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वो किसी कथा के त्रासद नायक जैसे हैं. वो इतिहास पुरूष थे पर आज वो इतिहास हो गये हैं. एक समय था जब उनका डंका पीटा जाता था. जब उनकी जयजयकार होती थी. जब शहर का हर आदमी उनसे जुड़ने को बेकरार था. जब वो सत्ता के भी नायक थे और लोगों के भी. सिंहासन की हर सांस उनकी बंधक थी. वो लोगों की किस्मत बनाते और बिगाड़ते थे. इतिहास की दिशा भी उनसे पूछ कर तय होती थी. आज वहीं दूर से सत्ता का खेल टुकुर टुकुर देख रहे हैं. सत्ता बनती बिगड़ती जरूर है, पहले की ही तरह, पर अब वो उनसे पूछती नहीं. पार्टी वहीं है, लोग भी कमोवेश वहीं हैं, शहर भी वही है, बस शीर्ष पर बैठा व्यक्ति बदल गया है. खेल जारी है. सत्ता का खेल.
ये छोटा सी कहानी है लाल कृष्डण आडवाणी की. जब शहर दिल्ली आया, तीस साल पहले तो आडवाणी का जलवा था. वो भारतीय राजनीति के उभरते हुये नायक थे. उनके महानायक बनने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी. राममंदिर का आंदोलन आरंभ हो चुका था. उसको एक हीरो की तलाश थी. अटल बिहारी वाजपेयी वो नायक हो नहीं सकते थे. पूरा तानाबाना आडवाणी के इर्द गिर्द बुना गया. वो रथ पर सवार हो निकले तो "हिंदुत्व के योद्धाओं" ने हाथोंहाथ ले लिया.
समस्तीपुर में गिरफ़्तारी के वक़्त तक वो "हिंदू ह्रदय सम्राट" बन चुके थे. तब नरेंद्र मोदी कहीं नहीं थे, उस भीड़ में वो इस बात का इंतजार कर रहे थे कि आडवाणी जी की एक नजर पड़ जाये तो वो तर जाएं. आज इतिहास का चक्र उलट गया है . आज मोदी की कृपादृष्टि हो जाये तो आडवाणी फिर इतिहास में दर्ज हो जाये. वो चाह लें तो आडवाणी राष्ट्रपति बन जाएं.
विपक्ष के वो लोग जो आडवाणी के धुर विरोधी थे आज दबी ज़ुबान से उनके नाम को राष्ट्रपति पद का सबसे उचित उम्मीदवार मानते हैं. उन्हीं की पार्टी के शत्रुघ्न सिन्हा ने तो हाल में कह भी दिया है. दिल्ली शहर के कुछ कोनों पर उनके नाम के पोस्टर भी चिपक गये हैं पर जो पार्टी कभी उनके इशारे पर चलती थी आज चुप है. वो अपने ही बुज़ुर्ग नेता के सम्मान में एक शब्द बोलने को तैयार नहीं है. राष्ट्रपति के नाम की तलाश करने के लिये बनी कमेटी में वहीं लोग है जो कभी उनके सामने हाथ जोड़े खड़े रहते थे.
वेंकैया नायडू को पार्टी का अध्यक्ष आडवाणी ने बनवाया और 2001 में जब आडवाणी को संन्यास की मुद्रा में आना पड़ा तब भी वो वेंकैया को ही पार्टी अध्यक्ष बनाना चाहते थे. अरुण जेटली कभी आडवाणी के "ब्लू आइड व्वाय" हुआ करते थे. राजनाथ सिंह को वो जरूर संशय से देखते थे पर राजनाथ ने कभी भी आडवाणी की हेठी नहीं की. पर ये तीन भी आडवाणी का नाम प्रस्तावित करेंगे, ऐसा असंभव लगता है. वैसे राजनीति मे कुछ भी संभव है. पर आडवाणी राष्ट्रपति पद पर आसीन होंगे ये संभव नहीं लगता.
इसमें दो राय नहीं कि बीजेपी में आडवाणी के साथ सहानुभूति रखने वालों की लंबी कतार है. सैकड़ों ऐसे नेता है जिनका राजनीतिक करियर आडवाणी ने बनाया. उनका नाम अगर कमेटी आगे करे तो कहीं से विरोध नहीं होगा. बाबरी मस्जिद विध्वंस के बावजूद विपक्ष की कुछ पार्टियां उनके नाम पर रजामंद हो सकती हैं. पर ऐसा होगा, लगता नहीं है. इसके अपने कारण हैं.
सबसे बड़ा कारण है मोदी से आडवाणी का छत्तीस का आंकड़ा. हालांकि ये अजीब बात है. आडवाणी वो शख्स हैं जिसने मोदी को उस वक्त बचाया था जब मोदी अपने राजनीतिक जीवन में सबसे कमजोर विकेट पर थे. गुजरात दंगों से नाराज वाजपेयी ने मोदी को गुजरात के मुख्यमंत्री पद से हटाने का फैसला कर लिया था. आडवाणी ने जेटली के साथ मिलकर मोदी को जीवन दान देने का काम किया था.
पर ये भी उतना ही बड़ा सच है कि आडवाणी ने मोदी का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने का जमकर विरोध किया था. 9 जून 2013 को गोवा में जब बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में मोदी के नाम का प्रस्ताव लोकसभा चुनावों की कैंपेन कमेटी के प्रमुख के तौर पर रखा गया था तब आडवाणी गोवा में नहीं थे. उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं है, तब ऐसा कहा गया था. हकीकत कुछ और थी. वो नहीं चाहते थे कि मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बने. कमेटी का प्रमुख बनना इस बात का साफ इशारा था कि मोदी के लिये सात रेस कोर्स के दरवाजे खुल सकते हैं. तब आडवाणी की काफी मानमनौव्वल हुई थी. यहां तक कि एक प्राइवेट प्लेन का भी इंतजाम किया गया था. वो नहीं माने. जानकार बताते हैं कि आडवाणी पहली बार कार्यकारिणी की बैठक में शामिल नहीं हुए थे.
आडवाणी यहीं नहीं रुके. 13 सितंबर 2013 को बीजेपी की पार्लियामेंटरी बोर्ड की बैठक में मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार चुना जाना था. आडवाणी को भी बैठक में आना था. वो नहीं आये. दिन में पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह उनसे मिले थे. उनसे शिरकत की गुजारिश भी की थी पर आडवाणी ने उन्हें एक चिट्ठी थमा दी.
देर शाम बोर्ड की बैठक में आडवाणी का इंतजार होता रहा. आडवाणी अपने घर काफी उहापोह में दिखे. जानकारों ने बताया कि वो कई बार गाड़ी में बैठने के लिये आगे बढ़े पर आखिर में न जाना ही तय हुआ. और वो नहीं गये. उनकी गैरउपस्थिति में ही मोदी के नाम की घोषणा हो गई.
मोदी मनोनयन के बाद आडवाणी से मिलने गये. प्रधानमंत्री बनने के बाद जब पार्टी और सरकार में बदलाव किये गये तो आडवाणी को मार्गदर्शक मंडल में जगह मिली. इशारा साफ था. सरकार और पार्टी में आडवाणी की कोई भूमिका नहीं होगी. वो भीष्म पितामह की तरह हस्तिनापुर से बंधे रहना चाहते हैं तो बंधे रहें. राम के पुजारी को राजनीतिक संन्यास दे दिया गया. पार्टी में उनकी भूमिका समाप्त कर दी गई. आडवाणी अतीत के आइने में पेवस्त हो गये. आडवाणी शायद इसके लिये तैयार नहीं थे. आपातकाल के ऐलान की चालीसवीं वर्षगांठ पर इंडियन एक्सप्रेस को 25 जून 2015 को दिये इंटरव्यू मे आडवाणी ने वो टिप्पणी की, जो मोदी को चुभी जरूर होगी.
आडवाणी को राष्ट्रपति सिर्फ एक आदमी बना सकता है और उस शख्स का नाम है नरेंद्र मोदी, पर अब तक का जो कार्यकाल देखने में आया है वो भी कुछ कहता है. इंदिरा गांधी हो या मोदी दोनों को ही मजबूत राष्ट्रपति नहीं चाहिये. इंदिरा गांधी ने फखरुद्दीन अली अहमद को राष्ट्रपति बनाया था जिन्होंने बिना कैबिनेट की मंजूरी के देश में सुबह तड़के आपातकाल लगाने के कागज पर दस्तखत कर दिये थे. आगे चलकर उन्होंने ज्ञानी जैल सिंह को गद्दी सौंपी, जिन्होंने कहा था कि मेरी नेता यानी इंदिरा जी अगर झाड़ू लगाने को कहेंगी तो भी वो करेंगे.
ताकतवर और महत्वाकांक्षी प्रधानमंत्रियों को राष्ट्रपति नहीं रबर स्टैम्प चाहिये होता है.
इंदिरा की तरह मोदी भी किसी को खोज ही लेगें जो बिना हीला हवाली के सरकार के कहेनुसार दस्तखत कर दे. के आर नारायणन जैसे लोग सबको नहीं सुहाते. वो और ए पी जे कलाम गठबंधन की राजनीति की पैदावार हैं, पूर्ण बहुमत वाली सरकारें ऐसा नहीं करती. एक राजेंद्र प्रसाद बन गये थे जिन्होंने जवाहर लाल नेहरू की नाक में दम कर दिया था. आज पूर्ण बहुमत की सरकार है और मोदी इसके मुखिया. आडवाणी रबर स्टैंप नहीं हो सकते. इतिहास का तजुर्बा तो यही कहता है इसलिये वो राष्ट्रपति नहीं बन सकते. वो त्रासद नायक ही रहेंगे.
(लेखक आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 19 Jun 2017,01:03 PM IST