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कोविड-19 महामारी को लेकर भारतीय प्रबंधन के गुणगान के बाद अब हम उसके विकराल स्थिति को संभालने के लिए सलाहों के गर्त में बैठे हैं ।सवाल जो सबकी जुबान पर है-आखिर हमारा स्वास्थ्य प्रशासन ,जो कि एक साल पहले कुशलता से काम कर रहा था, अब अचानक बदहाल क्यों हो गया है ?
2020 के अंत होते-होते हमारे महान देश ने यह मान ही लिया कि अब महामारी खत्म हो चुकी है. हम भारतीयों ने कोविड-19 महामारी को फैलने देने से रोकने की अपनी उपलब्धि पर गर्व महसूस किया .विदेशों में रह रहे दोस्तों और रिश्तेदारों को तो हमने भारतीय युवा जनसंख्या में मौजूद अद्भुत स्तर के इम्यूनिटी के आकड़े देने शुरू कर दिए.
भारत में बनी वैक्सीन को 80 से ज्यादा देशों को बांट कर भारत ने उनके प्रति अपनी सहानुभूति दिखाई तथा नाम भी कमाया.
अब जब परिस्थितियां बिल्कुल बदल गई हैं, सवाल उठता है क्या डॉक्टरों ने -जिन्हें पता था कि त्योहारों ,पांच राज्यों में चुनाव और लॉकडाउन के मारे नागरिकों का एक साथ बाहर आना महामारी को और प्रसारित करेगा- पूर्ण सावधानी की सलाह दी थी? क्या उन्होंने आने वाली परिस्थिति की बारीकियों को लिखित में दिया था? दूसरे देशों में संक्रमण में विस्तार के साथ नए म्युटेंट के खतरों को लेकर उन्होंने कोई पेशेवर सलाह और आगे की रणनीति सुझायी थी?
कुछ सप्ताह के अंदर कोविड संक्रमण की संख्या में अत्यधिक बढ़ोतरी हुई है.अब युवा भी बड़ी तादाद में संक्रमित हो रहे हैं। अस्पतालों में बेड़ों की कमी ,मुर्दाघरों में लगी भीड़ और शवदाह के लिए लाइन में लगे परिजन उसी प्रशासन की विफलता का प्रमाण हैं जिसने एक साल पहले अभूतपूर्व प्रदर्शन किया था. भीड़ वाले समारोहों का आयोजन और बिना मास्क के आपस में मिलना ये सब कोविड सर्ज के लिए जिम्मेदार हैं.इसका कारण, जो कि हर एक पर लागू होता है जो महामारी के प्रबंधन के लिए उत्तरदायी थे, यह है :-
इसका कारण, जो कि हर एक पर लागू होता है जो महामारी के प्रबंधन के लिए उत्तरदायी थे, यह है :-
दशकों में भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था ने कलात्मक रूप से अपनी उन 2 भूमिकाओं के बीच अंतर सीखा है जहां एक तरफ उसकी भूमिका कानून के अंदर काम करते अधिकारी की है तो दूसरी तरफ सरकार की योजनाओं को बनाने वाले और लागू करने वाले की है. पहली भूमिका में कानून के तहत सार्वजनिक कर्तव्यों तो निभाना होता है- ऐसी जिम्मेदारी जिसे बांटा,तय या जिसकी निगरानी नहीं की जा सकती.
दूसरी भूमिका में उसे उन सरकारी योजनाओं को बनाना और लागू करना होता है जिसका स्रोत राजकीय शक्ति है। परंतु निर्णय लेने के स्तर वाले अधिकारी- चाहे केंद्र में हो या राज्य में -ने इन दोनों भूमिकाओं में भेद मिटा दिया है. वे बस कानून के तहत अपने ऑर्डर पालन करने के आदी हो गए हैं .
इसे ऐसे समझिए-
सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय, कि सार्वजनिक भूमि पर किसी भी धार्मिक ढांचे के निर्माण की मंजूरी नहीं होगी, को लागू करने पर एक युवा एसडीएम को मुख्यमंत्री द्वारा बर्खास्त कर दिया गया .पूर्व कैबिनेट सचिव ने इस प्रकरण पर कहा कि लॉ एंड ऑर्डर के मामलों पर निर्णय लेने का अधिकार मुख्यमंत्री और नेताओं को नहीं बल्कि नामित डीएम , एसडीएम की होती है. crPC के अंतर्गत सीएम को मान्यता प्राप्त नहीं है .इसी तरह राजनीतिक कार्यपालिका को वैसे कई कानूनों पर कदम उठाने का अधिकार नहीं है जो कि स्वास्थ्य खतरों ,संक्रमण प्रसार से जुड़े हैं.
अब बात 2021 की.क्या हरिद्वार के डीएम ने अप्रैल 2021 में लाखों लोगों के गंगा स्नान से कोरोना प्रसार के खतरों को रेखांकित किया था ?क्या उन्होंने यह तथ्य मुख्य सचिव और राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकारी के सामने उठाई थी ?क्या उन्होंने इसमें मौजूद खतरों पर अपनी राय लिखित रूप में सौंपी थी? इसी तरह क्या सार्वजनिक स्वास्थ्य एजेंसियों ने अपनी राय सामने रखी?
क्या स्वास्थ्य मंत्रालय ,NDMA और कैबिनेट सचिव की लिखित सहमति ली गई थी? आखिरकार इसका असर सिर्फ हरिद्वार के नागरिकों पर नहीं बल्कि पूरे देश के नागरिकों पर होना था .इस पर देशव्यापी प्रतिक्रिया की जरूरत थी .
यह इस बात पर भी सवाल उठाता है कि क्या जो उत्तरदायित्व आपदा प्रबंधन कानून और महामारी कानून 1897 के अंतर्गत दी गई है उसे इतनी आसानी से नजरअंदाज किया जा सकता है जब इतने व्यापक स्वास्थ्य खतरों की गुंजाइश थी? सार्वजनिक अधिकारी नागरिकों के स्वास्थ्य और सुरक्षा के प्रति सिर्फ भारतीय संविधान और कानून के अंतर्गत उत्तरदायी नहीं है बल्कि कई अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य संधियों के अंतर्गत भी उत्तरदायी हैं.
महामारी की रोकथाम, उसके इलाज की जिम्मेदारी राज्य स्वास्थ्य मशीनरी की है.वह संक्रामक बीमारियों का पता लगाने ,उसकी सूचना देने और उसके अनुसार तत्काल प्रभावी कदम उठाने को बाध्य है ताकि सार्वजनिक स्वास्थ्य जोखिमों का सामना किया जा सके. इसके विपरीत प्रशासन ने अपने वैधानिक उत्तरदायित्व को निभाने की जगह है ऐसे सुपर स्प्रेडर इवेंट की इजाजत दी, यह जानते हुए कि उसके भयंकर परिणाम हो सकते हैं.
और यहां आती है बात चुनावी रैलियों की. चुनाव आयोग द्वारा जारी निर्देशों के अनुसार आयोग उम्मीदवारों ,स्टार प्रचारकों और राजनेताओं के द्वारा निर्देशों के उल्लंघन की दशा में सार्वजनिक सभा और रैली पर प्रतिबंध लगाने से नहीं हिचकेगा .
(पर क्या इसका अनुपालन आयोग ने हाल के सप्ताहों में बड़ी चुनावी रैलियों के बीच किया? कोविड गाइडलाइन्स के प्रथम उल्लंघन पर ही उम्मीदवार को अयोग्य घोषित क्यों नहीं किया?)
जब आईपीएल के मैच खाली स्टेडियम में हो सकते हैं तब चुनाव आयोग हजारों लोगों को रैलियों में साथ आने क्यों दे रहा है? क्यों राज्य मुख्य चुनाव अधिकारी और जिलों के डीएम ने भारत चुनाव आयोग को स्थिति की गंभीरता बताते हुए अपने सुझाव नहीं दिये?
आज हम गंभीर आपातकाल का सामना कर रहे हैं, जिसका मुख्य कारण बड़ी सभाओं द्वारा महामारी का प्रसार और सक्षम संस्थाओं द्वारा ना उठाया गया प्रभावी कदम है. अधिकारियों द्वारा निष्क्रिय रूप से हाथ पर हाथ धरे बैठना और राजनीतिक आकाओं के आदेशों का इंतजार करते हुए महामारी प्रसार की स्थिति बने रहने देना एक आपराधिक काम था. इस मौजूदा स्थिति के दोषी सारे राजनेता, सार्वजनिक संस्थाएं और प्रशासन समान रूप से हैं, एक सक्षम न्यायालय द्वारा वैधानिक कर्तव्यों के आधार पर मामले को सुना और उस पर निर्णय दिया जा सकता था.
अभी भी स्थिति संभाली जा सकती है उसे संभालना ही होगा.
(कुमारी चंद्रा रिटायर्ड आईएएस अफसर हैं और स्वास्थ्य विभाग की पूर्व सचिव और दिल्ली की पूर्व मुख्य सचिव रह चुकी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @over2shailaja है.)
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