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जाटों की जीवटता को लेकर एक चर्चित कहावत है, ‘जाट मरा तब जानिए, जब तेरहवीं हो जाए'. इस कहावत का इस्तेमाल मैं कर्नाटक और बीजेपी के संदर्भ में कर रहा हूं, ताकि आप समझ सकें कि खेल खत्म नहीं हुआ है. ठीक है कि कर्नाटक में मोदी की बीजेपी के हाथ से सत्ता निकल गई. किला फतह करने की रणनीति में माहिर ‘चाणक्य‘ कहे जाने वाले अमित शाह के पैंतरे कर्नाटक में नाकाम हो गए. बीजेपी के सीएम येदियुरप्पा 55 घंटे के सीएम रहकर बेदखल हो गए. कांग्रेस ने जेडीएस से तुरंत हाथ मिलाकर बीजेपी को उसी की ‘गोवा वाली चाल’ से चित कर दिया.
अब कर्नाटक में हार कर कांग्रेस और जेडीएस की सरकार बन रही है. 37 सीटें पाकर भी कुमारस्वामी सीएम बन रहे हैं. ये सब ठीक है, लेकिन अगर आप ये सोच रहे हैं कि चोटिल बीजेपी चैन से तमाशा देखेगी, तो आप गलतफहमी में हैं. अब आप 'जाट मरा, तब जानिए' वाली कहावत पर गौर कीजिए और समझने की कोशिश कीजिए कि क्या साम-दाम-दंड-भेद के जरिए सत्ता हासिल करने को तत्पर बीजेपी इस शर्मनाक शिकस्त के बाद चुपचाप बैठ कर पांच साल इंतजार करेगी?
104 सीटें पाकर सिर्फ 7 सीटों से चूक गई अमित शाह और मोदी की बीजेपी 37 सीटों वाले कुमारस्वामी को सीएम की गद्दी पर बैठकर सरकार चलाते देखती रहेगी? मेरे हिसाब से तो नहीं.
बीजेपी के लिए अब सवाल सिर्फ कर्नाटक का नहीं है, खतरा कर्नाटक से उठ रहे सियासी चक्रवात के घनीभूत होने का है. उन्हें अंदाजा है कि कि ये चक्रवात यूं ही बढ़ता गया, तो 2019 में बीजेपी घेरने की हद तक मजूबत हो जाएगा. विपक्षी एकता के ऐसे किसी तूफानी चक्रवात के विस्तार से पहले बीजेपी उसे तोड़ना चाहेगी, ताकि ऐसे किसी गठजोड़ को मौकापरस्त दलों का कुर्सीपरस्त गठबंधन साबित किया जा सके. जनता के सामने बार-बार बताया जा सके कि देखो, ये वो लोग हैं, जो बीजेपी को रोकने के लिए सात फेरे लेकर बेमेल रिश्ते तो गांठ लेते हैं, लेकिन दो कदम साथ नहीं चल सकते.
कांग्रेस और जेडीएस के लिए इस सरकार को बनाए और चलाए रखना बहुत बड़ी चुनौती होगी. दोनों दलों के नेताओं की महत्वाकांक्षाएं, अंतर्विरोध और सत्ता में हिस्सेदारी को लेकर अंदरूनी टकराहटों में ही ही बीजेपी अपना हथियार तलाशेगी. उनके घर को आग लगाने के लिए उनके घर में ही चिराग तलाशे जाएंगे.
कांग्रेस-जेडीएस के गठबंधन वाली इस ‘स्वामी सरकार’ की स्थापना में जिन डीके शिवकुमार ने अहम भूमिका निभाई, उनका अतीत और उनकी कमाई भी कांग्रेस को जलील करने का हथियार बन सकता है. सिद्धारमैया की सरकार में ऊर्जा मंत्री रह चुके शिव कुमार के दर्जनों ठिकानों पर पिछले साल आयकर के छापे पड़ चुके हैं.
पांच साल में सैकड़ों करोड़ के धन-बली बनने वाले शिव कुमार इस सरकार के संकटमोचक भी और बीजेपी के लिए मुफीद शिकार भी. देखना होगा कि कांग्रेसी विधायकों को अपने पांच सितारा होटल में मेहमान बनाकर और छिपाकर रखने वाले कुमार के कारनामों की फाइल कहीं आने वाले दिनों में कही कांग्रेस के लिए संकट की वजह न बन जाए. जिन्हें दिल्ली के 'चाणक्य’ के मुकाबले 'कर्नाटक का चाणक्य’ बताकर पेश किया जा रहा है, ये बात बीजेपी को भला ये कैसे हजम होगी.
इस बीच कुमारस्वामी सरकार में दोनों दलों की साझेदारी के फॉर्मूले का ऐलान हो गया है. इसके मुताबिक सीएम समेत जेडीएस के 13 मंत्री और कांग्रेस के 20 मंत्री होंगे. बीजेपी की नजर अब उन विधायकों पर रहेगी, जो बहुमत के वक्त सारे ऑफर ठुकराकर भी नई कुर्सी नहीं पा सके. ये मत समझिए कि फंसाने-पटाने का खेल अब पांच साल के लिए बंद हो गया है.
अब जरा समझिए कि कर्नाटक के इस नाटक के बाद क्यों डर गई होगी बीजेपी? गोरखपुर और फूलपुर से बीजेपी को जो चुभाने वाले संदेश मिले थे, उसका वृहद रूप बीजेपी को कर्नाटक में दिख रहा होगा.
बीजेपी को रोकने के लिए दो परस्पर विरोधी दलों का आनन-फानन में साथ आना, सरकार बनाना, कांग्रेस की तरफ से आधी सीट वाले दल को सीएम की कुर्सी ऑफर करना, कुमारस्वामी को विपक्षी नेताओं की तरफ से बधाइयों के गुलदस्ते मिलना, उनके शपथ ग्रहण समारोह में गैर भाजपा दलों के बड़े नेताओें के पहुंचने की खबरें आना, ये सब मोदी और शाह की पेशानी पर चिंता की लकीरें गहरी करने के लिए काफी हैं.
कांग्रेस नेताओं ने कर्नाटक के इस नाटक के दौरान ऐलान भी कर दिया है कि लोकसभा चुनाव हम साथ लड़ेंगे. जाहिर है अचानक बना ये गठजोड़ बीजेपी के लिए कर्नाटक में सबसे बड़ी मुसीबत बनने वाला है.
कर्नाटक के मुद्दे पर जिस ढंग से मायावती, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, चंद्रशेखर राव, चंद्रबाबू नायडू से लेकर ममता बनर्जी तक ने बीजेपी पर हमलावर रुख अख्तियार किए रखा और कई विपक्षी दल अपने-अपने राज्यों पर सड़क पर उतरते दिखे, उसके संकेत साफ हैं. पहली बात तो ये कि गैर भाजपा दलों को ये बात समझ में आ गई है कि बीजेपी से लड़ना से है, तो आपस में मिलना होगा. अलग-अलग लड़े-भिड़े, तो 2019 में फिर मारे जाएंगे. मोदी और शाह से यही डर उन्हें एकजुट होने का रास्ता दिखा रहा है.
मोदी की शैली, आक्रामकता, लोकप्रियता और देश में अपार जनसमर्थन गैर भाजपा दलों को 2019 से जितना डरा रहा है, उतना ही डर अब बीजेपी को कांग्रेस के साथ क्षेत्रीय दलों के संभावित गठजोड़ से होगा. मोदी और अमित शाह का आत्मविश्वास और निडर अंदाज उन्हें कभी इस खतरे को सार्वजनिक रूप से कबूल करने भले ही न दे, लेकिन भीतर ही भीतर बीजेपी की सारी तैयारियां अब इसी दिशा में होंगी.
उससे पहले इसी साल के आखिर में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में चुनाव होना है. उसके बाद लोकसभा फतह के काफिले निकल जाएंगे. इन तीन राज्यों में वैसे तो मोटे तौर पर कांग्रेस बनाम बीजेपी ही है. बीजेपी को चुनौती देने की ताकत रखने वाली बहुत मजबूत क्षेत्रीय पार्टी नहीं है, लेकिन कुछ-कुछ पॉकेट में बीएसपी ठीक-ठाक वोट हैं.
बीते विधानसभा चुनाव की ही बात करें, तो कुल मिलाकर 6.29 फीसदी वोट पाने वाली बीएसपी को एमपी में चार सीटें भी मिली थीं. इसी तरह बीएसपी को छत्तीसगढ़ में 4.27 फीसदी और राजस्थान में 3.77 फीसदी वोट मिले थे. हम सब देख चुके हैं कि पिछले साल एमपी के उपचुनाव में बीएसपी का उम्मीदवार खड़ा न करना दो सीटों पर कांग्रेस की जीत की वजह बना था. लोकसभा चुनाव की बात करें, तो 1996 से ही बीएसपी मध्य प्रदेश की लगभग सभी सीटों पर लड़ती रही है और राज्य में तीसरे नंबर की पार्टी के तौर पर उसे 4 से 8 फीसदी के बीच वोट मिलता रहा है. बीएसपी 1996 में 2 और 2009 में 1 सीट जीत भी चुकी है.
जाहिर है कि कांग्रेस और बीएसपी में अगर इस बार सीटों को लेकर तालमेल हो गया, तो बीजेपी के लिए परेशानी तो होगी ही. हालांकि पिछले चुनाव में मोदी लहर ने बीजेपी की झोली में 54 फीसदी वोट देकर 29 में से 27 सीटें दिला दीं. मतदाताओं में मोदी को लेकर वही आकर्षण कायम रहा, तो भी मध्य प्रदेश में बीजेपी के लिए 2014 दोहराना आसान नहीं होगा.
बीएसपी और कांग्रेस के साथ आने पर इसकी झांकी तो इस विधानसभा चुनाव में दिख सकती है.
यूपी में सपा-बसपा के गठजोड़ का टेस्ट हो चुका है. 2014 के चुनाव में बीजेपी ने करीब 42 फीसदी वोट हासिल कर 71 सीटें जीत ली थीं. एसपी 22 फीसदी, बीएसपी 19.6 फीसदी और कांग्रेस 7.47 फीसदी पाकर फिसड्डी साबित हुई थी. मुलायम सिंह यादव खुद तो 2 जगह से जीतकर अपने कुनबे के 4 सदस्यों के साथ संसद पहुंचने में कामयाब हुए थे, लेकिन पूरे सूबे में उनके सभी उम्मीदवार मोदी की आंधी में उड़ गए थे.
बीएसपी का तो हाल और बुरा हुआ था. करीब 20 फीसदी वोट पाकर भी खाता नहीं खुल पाया. कांग्रेस भी सिर्फ अपने हाईकमान नंबर एक सोनिया गांधी और उस समय के हाईकमान नंबर दो राहुल गांधी की सीट बचाने में कामयाब हुई थी. 80 सीटों वाले सूबे में विपक्ष आंकड़ों के लिहाज से तलहटी में पहुंच गया था. मोदी लहर, शाह की शतरंजी चाल और चतुष्कोणी संघर्ष में गैर भाजपा दल तो लुट गए, लेकिन बीजेपी बम-बम होकर इतिहास बनाने में कामयाब हो गई.
कई विश्लेषक तो यहां तक मानते हैं कि तीनों पार्टियां अगर साथ आ गईं, तो बीजेपी 30 से 40 के बीच अटक जाएगी. 2019 के चुनाव में अभी एक साल बाकी है. इस एक साल में दोस्ती-दुश्मनी की दरिया में बहुत पानी बहेगा. धार का रुख कई बार मुड़ेगा.
पुरानी कहावत है. जो यूपी जीतेगा, वही देश पर राज करेगा. तो इस बार सारे दांव यूपी में चले जाएंगे. कर्नाटक में बीजेपी विरोधी किलेबंदी को जिस ढंग से मायावती और अखिलेश का खुलेआम समर्थन मिला है, वो यूपी के लाल निशान को और गहरा कर रहा है.
ऐसी ही तस्वीरें कुछ दूसरे राज्यों में भी बनती दिख सकती है. बिहार में मोटे तौर पर पहले से ही कांग्रेस और आरजेडी का साथ लड़ना तय है. पश्चिम बंगाल में ममता का रुख कांग्रेस के साथ आने के लेकर क्या होगा, अभी देखना है, लेकिन गठजोड़ से इनकार नहीं किया जा सकता. दक्षिण में आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में टीडीपी और टीआरएस गैर-भाजपा मोर्चे का हिस्सा बनने को तैयार दिख रहे हैं.
तमिलनाडु में पिछली बार भी डीएमके और कांग्रेस साथ थी. झारखंड और हरियाणा जैसे छोटे राज्यों में भी जेएमएम और आईएनएलडी जैसी पार्टियां अपने अस्तित्व के लिए कांग्रेस से तामलेल करके मैदान में उतर सकती हैं.
कर्नाटक में मिले झटके की अप्रिय गूंज मोदी और शाह को नए सिरे से गोटियां बिछाने और जनता की नजर विरोधियों के डिसक्रेडिट करने के तरीके खोजने पर मजबूर करेगी. ये मजबूरी ही कर्नाटक में बनने वाली ‘स्वामी सरकार’ के लिए कांटे बोएगी, गड्ढे खोदेगी. डाल-डाल और पात-पात की इस लड़ाई में बीजेपी की पूरी कोशिश होगी कि जेडीएस और कांग्रेस अगर अपना कुनबा बचाकर 2019 की बाधा दौड़ तक पहुंचने में कामयाब न हो.
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Published: 20 May 2018,06:59 PM IST