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इसी महीने की शुरुआत में मैं पुर्तगाल के दौरे पर गया. ये एक ऐसा देश है, जहां जाने की मेरी हमेशा इच्छा रही. इसकी वजह हैं नाविक हेनरी, जिनके बारे में मैंने पहली बार अब से 35 साल पहले सुना. ये वही शख्स थे, जिन्होंने अफ्रीका के पश्चिमी किनारे पर 1425-50AD में पुर्तगाल के वजूद को तलाशना शुरू किया.
उम्मीदों के मुकाबले हर पैमाने पर हजार गुना ज्यादा खरा उतरने वाला ये देश वाकई बेमिसाल है. लेकिन पुर्तगाल कभी भी भारतीय टूरिस्टों के रडार पर नहीं रहा.
लेकिन मेरा ये लेख पुर्तगाल के टूरिज्म पर नहीं है. ये लेख इस बात पर है कि ये देश अपने इतिहास और उसके हीरो को किस नजरिये से देखता है. इतिहास में जाएं, तो भारत और भारतीयों में पुर्तगाल और इंग्लैंड की खास दिलचस्पी रही है, लेकिन दोनों के बीच फर्क साफ है.
और इन सब चीजों को जिस शख्स ने संभव बनाया, वो और कोई नहीं वास्को-डि-गामा ही था, जिसे पुर्तगाल में ही भुला दिया गया. वैसे ही, जैसा कि बार्तोलोमेव डियास और पेड्रो काबरल के साथ हुआ, जिसने भयावह मुश्किलों का सामना करते हुए इंसानों को बसाने के लिए समंदर का रुख बदल दिया.
कोचीन से लिस्बन ले जाए गए वास्को-डि-गामा के अवशेषों के होने के पक्के अंदाजे के साथ मैंने वहां एक शानदार चर्च में प्रवेश किया. ये चर्च उस जगह से करीब आधा किलोमीटर दूर है, जहां से वास्को-डि-गामा ने भारत के लिए प्रस्थान किया था. लेकिन बेलेम नाम की ये जगह आज वास्को-डि-गामा से कहीं ज्यादा अपनी खास पेस्ट्री के लिए प्रसिद्ध है.
अपने हीरो को इस तरह से भुला देने की बात चौंकाने वाली है. खास तौर से इस तथ्य को समझते हुए कि वास्को-डि-गामा और फर्डिनेंड मैगेलन के बिना पुर्तगाल कभी भी समंदर पर दबदबे वाला और साम्राज्यवादी ताकत न होता, जितना कि था. लेकिन तब से अब तक का 500 साल का वक्त काफी लंबा होता है और तब से अब तक पुर्तगाल काफी आगे निकल चुका है. राजनीतिक और सैन्य ताकत से लेकर आर्थिक क्षेत्र में भी.
इंग्लैंड, जिसे मैं यूके कहना पसंद करूंगा, क्योंकि अंग्रेज जंगली होते हैं- एक अलग ही चरित्र पेश करता है. इन दोनों के बीच सबसे बड़ा फर्क अपने हीरो और चर्चों के साथ उनके व्यवहार में है.
पुर्तगाल अपने धार्मिक स्थानों का इस्तेमाल युद्धों और उनके हीरो को महिमामंडित करने के लिए नहीं करता है, जबकि इंग्लैंड में यही काम होता है. इंग्लैंड के लिए इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि कोई युद्ध कितना महत्वहीन था या किसी वार हीरो की उपलब्धियां कितनी छोटी थी.
यही वजह है कि पुर्तगाल ने स्कूलों में अपने शर्मनाक साम्राज्यवादी इतिहास को पढ़ाना बंदकर दिया है, जबकि इंग्लैंड के चर्चों का इसमें अभी भी भरपूर भरोसा बना हुआ है. इंग्लैंड अपनी कई सारी राजनीतिक, दार्शनिक, वैज्ञानिक और कला के क्षेत्र में उपलब्धियां हासिल करने के बाद भी अपने साम्राज्यवादी इतिहास के गुरूर से बाहर नहीं निकला है. उनके फुटबॉल प्रशंसकों का शोर भी इस बात की गवाही देता है.
ब्राजील और अंगोला तक में अपना साम्राज्य कायम करने वाला और 1500 से लेकर 1650 तक अकेले समुद्री ताकत रहे पुर्तगाल में आपको हर कहीं उनके हीरोज की स्टैच्यू नजर नहीं आएगी, जबकि इंग्लैंड में ये रुटीन है.
शायद ये चौंकाने वाला फर्क इस वजह से, क्योंकि पुर्तगाल ने अपना साम्राज्यवादी विस्तार भगवान के नाम पर किया, जबकि इंग्लैंड ने ये काम व्यापारिक हित के लिए किया. और वे बाद में हमारे लिए सेक्शन 377 की शक्ल में कुछ बेतुका छोड़ गए.
मैंने इन चीजों के बारे में नहीं लिखा होता, अगर भारत इस वक्त इस मुद्दे पर असमंजस की स्थिति में न होता कि हम अपने हीरो के साथ किस तरह का बर्ताव करें और उससे भी ज्यादा क्रूरतापूर्ण ये कि वे कौन हैं?
हम अपने द्वारा बनाए गए संविधान की पूजा करते हैं या गंगा के मैदान के मिथकों की, इस बात पर निर्भर करते हुए हम अजीब तरीके से चीजों के पक्ष या विपक्ष में खड़े हो रहे हैं. पिछले चार सालों में बहस और चर्चा गाली-गलौज के स्तर पर पहुंच चुकी है और मुद्दे गायब हैं.
कांग्रेस और उनके समर्थक संविधान की पूजा करने का दावा करते हैं. जबकि वो बीजेपी जो पहले भगवान के विकल्प पर निर्भर नहीं थी, वो अब भगवान के अलावा किसी को नहीं मानती है.
2019 में भारतीय तय करेंगे कि वो किस हीरो को तवज्जो देते हैं, भगवान या संविधान? मोदी जी खुद को इन दोनों पक्षों के हीरो के रूप में स्थापित करते हैं, परंतु किसी भी पक्ष को भरोसा नहीं दे पा रहे हैं.
मेरी पसंद : नेहरू, पटेल, होमी जहांगीर भाभा, एचआर खन्ना और आरके लक्ष्मण. मैं ये आप पर छोड़ता हूं कि क्यों. अगर आप इसमें सफल होंगे, तो न सिर्फ आप ये समझ जाएंगे कि हीरोइज्म क्या चीज है और हीरो किस मिट्टी से बने होते हैं, बल्कि तब आप भारत के राजनीतिक, वैज्ञानिक, संवैधानिक और सोशल हिस्ट्री को समझने में भी कामयाब होंगे.
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