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उत्तर प्रदेश के कासगंज में माहौल पूरी तरह शांत नहीं हुआ है. या यूं कहें कि माहौल को भड़काने की कोशिशें जारी हैं. सोमवार को वहां एक धार्मिक स्थल को जलाने की कोशिश हुई. सुरक्षाबलों ने समय रहते हस्तक्षेप किया, इसलिए मामला आगे नहीं बढ़ा. लेकिन इससे एक बात तो साफ हुई है कि कुछ लोग हैं जो लगातार दंगा भड़काने की कोशिश कर रहे हैं. ये कौन लोग हैं? और आखिर इन लोगों पर सूबे के राज्यपाल राम नाईक और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की बातों का असर क्यों नहीं हो रहा?
राम नाईक ने कहा है कि कासगंज में दंगा उत्तर प्रदेश के माथे पर कलंक है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी इस “कलंक” पर अफसोस जताते हुए कहा है कि दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी. ऐसे में सवाल यह है कि जब राज्य की सत्ता के शीर्ष पर बैठे दोनों व्यक्तियों की राय एक है और प्रशासन को दंगाइयों से सख्ती से निपटने का आदेश दिया गया है तो फिर कासगंज रह-रह कर क्यों सुलग उठता है?
इस पूरे मामले को समझने के लिए हमें राजनीति के चरित्र को समझना होगा. राम नाईक और योगी आदित्यनाथ ने जो कहा है वह राजनीति का एक पहलू है. वह दोनों इस समय संवैधानिक पदों पर हैं. इसलिए उन दोनों से यह अपेक्षा रहती है कि वह ऐसी किसी भी घटना की निंदा करें और निष्पक्ष जांच कराएं. लेकिन यहां राजनीति का एक दूसरा पक्ष भी है. वह पक्ष सियासी ध्रुवीकरण के खेल में बहुत बड़ी भूमिका अदा करता है.
उस पक्ष पर गौर करने से पहले राजनीति के व्यापक अर्थ को समझना जरूरी है. राजनीति के दो अर्थ होते हैं. राज करने की नीति और राज हासिल करने की नीति. दोनों में साम्य हो, एकरूपता हो- यह उम्मीद की जाती है और ऐसा हुआ तो वह आदर्श स्थिति होगी. लेकिन आमतौर पर देखा गया है कि दोनों में जमीन-आसमान का अंतर होता है. राज करने की नीति और राज हासिल करने की नीति अलग-अलग होती हैं.
इसलिए बीजेपी के भी दो चेहरे हैं. सत्ता में संवैधानिक पदों पर बैठे उसके नेता भले ही विकास, ईमानदारी और साफ-सुथरे शासन की बात कहें, लेकिन उसका काम बगैर धर्म के चल नहीं सकता. बिना धार्मिक ध्रुवीकरण हो नहीं सकता. इसलिए कासगंज में क्या होगा और कासगंज से आगे राजनीति किस दिशा में जाएगी, इसे समझने के लिए शासन के शीर्ष पदों पर बैठे लोगों के आधिकारिक बयानों से इतर पार्टी के कुछ और नेताओं के बयानों पर गौर करना होगा.
बीजेपी सांसद हैं. बजरंग दल के संस्थापक अध्यक्ष रह चुके हैं. विश्व हिंदू परिषद से भी गहरा जुड़ाव रहा है. इन्होंने कहा है कि “कासगंज में हिंदू-मुस्लिम सब प्यार से रहते हैं. लेकिन वहां “पाकिस्तान परस्त” लोग आ गए हैं. जो भारतीय तिरंगे को स्वीकार नहीं कर रहे हैं. वो पाकिस्तानी झंडे को ही स्वीकार कर रहे हैं. पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा लगा रहे हैं. तो ऐसे लोगों के साथ सख्ती होनी चाहिए. उन्हीं लोगों ने हमारे एक कार्यकर्ता को गोली से मार दिया है. शुरुआत उनकी तरफ से हुई है. मैं समझता हूं कि सरकार सख्त कदम उठा रही है और सख्त कदम उठाने की जरुरत है. एसआईटी का गठन कर दिया है. कोई अपराधी बचने नहीं पाएगा.”
बीजेपी में कट्टरपंथी धड़े का प्रतिनिधित्व करती हैं और अभी केंद्र में मंत्री हैं. उन्होंने कहा है कि यह घटना बताती है कि “राष्ट्रविरोधी तत्व” तिरंगा यात्रा बर्दाश्त नहीं कर सकते. उत्तर प्रदेश सरकार सख्त कदम उठा रही है.
इन्हें आप टेलीविजन चैनलों पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रतिनिधित्व करते पाएंगे. इनका कहना है कि “कासगंज में जो हुआ उसे दो समुदायों के बीच का झगड़ा नहीं समझना चाहिए. पहले कश्मीर में तिरंगा फहराने का विरोध होता था और यह पहली बार हुआ है कि किसी अन्य जगह पर तिरंगा लेकर जाते हुए, भारत माता की जय का नारा लगाते हुए युवकों पर गोली चलाई गई है.”
इन बयानों से आप क्या अंदाजा लगाएंगे? यही न कि हिंसा दुखद है, लेकिन हिंसा के लिए जिम्मेदार ऐसे “राष्ट्रविरोधी तत्व” हैं जो “पाकिस्तान समर्थक” हैं और दंगा उन्हीं की वजह से हुआ है. तिरंगा यात्रा निकालने वाले युवक तो “राष्ट्रभक्त” हैं. मतलब कासगंज में हुई हिंसा को लेकर सत्ताधारी पक्ष में एक सियासी अवधारणा बन चुकी है और भविष्य में बीजेपी की राजनीति भी उसी अवधारणा के आधार पर होगी. राज के आचरण पर भी उस अवधारणा का असर दिखेगा. हिंसा में मारे गए चंदन गुप्ता के परिवार के प्रति शासन-प्रशासन का रवैया सहानुभूतिपूर्ण और उसी हिंसा में घायल नौशाद को लेकर उसका रवैया उदासीन यूं ही नहीं है.
दूसरी धारा हर हाल में धर्म आधारित बहस को राष्ट्रवाद के चोले में जिंदा रखना चाहती है. 2014 लोकसभा चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करके बीजेपी ने वही किया था. उनके नाम पर जोरदार धार्मिक ध्रुवीकरण हुआ और नरेंद्र मोदी स्पष्ट बहुमत के साथ देश के प्रधानमंत्री बने. फिर हमने 2015 में देखा कि संघ प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण की समीक्षा संबंधित बयान ने जाति आधारित बहस को सुर्खियों में ला दिया. धर्म आधारित बहस पीछे चली गई. नतीजा बिहार विधानसभा चुनाव में बीजेपी को करारी हार मिली.
उत्तर प्रदेश चुनाव में जिस तरह बीएसपी और समाजवादी पार्टी ने अल्पसंख्यक कार्ड खेला उसने मुजफ्फरनगर दंगों के बाद शुरू हुई धर्म आधारित बहस को फिर से जिंदा कर दिया. वोटों का ध्रुवीकरण हो गया. बीएसपी और एसपी के अलग-अलग चुनाव लड़ने से मुकाबला त्रिकोणीय हुआ. विरोधी वोटों का बंटवारा हुआ और उत्तर प्रदेश में बीजेपी जोरदार बहुमत के साथ सरकार में आ गई. योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बने. लेकिन गुजरात चुनाव से पहले पासा एक फिर पलट गया. धर्म पर जाति भारी पड़ने लगी. एक बार तो ऐसा लगा कि बीजेपी का यह सबसे मजबूत गढ़ ढह जाएगा. लेकिन मोदी के नाम पर बीजेपी की लाज किसी तरह बच गई.
ये बड़ी लड़ाइयां हैं. लेकिन 2019 में होने वाले महासमर के मुकाबले काफी छोटी हैं. 2019 लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक बार फिर आजमाइश होनी है. वो मैदान में हैं इसलिए थोड़ा ध्रुवीकरण तो शुरू से रहेगा. लेकिन उस थोड़े ध्रुवीकरण से काम नहीं चलेगा. सत्ता विरोधी लहर भी होगी. इसलिए पूरा ध्रुवीकरण करना होगा. जातीय अस्मिता के सवालों को पीछे ढकेलना होगा. सिर्फ धार्मिक अस्मिता की बात होनी चाहिए. वह भी राष्ट्रवाद के खोल में.
इस रणनीति पर काम भी चल रहा है. कासगंज को आप ‘पद्मावत’ से जोड़ कर देखिए तो तस्वीर थोड़ी साफ होगी. ‘पद्मावत’ के नाम पर जो बवाल हुआ वह उसी कड़ी का हिस्सा था. राज्य सरकारों ने सुनियोजित तरीके से राजपूत संगठनों को बलवा फैलाने की छूट दी और फिर “खिलजी” के बहाने एक जातीय अस्मिता को धार्मिक अस्मिता और राष्ट्रीय अस्मिता से जोड़ने की कोशिश की गई. हालांकि राजस्थान उप चुनाव के नतीजे बताते हैं बीजेपी का ये दांव चला नहीं है. ध्रुवीकरण की राजनीति में पूरी कामयाबी नहीं मिली है, लेकिन इससे एक काम जरूर हुआ. बीते कुछ समय से चल रहे दलितों और पिछड़ों के आंदोलन से लोगों को ध्यान बंट गया और धार्मिक अस्मिता की बहस फिर से शुरू हो गई. मतलब बीजेपी और संघ की जमीन तैयार हो गई है. कासगंज उसी की अगली कड़ी है. इसे अलग करके मत देखिए.
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