मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019लेबर बिल: विपक्ष के बिना पास ‘सुधार’, पुराना सिस्टम ही बरकरार

लेबर बिल: विपक्ष के बिना पास ‘सुधार’, पुराना सिस्टम ही बरकरार

मजदूरों के हाथ पहले भी खाली थे, अब भी खाली रहने वाले हैं क्योंकि उनके लिए नए लेबर कोड्स में खास कुछ नया नहीं है

संजॉय घोष
नजरिया
Published:
कई मजदूर संगठनों ने 25 सितंबर को बुलाए गए भारत बंद को दिया समर्थन
i
कई मजदूर संगठनों ने 25 सितंबर को बुलाए गए भारत बंद को दिया समर्थन
(फोटो: क्विंट हिंदी)

advertisement

संसद में हाल के सबसे महत्वपूर्ण श्रम सुधारों पर मंजूरी मिल गई है. यह मौका खास तौर से यादगार रहने वाला है. चूंकि सदन में विपक्ष की कुर्सियां खाली थीं. इधर विरोधी पार्टियां सदन के बाहर कृषि विधेयकों पर नाराजगी जता रही थीं, उधर सदन के भीतर श्रम संहिताओं को पारित किया जा रहा था. विपक्ष इस बात से नाराज था कि रविवार को राज्यसभा में कायदे से वोटिंग किए बिना कैसे किसानों से जुड़े विधेयकों को पारित कर दिया गया.

इससे पहले भी यह सरकार कई दिलेर कदम उठा चुकी है, नोटबंदी, जीएसटी और इसी हफ्ते पारित किए गए कृषि सुधार. ये श्रम सुधार भी इसी श्रृंखला की अगली कड़ी हैं. लोकसभा ने इन्हें 22 सितंबर को पारित किया. औद्योगिक संबंधों के क्षेत्र में ये पासा पलटने की ताकत रखते हैं. इनके जरिए श्रम और पूंजी, दोनों एक ऐसी मरणासन्न प्रणाली से आजाद हो जाएंगे, जिसने अब तक किसी को फायदा नहीं पहुंचाया है.

एक मेकओवर ने मेरे दिल को सबसे ज्यादा छुआ है, वह है जेंडर्ड ‘वर्कमैन’ की जगह जेंडर न्यूट्रल ‘वर्कर’ की मौजूदगी.

सामाजिक सुरक्षा संहिता के दायरे में क्या आता है, और इससे क्या हासिल होता है?

संसद वेतन संहिता को पहले ही पास कर चुकी है. इस संहिता में न्यूनतम वेतन अधिनियम, वेतन भुगतान अधिनियम और ग्रैच्युटी अधिनियम जैसे कानूनों को शामिल किया गया है. अब संसद ने बाकी की तीन संहिताओं को भी पारित कर दिया है, जोकि औद्योगिक संबंध (Industrial Relation), व्यवसायगत सुरक्षा (Occupational Security) और सामाजिक संरक्षण (Social Protection) पर केंद्रित हैं.

दरअसल कई श्रम कानूनों को चार व्यापक संहिताओं में शामिल करना एक मुश्किल विधायी काम था. अब हमें खुद से यह सवाल पूछना है कि इस संहिताकरण यानी कोडिफिकेशन से हमें क्या हासिल हुआ- सिवाय कोडिफिकेशन के?

सामाजिक सुरक्षा संहिता में मौजूदा कई कानून शामिल हैं, और यह संहिता प्रॉविडेंट फंड्स, भवन निर्माण और निर्माण श्रमिक और असंगठित श्रमिकों, मेटरनिटी बेनेफिट, कर्मचारियों को मुआवजा और कर्मचारी राज्य बीमा से जुड़े मसलों को सुलझाती है. अध्याय IX के रूप में कुछ वैल्यू एडिशन भी किए गए हैं. अध्याय IX में असंगठित, गिग और प्लेटफॉर्म वर्कर्स जैसे ऊबर/ओला ड्राइवर और जोमैटो/स्विगी के डिलिवरी ब्वॉय से जुड़े प्रावधान शामिल हैं.

इस अध्याय में इन लोगों के रजिस्ट्रेशन की बात कही गई है और यह इन लोगों के लिए जीवन बीमा, स्वास्थ्य और मेटरनिटी बेनेफिट जैसी योजनाएं भी बनाता है. इनके लिए एग्रीगेटर्स को गिग/प्लेटफॉर्म वर्कर्स को चुकाई जाने वाली राशि का पांच प्रतिशत तक अंशदान देना होगा.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

नेगोशिएटिंग ट्रेड यूनियन का नया कॉन्सेप्ट

श्रम सुधार हमेशा विवादों के घेरे में रहे हैं और यह लाजमी है कि सरकार इन्हें लेकर सावधान रहे. मिसाल के तौर पर जब सुप्रीम कोर्ट ने राजप्पा मामले में ‘उद्योग’ की व्यापक परिभाषा दी थी ताकि लोकल पानवाले और तिरुपति मंदिर को औद्योगिक कानून के रेगुलेटरी दायरे में लाया जा सके तो संसद ने 1983 में इसकी परिभाषा में संशोधन किया था. हालांकि बाद की सरकारों ने इससे संबंधित अधिसूचना जारी करने की हिम्मत नहीं दिखाई.

फिलहाल औद्योगिक संबंध संहिता में इस बदलाव से मानो कन्नी काटी गई है. इसमें ‘उद्योग’ की वही व्यापक परिभाषा मौजूदा है जिसकी अदालत ने व्याख्या की थी. उसने छोटे व्यापारियों, मॉम एंड पॉप शॉप्स यानी पारिवारिक स्तर के छोटे व्यापार और धर्मार्थ संगठनों को ‘उद्योग’ की परिभाषा के दायरे में ही रखा है.

यहां तक कि इस संहिता में 1947 के कानून के कुछ बकाया निशान भी दिखाई देते हैं, जैसे ‘कार्य समितियों’ और ‘शिकायत निवारण समितियों’ की मौजूदगी. ये दोनों समितियां औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के तहत स्थापित किसी भी औद्योगिक व्यवस्था में शायद ही काम करती हों.

हालांकि यह नेगोशिएटिंग ट्रेड यूनियन का नया कॉन्सेप्ट भी लेकर आई है. अगर किसी कंपनी में कई यूनियन्स हैं तो 51% सदस्यों वाली यूनियन या काउंसिल को नेगोशिएटिंग यूनियन कहा जाएगा. यह कदम स्वागत योग्य है लेकिन इस पर कोई नियम नहीं बनाए गए हैं कि यह बहुमत वाला दर्जा कैसे तय होगा और यह तय करने का जिम्मा कौन उठाएगा.

अधिकतर ट्रेड यूनियन विवाद इसी के इर्द-गिर्द उत्पन्न होते हैं. हालांकि संहिता में कहा गया है कि ट्रेड यूनियन्स, सदस्यों और परिसंघों के विवादों को हल करने के लिए ट्रिब्यूनल बनाया जाएगा. ट्रेड यूनियन्स एक्ट, 1923 की एक बड़ी कमी यही थी कि विवाद निवारण के लिए किसी मंच उपलब्ध नहीं था.

लेबर कोर्ट्स और औद्योगिक ट्रिब्यूनलों के बीच के अंतर खत्म

स्टैंडिंग ऑर्डर यानी स्थायी आदेश के लिहाज से देखा जाए (जोकि श्रमिकों के वर्गीकरण और अनुशासनात्मक नियमों को तय करता है) तो कर्मचारियों की संख्या की सीमा को बढ़ाया गया है. यह अब 300 से अधिक श्रमिकों वाले इस्टैबलिशमेंट्स पर लागू होंगे. कामबंदी, छंटनी और कंपनी बंद करने के लिए सरकार की इजाजत की जरूरत उन कंपनियों को पड़ेगी, जहां 100 नहीं, 300 से अधिक कर्मचारी काम करते हैं. औद्योगिक संबंध संहिता में वर्कर्स री-स्किलिंग फंड की भी बात की गई है जिसमें इंप्लॉयर को हर उस कर्मचारी के नाम पर 15 दिन का वेतन जमा कराना होगा, जिसकी छंटनी की गई है. इस फंड से छंटनी के शिकार हर कर्मचारी को 15 दिन का वेतन दिया जाएगा.

वैसे संहिता में विवरण अस्पष्ट हैं, क्योंकि भारत जैसे देश में किसी ईमानदार कर्मचारी का शोषण और बेइमान कर्मचारी के साथ दुर्व्यवहार कोई असामान्य बात नहीं है.

औद्योगिक संहिता लेबर कोर्ट्स और औद्योगिक ट्रिब्यूनल्स के बीच के अंतर को मिटाती है. हालांकि इसका स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन इसका यह हल दिया गया है कि दो सदस्यों वाली औद्योगिक ट्रिब्यूनल में एक ज्यूडीशियल और दूसरा प्रशासनिक सदस्य हो. भारत में ‘ट्रिब्यूनलाइजेशन’ के अनुभवों ने इस उम्मीद को झूठा साबित किया है कि प्रशासनिक सदस्य अपने साथ एक्सपर्टाइज लेकर आएंगे और इसका असर न्यायिक फैसलों पर पड़ेगा. अधिकतर मामलों में इन सदस्यों की मौजूदगी के बावजूद फैसलों पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता है और ऐसे पद सिर्फ रिटायर्ड ब्यूरोक्रेट्स की पनाहगाह बनकर रह जाते हैं.

नई बोतल में पुरानी शराब??

यह कहना मुश्किल है कि सरकार ने एक फेल्ड सिस्टम को इस संहिता में क्यों कायम रखा है. एक दौर वह भी था, जब वह खुद इस बात पर गंभीरता से विचार कर रही थी कि ट्रिब्यूनलों की क्या जरूरत है.

तो, सभी संहिताओं के मंसूबे बड़े दिखते हैं लेकिन अगर बारीकी से देखें तो कुछ और ही नजर आता है.

सिवाय इसके कि 300 से अधिक कर्मचारियों वाले इस्टैबिशमेंट्स को ‘हायर एंड फायर’ की अनुमति दी गई है, सभी संहिताएं जैसे नई बोतल में पुरानी शराब ही परोस रही हैं.

बेशक, एक स्पष्ट नजरिए का अभाव है क्योंकि अंतिम सांसे लेती कानूनी व्यवस्था में नए प्राण फूंकने के लिए जबरदस्त सुधारों की जरूरत है ताकि औद्योगिक संबंधों में गतिशीलता आ सके. तभी उद्योग जगत इस देश के विकास का असली वाहक बनेगा.

(लेखक दिल्ली हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के प्रैक्टीसिंग एडवोकेट हैं. वह @adsanjoy पर ट्विट करते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विट न इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: undefined

Read More
ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT