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हम सड़कों पर उतर आए हैं, हमारे हाथ जलती मोमबत्तियों से दग्ध हैं. हमारे अंदर का हाहाकार, विरोध और नारों की शक्ल में धीरे-धीरे बाहर आ रहा है, हम उस दुनिया को नेस्तनाबूत कर देना चाहते हैं जो हमारी बेटियों को सुकून और हिफाजत भरी जिंदगी नहीं दे पा रहा.
सत्ता की चुप्पी टूट रही है, अपना आसन डोलता देख, लेशमात्र ही सही, उनमें हलचल तो हुई. वीभत्स मुस्कुराहट वाला आरोपी सलाखों के भीतर है. बलात्कारियों के पक्ष में तिरंगे के नीचे रैली निकालने वालों ने पद छोड़ दिए हैं. संयुक्त राष्ट्र ने भी संज्ञान ले लिया है. हम खुश हैं, होना भी चाहिए. आखिरकार, हमने एक लोकतांत्रिक देश के सजग नागरिक होने का अपना फर्ज अदा कर दिया है.
लेकिन अब? अब हमारी सामूहिक चेतना क्या करे? क्या हम अपने विरोध के पोस्टर समेट लें? मोमबत्तियां बुझाकर वापस अपने झोले में रख लें और एक-दूसरे को विदा देते हुए अपनी रोजमर्रा की मुसीबतों से जूझने में व्यस्त हो जाएं?
ये सवाल मौजूं इसलिए है, क्योंकि जिन बेटियों की लड़ाई में हमारे चार कदम के साथ ने समाज की एक गलीज परत को उघाड़कर रहनुमाओं की प्राथमिकता बदल दी, वो अपनी लड़ाई में केवल निचले पायदान तक पहुंच पाई हैं. न्याय की चौखट पर उनके सामने अभी इतनी लंबी चढ़ाई बाकी है जिसे नाप पाने में शायद उनकी उम्र ही निकल जाएगी. जब तक उन्हें न्याय मिलेगा हो सकता है अपनी जिन बेटियों को आज हम चिंताग्रस्त हो स्कूल भेज रहे हैं, तब तक उनकी शादी की तैयारियों में व्यस्त हों. ये मेरे वक्ती जज्बात नहीं, आकड़े कहते हैं.
1996 में दिल्ली में लॉ की पढ़ाई कर रही प्रियदर्शनी मट्टू की उसी के साथी ने बलात्कार कर नृशंस हत्या कर दी थी. अपराधी संतोष सिंह जम्मू-कश्मीर के आईजी पुलिस का बेटा है. बेटे के खिलाफ मामला दर्ज होने के बावजूद उसके पिता को दिल्ली का पुलिस ज़्वाइंट कमिश्नर बना दिया गया. ज़ाहिर है जांच में पुलिस ने इतनी लापरवाही बरती कि चार साल बाद सबूतों के अभाव में निचली अदालत ने उसे बरी कर दिया.
लोगों के आक्रोश के बाद जब तक मामला हाईकोर्ट तक पहुंचा संतोष सिंह खुद वकील बन चुका था और उसकी शादी भी हो चुकी थी, जबकि प्रियदर्शनी का परिवार उसे न्याय दिलाने के लिए अदालतों के बंद दरवाजों को बेबसी से खटखटा रहा था. ग्यारहवें साल में हाईकोर्ट ने संतोष सिंह को मौत की सजा सुनाई, जिसे 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने उम्र कैद में तब्दील कर दिया. उसके बाद भी संतोष सिंह कई बार पैरोल पर बाहर आ चुका है.
दुनियाभर में बलात्कार सबसे कम रिपोर्ट होने वाला अपराध है. शायद इसलिए भी कि दुनियाभर के कानूनों में बलात्कार सबसे मुश्किल से साबित किया जाने वाला अपराध भी है, ये तब जबकि खुद को प्रगतिशील और लोकतांत्रिक कहने वाले देश औरतों को बराबरी और सुरक्षा देना सदी की सबसे बड़ी उपलब्धि मानते हैं.
ज़्यादातर मामलों में पीड़िता पुलिस तक पहुंचने की हिम्मत जुटाने में इतना वक्त ले लेती है कि फॉरेंसिक साक्ष्य नहीं के बराबर बचते हैं. उसके बाद भी कानून की पेचीदगियां ऐसी कि ये जिम्मेदारी बलात्कार पीड़िता के ऊपर होती है कि वो अपने ऊपर हुए अत्याचार को साबित करे बजाय इसके कि बलात्कारी अदालत में खुद के निर्दोष साबित करे.
यौन उत्पीड़न के खिलाफ काम कर रही अमेरिकी संस्था रेप, असॉल्ट एंड इन्सेस्ट नेशनल नेटवर्क (RAINN) ने यौन अपराधों में सजा से जुड़ा एक दिल दहला देने वाला आंकड़ा जारी किया है. इसके मुताबिक अमेरिका में होने वाले हर एक हजार यौन अपराधों में केवल 310 मामले पुलिस को सामने आते हैं, जिसमें केवल 6 मामलों में अपराधी को जेल हो पाती है, जबकि चोरी के हर हजार मामले में 20 और मार-पीट की स्थिति में 33 अपराधी सलाखों के पीछे होते हैं.
इसलिए कहती हूं, उन्नाव और कठुआ की लड़ाई अभी शुरू ही हुई है. लड़ाई लंबी है, क्योंकि सामने वाला पैसे और बाहुबल दोनों से ताकतवर है. इसके पहले कि हमारी मोमबत्तियों की लौ ठंडी हो जाए, याद रखिएगा, जिन गिने-चुने मामलों में सजा होती है आम जनता आक्रोश और विरोध की वजह से ही हो पाती है. इसलिए हमारे सामने चुनौती ये है कि हम इन मामलों को अदालती तारीखों के मकड़जाल से निकालकर जल्द से जल्द अंतिम फैसले तक कैसे पहुंचाएं.
मरने वाला न्याय-अन्याय से ऊपर जा चुका होता है. सलाखों के पीछे पहुंचा हर अपराधी भविष्य में होने वाले अपराधों की आशंका को कम करता है. इसलिए ये लड़ाई हमारी है, हमारी बेटियों की, हमारे भविष्य को, हमारे समाज को बचाने की.
(डॉ. शिल्पी झा जीडी गोएनका यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ कम्यूनिकेशन में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. इसके पहले उन्होंने बतौर टीवी पत्रकार ‘आजतक’ और ‘वॉइस ऑफ अमेरिका’ की हिंदी सर्विस में काम किया है.)
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Published: 16 Apr 2018,01:21 PM IST