीय वीरांगना, जो औपनिवेशिक गुंडागर्दी के सामने ताल ठोक के खड़ीं थीं, की जीवन यात्रा के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं. इसलिए कंगना राणावत और राधा कृष्ण जगरलामुडी द्वारा निर्देशित ‘मणिकर्णिका: द क्वीन ऑफ झांसी’ हमारा ध्यान आकर्षित करती है. कहीं-कहीं सच के सही चित्रण पर शंका होने के बावजूद फिल्म लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचती है. फिल्म की शुरुआत में दिखाया जाता है कि कंगना 14 साल की मणिकर्णिका का रोल प्ले कर रही हैं. जब वह अपने धनुष-बाण से एक सीजीआई टाइगर पर अपना निशाना साधती हैं तब उनकी आसमानी धोती और लंबा सा पल्लू हल्की हवा में लहरा रहा होता है. यह एक ऐसा मूमेंट हैं, जहां पर कंगना ने झांसी की रानी के किरदार के साथ न्याय किया है.
मणिकर्णिका में लक्ष्मीबाई का किरदार 16 साल की बाल वधू से 29 साल की विधवा योद्धा रानी के रूप विकसित होते हुए नहीं दिखाई दिया. इसीलिए कठोर और दमनकारी सामाजिक नियमों के तहत रानी की यात्रा और परिवर्तन को किसी ने नहीं देखा.
मेरे लिए, मणिकर्णिका ने इतिहास की कुछ भूली हुई नारीवादी हस्तियों को फिर से जिंदा किया. इसमें कोई शक नहीं है कि आजादी से पहले मराठा महिलाएं भारत की सबसे प्रभावशाली हिंदू महिला नेता रही हैं. शिवाजी की माता जीजाबाई को उनकी राजगद्दी के पीछे की ताकत माना जाता था और उनकी छोटी बहू ताराबाई ने सात साल शासन को संभाला और औरंगजेब की सेना के खिलाफ बिखरते हुए मराठा राज्य को एक राष्ट्रीय ताकत में बदल दिया.
इंदौर की रानी अहिल्याबाई होलकर ने सन् 1767 से अपने 30 साल लंबे शासनकाल में वाराणसी से लेकर जगन्नाथ पुरी, अयोध्या, द्वारका और सोमनाथ तक घाट, सड़क और मंदिर बनवाए जिनमें से ज्यादातर मौजूद हैं और कार्यरत हैं. इन सभी महिलाओं ने राजसभा और समाज में एक मजबूत मराठा महिला उपस्थिति की राह को आसान बनाया. बड़ोदा पर इसका प्रभाव पड़ा था.
महारानी चिमनाबाई द्वितीय की उत्तराधिकारी महारानी शांतादेवी मेरी दादी सास थीं. उन्होंने कार्यकारी तौर पर समय-समय पर राज्य का राजकाज संभाला था और यह सम्मान पाने वाली वह राजवंश की इकलौती महिला थीं. हमारे पास गदर के समय का पोर्टेचर या कॉस्ट्यूम का कोई डॉक्यूमेंट मौजूद नहीं है, 1800 के दशक के बाद से हमारे अपने परिवार ने शाही महिलाओं के मजबूत नारीवादी चित्रण पेश किए हैं और कहीं-कहीं पर उन्होंने मर्दाना रूख पेश किया है.
‘मणिकर्णिका’ में जैसा दिखाया है, के विपरीत राजसी महिलाओं की जितनी भी तस्वीरें मौजूद हैं उनमें वे बनारसी, चंदेरी या पैठनी पहने हुए हैं, क्योंकि 19वीं शताब्दी के अंत तक यही हैंडलूम मौजूद था और उसी से बने कपड़े पहने जाते थे. शिकार और घुड़सवारी जैसे मौकों पर माहेश्वरी साड़ी पसंद की जाती थी, क्योंकि यह कपड़ा मजबूत और कम ट्रांसपेरेंट होता था. यह तो कहने की जरूरत ही नहीं है कि उनकी साड़ी का पल्लू अगर सिर पर नहीं तो कंधे पर हमेशा ही रहता था. इससे पता चलता है कि उन्होंने समाज में एक क्रांतिकारी भूमिका जरूर निभाई, लेकिन शाही परिवारों में महिलाओं का पहनावा रूढ़िवादी था जो कि शाही मानकों के हिसाब से था.
फिर भी, लक्ष्मीबाई की जिंदगी और विरासत ने आजादी से पहले के भारत में महिलाओं के बारे में रखे जाने वाले पुराने विचारों का खंडन किया और भविष्य के सुधारों की नींव रखी, खासकर राज्य हड़प नीति को खत्म किया.
बड़ौदा के एक घर की बहू होने के नाते, मराठा कुलमाताओं की इन पीढ़ियों से जुड़कर मैं अपने आप में गर्व महसूस करती हूं. उन्होंने आज का मंच तैयार करने के लिए अपने समय की सामाजिक बुराईयों और राजनीतिक दबाव की जमकर खिलाफत की. आज मेरी दोनों बेटियां पद्मजा, नारायणी और मुझे जिंदगी और आजादी के बीच चुनाव नहीं करना पड़ेगा.
यह भी पढ़ें: ‘Manikarnika’ Review: पूरी फिल्म में तलवारबाजी से छाईं कंगना रनौत
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: 12 Feb 2019,10:57 AM IST