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18 मई को जब कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) के नेता पिनराई विजयन ने अपनी कैबिनेट को चुना तो एक झटका लगा- पूर्व स्वास्थ्य मंत्री केके शैलजा तस्वीर से गायब थीं. माकपा ने इसका तर्क यह दिया कि पार्टी ने कैबिनेट में नई टीम को उतारने का फैसला किया और इसी वजह से शैलजा उसमें शामिल नहीं हैं. लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि पिनराई विजयन को दूसरी बार भी मुख्यमंत्री बनने का मौका मिल रहा है.
इसके अलावा शैलजा की लोकप्रियता का परचम ऊंचा लहरा रहा है. उन्होंने बहुत शानदार तरीके से कोविड-19 और निपा वायरस जैसी महामारियों को काबू किया है. लेकिन फिर भी ‘टीचर’, जैसा कि उन्हें कभी साइंस टीचर होने के नाते स्नेह से बुलाया जाता है, को नकार दिया गया- वह भी तब, जब वह बेहतरीन काम कर रही थीं.
वैसे केरल की मौजूदा कैबिनेट में माकपा की दो महिला नेता हैं- थ्रिसूर की मेयर आर बिंदु और विधायक वीना जॉर्ज. फिर भी यह सवाल खड़ा होता है कि पिनराई विजयन अपने उन पूर्व मंत्रियों को ईनाम क्यों नहीं देना चाहते जो लोकप्रिय हैं और अपने काम और चुनावों, दोनों में खरे उतरे हैं.
इस सवाल का जवाब आपको थॉमस इसाक के जरिए मिल सकता है.केरल के पूर्व वित्त मंत्री और माकपा नेता को इन विधानसभा चुनावों में टिकट नहीं दिया गया. वह एक अच्छे नेता हैं और राष्ट्रीय मीडिया में काफी लोकप्रिय भी. पर उन्हें चुनाव लड़ने नहीं दिया गया क्योंकि माकपा ने फैसला किया था कि कैबिनेट में दो बार चुने जाने वाले नेताओं को 2021 के विधानसभा चुनावों में खड़ा नहीं किया जाएगा.
लेकिन पिनराई विजयन खुद अपवाद बन गए. वह 1996 और 1998 के बीच बिजली और सहकारिता मंत्री रहे और फिर 2016 में धरमादम से चुने जाने के बाद केरल के 12वें मुख्यमंत्री बने.
इस तरह 2021 में उन्होंने तीसरी बार चुना लड़ा और लगातार दूसरी बार धरमादम सीट पर जीत हासिल की. इसके बाद माकपा ने उन्हें विधानसभा में पार्टी का नेता चुना और मुख्यमंत्री नामजद कर दिया.
पार्टी को चलाने के लिए विजयन जैसा ‘स्टालिनवादी’ तरीका अपनाते हैं, उसकी लगातार आलोचना होती है. अगर माकपा में उन्हें कोई अपने मुकाबले दिखता है तो उसका कद छोटा कर दिया जाता है.
जैसे पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ माकपा नेता वीएस अच्युतानंदन के साथ विजयन का मनमुटाव लंबा चला, और विजयन ने बहुत कायदे से वह हिसाब बराबर किया था. माकपा ने भी हमेशा विजयन का साथ दिया.
अच्युतानंदन अब 98 साल के हैं. जब वह 2006 से 2011 के बीच केरल के मुख्यमंत्री थे, तब विजयन माकपा के जनरल सेक्रेटरी थे. उस समय वह लगातार अच्युतानंदन के नेतृत्व पर सवाल खड़े करते थे.इससे अच्युतानंदन कमजोर जरूर पड़े थे. 2016 में विजयन मुख्यमंत्री बने, तो इसका यही निष्कर्ष निकाला गया कि इस द्वंद्व में वही विजेता साबित हुए. अच्युतानंदन के अलावा उनके समर्थक भी किनारे लगा दिए गए. अब थॉमस इसाक और केके शैलजा के तस्वीर से गायब होने का भी यही मायने है कि यह संघर्ष युद्ध का रूप अख्तियार करता- उससे पहले ही विजयन ने जीत हासिल कर ली है.
सोशल मीडिया पर केके शैलजा के खिलाफ फैसले पर अलग-अलग प्रतिक्रियाएं दी गईं. माकपा समर्थकों ने भी इसकी आलोचना की.लेकिन कोई कितने लंबे समय तक विरोध जता सकता है. समय के साथ सब भुला दिया जाएगा.
लेकिन नुकसान तो हो चुका है. एक बार फिर से विजयन ऐसे नेता माने जा रहे हैं जो अपने फायदे के लिए प्रतिद्वंद्वियों को कुचल देता है. चाहे इससे पार्टी को नुकसान हो, या राज्य में सुशासन पर इसका असर पड़े. विजयन लगातार खुद को जनता के नेता और अच्छे प्रशासक के तौर पर पेश कर रहे हैं. लेकिन एक सवाल फिर उठ खड़ा रहा है, “क्या पिनराई के पसंदीदा ही पार्टी में रहेंगे?” वैसे इस बार उनके दामाद विधायक मोहम्मद रियास भी कैबिनेट में हैं.
दूसरा इससे माकपा की छवि भी फीकी पड़ी है. वह पहले ही अपने राष्ट्रीय स्तर का दर्जा खो चुकी है, चूंकि केरल के अलावा ज्यादातर जगहों पर बुरी तरह सिमट चुकी है.
महामारी के दौरान शैलजा के राजनैतिक कद को कतरने का असर पार्टी के महिला मतदाताओं पर पड़ सकता है. एक महिला मंत्री को महज़ विधायक के दर्जे तक सीमित कर दिया गया है. माकपा ने सबरीमाला मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू करने का फैसला किया था और इससे पार्टी के महिला समर्थकों के बीच विजयन की साख बनी थी. लेकिन शैलजा को दरकिनार करके क्या वह साख कमजोर नहीं होगी?
2018 में सुप्रीम कोर्ट ने जब सबरीमाला मंदिर में सभी आयु वर्ग की महिलाओं को दाखिल होने की मंजूरी दी थी, तब माकपा सरकार ने इस फैसले का स्वागत किया था. ऐसा माना जाता है कि इस चुनावों में महिलाओं ने बड़ी संख्या में पार्टी को वोट दिया है.
लेकिन जब अच्छा प्रदर्शन करने वाली महिला मंत्री को दूसरी बार कैबिनेट में नहीं रखा जाता, तब जेंडर जस्टिस का कोई मायने नहीं रहता.
अब केरल में माकपा वन मैन आर्मी है. वह भी उन हालात में, जब पश्चिम बंगाल जैसे गढ़ में उसके पैर उखड़ चुके हैं और त्रिपुरा में वह खुद को खड़ा करने के लिए संघर्ष कर रही है.
लेकिन क्या पिनराई विजयन और उनका राजनैतिक विशेषाधिकार माकपा से बढ़कर है? विजयन के नेतृत्व में माकपा के वरिष्ठ नेताओं को लगातार दरकिनार किया जाना, इस बात का संकेत है कि पार्टी में उनकी बात किसी भी दूसरे नेता से ज्यादा मानी जाती है.
क्या असली माकपा सामने आएगी और फैसले लेगी? या पिनराई विजयन ही अब असली माकपा हैं?
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