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लता मंगेशकर की याद: ‘लता: सुर-गाथा’ के बहाने

स्वर्गीय लता मंगेशकर पर ‘लता: सुर-गाथा’ जीवनी के लेखक यतीन्द्र मिश्र की जुबानी स्वर कोकिला की कहानी

यतीन्द्र मिश्र
नजरिया
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<div class="paragraphs"><p>लता मंगेशकर की याद: ‘लता: सुर-गाथा’ के बहाने</p></div>
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लता मंगेशकर की याद: ‘लता: सुर-गाथा’ के बहाने

(फोटो- अलटर्ड बाई क्विंट)

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आज सोचने पर आश्चर्य होता है कि कैसे लता जी (Lata Mangeshkar) के जीवन में एक लेखक के तौर पर मेरा प्रवेश हुआ. उनसे पारिवारिक जान-पहचान रही है, जिसका जिक्र यहां गैरजरूरी है. मैं उनके बारे में कुछ लिख सकता हूं, उनकी संगीत यात्रा का दस्तावेज बनाते हुए कोई किताब तैयार की जा सकती है- यह तो उनके सम्पर्क में रहने के बाद भी देर से मेरे ख्याल में आया. उस्ताद बिस्मिल्ला खां साहब पर किताब समाप्त करने के बाद यह मन में आया था कि खां साहब के अलावा जिस सबसे लोकप्रिय संगीतकार के बारे में लगभग हर दूसरा भारतवासी जानने का उत्सुक है, वह निश्चित ही लता जी हैं.

मुझे याद है कि कैसे सन 1989 में जब लता जी साठ वर्ष की हुईं थीं, तब एच.एम.वी. ने चार कैसेटों का एक एल्बम ‘माई फेवरेट’ के नाम से जारी किया था. उस समय मैं आठवीं कक्षा में पढ़ता था और लता मंगेशकर के प्रेम में एक दीवाने की तरह शामिल था. मुझे आज भी याद है कि मेरे जन्मदिन पर मुझे घर में हर जन्मदिन की तरह उस साल भी जो एक सौ एक रुपये बतौर आशीर्वाद में मिले थे, उससे मैंने उतने ही मूल्य का यही कैसेट एल्बम खरीदा था.

उसे लेकर लगभग महीनों तक सम्मोहन की स्थिति में रहा होऊंगा, जो लता मंगेशकर ने अपने सुनने वालों को अपनी तरफ से खुद की जन्मदिन भेंट सरीखा उस वक्त दिया था. पहली बार मैंने इसी एल्बम के माध्यम से ‘नौबहार’, ‘परख’ और ‘शिन शिनाकी बूबला बू’ जैसी फिल्मों के बारे में जाना, जिन फिल्मों में लता जी ने अपनी जादुई आवाज से कुछ अमर गीतों की सर्जना की थी.

बाद में मेरा लता-प्रेम बढ़ता गया और उसी अनुपात में उनके कैसेट एल्बमों का खरीदा जाना भी जुनून की हद तक बढ़ता गया. इस मजेदार खेल में बाद में मेरे संग्रह में ‘सजदा’, ‘श्रद्धांजिल भाग-1 एवं 2’, ‘लता मंगेशकर डायमंड फॉर एवर’, ‘लता मंगेशकर रेयर जेम्स’, ‘लता मंगेशकर: क्लासिकल सांग्स’, ‘मीरा-सूर-कबीरा’, ‘गुरुबानी’ और न जाने कितने एल्बम शामिल हुए.

लता जी को सुनकर जाना फिल्मी संगीत में भी मानसिक तैयारी जरूरी

लता जी को सुनते हुए यह एहसास मन में भीतर कहीं गहराया कि फिल्म संगीत भी दरअसल कहीं न कहीं शास्त्रीय और उपशास्त्रीय संगीत की तरह ही अपने सुने जाने के लिए एक विशेष मानसिक तैयारी की मांग करता है.

आप सिनेमा संगीत को चलताऊ ढंग से सुनते हुए उसकी नजाकत, खूबसूरती और बारीकी को पकड़ नहीं सकते. मसलन- अगर किसी गीत में लता मंगेशकर या मो. रफी मौजूद हैं और वे चार मिनट के गीत में किसी राग या उसकी छाया से सुर का एक पूरा स्टंक्चर खड़ा कर रहे हैं, तो किस तरह सहधर्मी वाद्यों का काम वहांआकार ले रहा है, ये देखना बेहद जरूरी बन जाता है.

हो सकता है, वहां वॉयलिन, पियानो, टंम्पेट, ऑर्गन या क्लैरोनेट आदि अपनी विशेष उपस्थिति में कुछ अतिरिक्त सुन्दरता पैदा कर रहे हों, जो गीत की सुरुचि या आस्वाद को बढ़ायेगा.

ऐसे में, लता जी के द्वारा की जाने वाली गायिकी की छोटी से छोटी हरकत भी बड़े महत्त्व की है, जिसमें मींड़, आलाप और तान या पलटे का काम अद्भुत रूप से देखा जा सकता है. अब इसमें यह बात सामने आती है कि कैसे आप चलते-फिरते फिल्मी गीतों को सुनकर उसके आस्वादपरक दुनिया से संवाद कायम कर सकते हैं.

इस लिहाज से यदि लता मंगेशकर की गायिकी को देखा जाये, तो उसमें नौशाद, एस.डी.बर्मन, रोशन, मदन मोहन, जयदेव, सलिल चौधरी और सी. रामचन्द्र जैसे ढेरों संगीतकारों की सोहबत में गाये गये सैकड़ों अमर गीतों की बात करना भी प्रासंगिक बन जाता है. फिर गीतकारों के शब्दों को लेकर किया गया नवाचार भी अलग से विमर्श की मांग करता है.

ये कुछ ऐसे बिन्दु थे, जिन्हें आधार बनाकर मैंने ‘लता: सुर-गाथा’ की परिकल्पना की थी. मेरा यह व्यक्तिगत विचार रहा है कि लता जी की लोकप्रिय छवि से अलग उनके भीतर मौजूद संगीत के गम्भीर विचारक रूप को उजागर करती हुई, एक ऐसी किताब लिखी जानी चाहिए, जो सालों बाद तक इस बात के लिए एक सन्दर्भ-पुस्तक की तरह देखी जा सके, जिसमें एक बड़ी पार्श्वगायिका के सांगीतिक जीवन पर गम्भीरता से विचार किया गया है. एक ऐसे संवाद और संघर्ष का प्रदर्शन, जिसमें भाषा भी संगीत के व्याकरण से ली गयी हो और जिसके विश्लेषण के औजार भी पॉपुलर फिल्म संगीत के स्टूडियो से चलकर आते हों.

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‘लता: सुर-गाथा’ की यात्रा

मेरे लिए लता मंगेशकर होने की सार्थकता इस बात में बसती है कि कैसे एक आवाज की दुनिया अपनी प्रभावपूर्ण उपस्थिति से एक पूरे सिनेमाई सांगीतिक विरासत में तब्दील होती है.

लता जी को जानना एक हद तक हिन्दी फिल्म संगीत इतिहास के पन्ने पलटने जैसा है, जिसमें ढेरों संगीतकार, विभिन्न क्षेत्रों से आए हुए अपनी-अपनी भाषा और बोलियों से समृद्ध गीतकार, सहयोगी पार्श्वगायक और गायिकाओं की एक लम्बी जमात शािमल रही है.

सन् 1947 से शुरु हुई यह यात्रा सन् 2017 तक आते हुए कैसे सत्तर सालों में लता मंगेशकर की गायिकी को बड़ा बनाती है, उस पर किया गया कोई भी काम, बेहद अनुशासन, प्रामाणिक सामग्री संकलन और गम्भीरता की मांग करता है, जिसे पूरी कोशिश के साथ मैंने निभाने का प्रयास किया था.

‘लता: सुर-गाथा’ की यात्रा सात वर्षों तक टुकड़ों-टुकड़ों में लम्बे चले आत्मीय संवाद के अंशों पर आधारित है. इसमें तमाम ऐसे पल आए हैं, जब लगा कि लता जी की बात अब पूरी हो गयी, मगर उसी वक्त किसी दूसरे पल में जाकर इस बात का भान हुआ कि उनके पास फिल्म संगीत और सिनेमा की दुनिया के इतने संस्मरण, इतनी कथाएं और इतने ग्रीन रूम रिहर्सल और रेकॉर्डिंग की बातें मौजूद हैं कि उन पर सिलसिलेवार एक लम्बे आख्यानपरक दस्तावेज सरीखा कुछ लिखा जाये, तो भी वह कुछ कम ही होगी.

यह कम लोग जानते हैं कि इस पुस्तक की पटकथा लगभग हजार पृष्ठों में बिखरी हुई थी, जिसे सम्पादित करते हुए मैंने 640 पृष्ठों की पुस्तक के रूप में पूरा किया. आज भी मुझे यह लगता है कि मेरा काम लता जी को लेकर अधूरा है और अभी इसी अनुपात में कम से कम 500-600 पृष्ठों की कुछ और सामग्री लिखी जा सकती है, जो उन्होंने बातचीत के दौरान मुझे उपलब्ध करायीं.

खालीपन जिसकी भरपाई सालों तक मुश्किल

आज जब वे 92 बरस की गरिमामय उम्र में इस दुनिया के पार चली गयी हैं, तो उनकी कही-अनकही बहुत सारी बातें याद आती हैं. उनकी सादगी, साथी कलाकारों के प्रति उनका प्रेम-भाव और अपनी इंडस्ट्री के लिए उनका उदारता से भरे होना मुझे एक बड़े कलाकार की निशानदेही के रूप में उनके प्रति और भी विनम्र बनाता है.

भविष्य में जब भी हिन्दी फिल्म संगीत और उसके विकास, उसके तकनीकी पक्ष, बदलावों तथा नये प्रयोगों की बात होगी, तब हर बार लता मंगेशकर की संगीत-यात्रा एक मानक और प्रामाणिक सन्दर्भ-ग्रन्थ की तरह सामने आकर खड़ी हो जायेगी.

उनके जाने के बाद मेरा यह विश्वास और पक्का हुआ है कि कई यतीन्द्र मिश्र और ढेरों ‘सुर गाथाएं’ लिखी जाने के बाद भी लता जी की साधना, उनके संघर्ष, कठिन परिश्रम तथा संगीत के बदलाव भरे दौरों में अपने को बार-बार सामयिक बनाते जाने की युक्ति को पूरी तरह से कह और लिख पाना मुश्किल होगा.

उन्हें सबसे सच्ची और आदर भरी श्रद्धांजलि यही होगी कि आने वाली पीढ़ी, जो फिल्म संगीत में अपना करियर बनाना चाहती है, वो उनके बताए रास्ते पर चले और उनकी गायिकी से खुद के लिए कुछ ऐसा सीख सके, जिससे उसकी दुनिया लता जी की तरह ही सुरीली बन सके. फिलहाल तो उनके जाने से अभी बड़ा खालीपन ही दिखाई देता है, जिसकी भरपाई सालों तक हो पाना जरा मुश्किल काम है.

(लेखक यतीन्द्र मिश्र अयोध्या राजघराने के राजकुमार साहित्यकार हैं और उन्होंने स्वर्गीय लता मंगेशकर पर ‘लता: सुर-गाथा’ नाम की पुस्तक भी लिखी है. लेखक को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार 'स्वर्ण-कमल' से नवाजा जा चुका है. उनका ट्विटर @Yatindra76 है.)

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